विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

बेटे का मुँह भर माँ कहना, 
बेटी का दो पल संग रहना, 
मेंरे सुख की छाँह यही है, 
इसके आगे चाह नहीं है। 
 
बहुत बढ़ गया मानव आगे, 
चाँद नाप आया पाँवों से। 
मेंरी परिधि बहुत ही सीमित, 
बाँधे हूँ, बस, दो बाँहों से। 
 
बच्चों का यों खुल कर हँसना, 
गले अचानक ही आ लगना, 
मेरा सब कुछ आज यही है, 
इसके आगे चाह नहीं है। 
 
जीवन के ये बड़े-बड़े सुख, 
मिलें सदा छोटी बातों से। 
डरता है मन, फिसल न जाएँ, 
अनजाने में निज हाथों से। 
 
इनका यह बिन बात मचलना, 
पल में मनना, फिर आ मिलना। 
मेरा सुख-साम्राज्य यही है, 
इसके आगे चाह नहीं है। 
 
हो साधारण, प्यार बहुत है, 
मुझको निज अमोल सपनों से। 
घिरी रहूँ जीवन संध्या में, 
स्नेह ज्योति से, बस, अपनों से। 
 
जाड़ों की हो धूप गुनगुनी, 
साथ-संग मिल बैठें हम सब। 
चुप कुछ सुनना, हँस कुछ कहना, 
ऐसे सुख की थाह नहीं है। 
इसके आगे चाह नहीं है। 

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