अभी कल ही तो ये पत्ते शाख से जुड़े,
एक प्राण, एक मन,
एक जीव हो फले–फूले,
अपने चरम उत्कर्ष की ललक लिए जीए, अपनी पूर्णता से।
आज पीली चादर में परिणित,
शाख से अलग हो,
बिछ गए ज़मीन पर।
पीली, हरी और हरी-पीली
चितकबरी झालर से झर-झर झरे।
नष्ट होते हुए भी अपनी
सुन्दर गुणवत्ता की छाप
कर गए अवतरित, मिट्टी की उर्वरता के रूप में।
कल फिर एक नई जिजीविषा में हो अंकुरित,
फूट निकलेंगे ये पत्ते उसी शाख पर,
छोटी-छोटी हथेलियाँ खोले फिर से हरियाली ओढ़े,
खोने के ग़म और पाने की ख़ुशी से निर्लिप्त।
हरे पत्तों की चादर की सरसराहट,
स्वर्णिम पत्तों की मर्मराहट,
सूखी शाखाओं की खड़खड़ाहट,
अनवरत इसी क्रम की निरंतरता में
प्रकृति का अहम् हिस्सा बने ये पत्ते,
नश्वर होकर भी शाश्वत अस्तित्व की पहचान से
बहुत-कुछ बतियाते-कहते-सुनते जाते हैं।