गगन सा निस्सीम,  धरा सा विस्तीर्ण,  अनल सा दाहक,  अनिल सा वाहक,  सागर सा विस्तार,  तुम्हारा प्यार!     विश्व में देश,  देश में नगर,  नगर का कोई परिवेश,  उसमें, मैं अकिंचन!     अपनी लघुता से विश्वस्त,  तुम्हारी महत्ता से आश्वस्त,  निज सीमाओं में आबद्ध,  मैं हूँ प्रसन्नवदन!     परस्पर हम प्रतिश्रुत,  पल-पल बढ़ता प्यार,  शब्दों पर नहीं आश्रित,  भावों को भावों से राह!     तुम्हारी महिमा का आभास पाकर मैंने अनायास,  दिया सौंप सारा अपनापन चिन्तारहित मेरा मन!  आगे पढ़ें
थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा।  चहुँ दिशि जब देखती हूँ, काम बिखरा बहुत सारा॥   स्वप्नदर्शी मन मेरा, चाहता छू ले गगन को,  मन की गति में वेग इतना, मात कर देता, पवन को,  क्लान्त है शरीर, पर मन है अभी तक नहीं हारा।  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   जो जिया जीवन अभी तक, मात्र अपने ही जिया है,  अमृत मिला चाहे गरल, अपने निमित्त मैंने पिया है।  कर सकूँ इससे पृथक कुछ, बदलकर जीवन की धारा,  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   कुछ नया करने की मन में कामना मेरी प्रबल है,  अर्थमय कुछ कर सकूँ, यह भावना मेरी सबल है।  व्यक्ति से समष्टि तक जा सकूँ, मन का यही नारा,  थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती हैं अब सहारा॥   लालिमा प्राची में है, बादल घनेरे छँट रहे हैं,  अस्पष्टता और दुविधा के… आगे पढ़ें
जितना मैं झुकती हूँ,  उतना झुकाते हो।  जितना चुप रहती हूँ,  उतना ही सुनाते हो॥ लचीली कोमल टहनी सी,  झुकना मुझे आता है।  चंचल, गतिशील,  पर रुकना मुझे आता है॥   दबाव का प्रभाव, यदि कुछ अधिक हुआ,  सूखी टहनी सी मैं टूट-बिखर जाऊँगी।    आत्मबल और विश्वास होने के उपरान्त भी,  तुम्हारे ही तो क्या,  किसी के काम न आऊँगी॥   बात समानता की तो सभी कर लेते हैं,  समानता का अधिकार फिर भी क्या देते हैं?    पति-परमेश्वर की तो बात अब पुरानी है,  आधुनिक युग में तो बिल्कुल बेमानी है।    सदियों पे सदियाँ दासता में बीत गयीं,  उसके पश्चात् अब ताज़ी हवा आयी है।    नारियों का जागरण देश-देश हो रहा,  यह जागॄति कुछेक अधिकार ले आई है।    इस परिवर्तन से नवजीवन मिलेगा,  हमारे व्यक्तित्व का नवप्रदीप जलेगा।    होगा घर-आँगन तुम्हारा ही तो ज्योतिर्मय,  जीर्ण-शीर्ण परम्परा का प्राचीर ढहेगा।  आगे पढ़ें
जीवन में है मिला बहुत कुछ इससे कब इन्कार किया? जो भी पाया, जितना पाया, सबसे मैंने प्यार किया॥   कभी नहीं चाहा मैंने हाथ बढ़ाकर छू लूँ नभ। और धरा को मापूँ मैं, करी कामना ऐसी कब?   सहज मार्ग से जब जो आया, उससे ही पाया संतोष। मुस्कानों के जल से प्रक्षालित करती मैं रोष॥   कुछ खट्टे, कुछ मीठे अनुभव, सानन्द जिये मैंने इस पार। कभी नहीं सोचा क्या होगा, जब जाऊँगी मैं उस पार॥   प्यार मिला भरपूर, मेरे आँगन में छायी हरियाली। फल-फूल रहा विटप मेरा हँसती-गाती डाली-डाली॥   इस बगिया की कलियों की किलकारी आँगन में गूँजी। जीवन की इस सन्ध्या में मेरा सर्वस्व यही पूँजी॥ आगे पढ़ें
सफ़र है कहीं, सुहाना।  पर कहीं अनुतरित्त प्रश्नों के साए में,  कहीं कोई आहत मन,  हर साँस में कुछ कहता, कुछ ढूँढ़ता  पोर-पोर बिखरता, कितनी ही परतों में,  फिर-फिर हो उमंगित, फिर-फिर विस्मित चहक-चहक उड़ता फिर-फिर।    सोच है, जोश है, कर्म हैं पास  है हर्षित मानस, उल्लसित अनगिनत उमंगित।  नित नव् उदित, उमंगित तरंगित लहरें  जो चकित सी तिरती, अधखुली आँखों के,  सपनों पर हो आच्छादित  कर जाती हैं अपने जादू का टोना।  रुलाकर-हँसाकर, नव-प्राण कर प्रवाहित  जिला जाती हैं बार-बार।  सफ़र है कहीं सुहाना।  पर कहीं अनुतरित्त प्रश्नों के साए में।  कहीं आहत मन,  हर साँस में कुछ कहता, कुछ ढूँढ़ता  पोर-पोर बिखरता, कितनी ही परतों में,  फिर भी उमंगित, फिर भी विस्मित चहक-चहक उड़ता फिर-फिर।    नित ताल मिला, तेज़ रफ़्तार के साथ  सब कुछ पीछे छोड़, फिर आगे की सोच,  जिनमें कुछ है नियत, कुछ है अनजान।  और कितनी बार, विध्वंस, आहत के ढेर… आगे पढ़ें
सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर . . .    होली, दिवाली के रंगों और  दीयों में बिखरती–झिलमिलाती  सुनहरी खनक सबको सुनाने।  अपनी मिट्टी की महक की ख़बर।  त्योहारों के पावन अवसर पर,  मन के कोनों को बुहार,  नए रंगों की सरगम फैलाने,  सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर।    सुरमई रंग और चिर-परिचित  ख़ुश्बू की याद दिलाने,  सुदूर देश की पुरवाई से  आख़िर आ ही जाती है,  मन की धानी परतों की इन्द्रधनुषी लहर . . .।  आगे पढ़ें
मज़बूत शरीर है यह जो दिखता  अंदर मेरे भी है— कोमल सा दिल, मेरा अपना।  है धुँधली सी, पर हैं गहरी यादें,  देखा है छुप–छुप चुपके से आँसू पोंछते।  भारी ज़िम्मेदारी है कंधों पर पर फिर भी सदा मुस्काता,  ज्यों पर्वत में रहता छिपा,  मीठे पानी का स्रोता।  मज़बूत शरीर में है मेरे भी,  कोमल सा दिल, मेरा अपना।  आगे पढ़ें
रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर पिता का वह प्यार॥   है अगर, पिता का आशीर्वाद सिर पर  कोई भी न आए आँच,  यह है उन दुआओं का असर।  बटोर लो क़ुदरत का अनमोल वरदान यह,  सहेज लो प्यार की इस धरोहर को।  रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर पिता का वह प्यार॥   जो इज़हार भी न कर पाता कई बार  काम की मजबूरी,  न व्यक्त पाने की झिझक,  या हो कारण कन्धों पर ज़िम्मेदारी की क़तार  पर लाता है जीवन में,  सही अर्थों में अर्थ की बहार।  युग की तरह समेट लो, पल-पल बिताया साथ,  ख़ुशनसीब है, जब तक  मस्तक पर है वरदान सा हाथ।  रह जाता है अनकहा, अनगिना, जबकि कई बार  उम्र के कई मोड़ पर वह प्यार॥   पीता है चुपचाप जो सबके ग़मों को,  पिता है यह न… आगे पढ़ें
नए साल के नए सूरज की, नई किरणें कह रही,  चुपके से आ हर द्वार– नई उमंगें, नए सपनों का इन्द्रधनुष,  हो यथार्थ में साकार . . .!!  शुभकामनाएँ आत्मसात हो बरसें, हरपल,  हर दिल ले ख़ुशियों का आकार . . .!!!    सुरभि, मकरंद युक्त पराग कण उड़ते,  भीनी-भीनी बयार के संग  निमंत्रण दे हर जन को,  बहारों को आत्मसात करने का!    सुनो, भूल जाओ सब शिकवे बीते साल के,  कर लो स्वागत अंजुरी में भर कर  इस नई अछूती सुबह, दिन और शाम का!    नयनों के कोरों में झलकते सपनों को तितलियों के सतरंगे परों पर बैठाकर डाल–डाल, फूल-फूल चहकाकर,  सूर्य किरणों के रथ पर चढ़ाकर आसमान में ऊँचे छा दो उन्नति के रंग में ढाल!    नए साल के नए सूरज की,  नई किरणें कह रहीं,  चुपके से आ हर द्वार— नई उमंगें, नए सपनों का इन्द्रधनुष,  हो यथार्थ में साकार . .… आगे पढ़ें
बसंत-ऋतु का जादू भरमाती,  प्रकृति इतराती, निखारती रूप  जगत में करती उमंग-बहार का पसेरा।  चकित हो देखा, अजान मानुस है बेखबर,  बन मशीनी पुतला, जी रहा है शून्य में, सिफर-सा।  पूछ बैठी उत्सुकता और तरस से भर– अरे सुनो! क्या बता पाओगे? कब देखा था पिछली बार–?  आमों का बौर, कोयल का कूकते हुए मँडराना,  उगते और डूबते सूरज की लालिमा से नभ का रंग जाना?  अरे सुनो! पिछली बार कब महसूस किया था?  फूलों की ख़ुश्बू चुराकर लाई बयार का स्पर्श।  ओस-कणों का बड़े नाज़ों से पंखुडियों पर तैरना,  बिखरे पराग की ताजगी से मन का खिल जाना।  स्मित-सा देखा प्रकृति ने, फिर पूछा –जी रहे हो क्या तुम?  सुन प्रकृति की बात,  जगत के जीवों में सर्व बुद्धिमान,  मनुष्यों की भीड़ का सैलाब-मन ही मन मुस्काया,  कैसी है मूरख, पगली यह,  किसके पास है समय, इन व्यर्थ बातों का?  मैं इतना आधुनिक, विकसित,  चौबीसों घंटे हूँ… आगे पढ़ें
अभी कल ही तो ये पत्ते शाख से जुड़े,  एक प्राण, एक मन,  एक जीव हो फले–फूले,  अपने चरम उत्कर्ष की ललक लिए जीए, अपनी पूर्णता से।  आज पीली चादर में परिणित,  शाख से अलग हो,  बिछ गए ज़मीन पर।    पीली, हरी और हरी-पीली  चितकबरी झालर से झर-झर झरे।  नष्ट होते हुए भी अपनी  सुन्दर गुणवत्ता की छाप  कर गए अवतरित, मिट्टी की उर्वरता के रूप में।  कल फिर एक नई जिजीविषा में हो अंकुरित,  फूट निकलेंगे ये पत्ते उसी शाख पर,  छोटी-छोटी हथेलियाँ खोले फिर से हरियाली ओढ़े,  खोने के ग़म और पाने की ख़ुशी से निर्लिप्त।  हरे पत्तों की चादर की सरसराहट,  स्वर्णिम पत्तों की मर्मराहट,  सूखी शाखाओं की खड़खड़ाहट,  अनवरत इसी क्रम की निरंतरता में  प्रकृति का अहम् हिस्सा बने ये पत्ते,  नश्वर होकर भी शाश्वत अस्तित्व की पहचान से  बहुत-कुछ बतियाते-कहते-सुनते जाते हैं।  आगे पढ़ें
ये एक कारवाँ  है एक अनवरत सिलसिला।  जो बाँध अपने साथ अपने शहर,  गली की यादों को  मन में एक उल्लास, हर्ष,  और थोड़ी सी लिए कसक  निकला है कोई, फिर घर से।    सहेज कर लाई  मुट्ठी भर अपनी संस्कृति,  विदेश की धरती पर दिल और मुट्ठी दोनों,  खोलकर दी बिखेर।  सारी आशाएँ, सारे ख़्वाब, मोतियों की तरह,  बिखेर क्या दिए, नहीं . . . रोप दिए इस नई मिट्टी में, अपनी मेहनत के रंग से।  छोटे–छोटे अपने तम्बू से ताने,  सुनहरे अंकुरित बीजों के पौधों में  उग आए एक नई संस्कृति के सतरंगी फूल।  इन फूलों की ख़ुश्बू महकाने,  निकला है कोई फिर घर से।    सालों, दशकों बाद आज वही  एक-एक मुट्ठी संस्कृति, भारत से बाहर  हर राज्य की छटा बिखेर–निखर,  फल–फूल रही अपने पूरे कलेवर में।  विदेशी आकर्षण और  अपनी संस्कृति की जीवन्तता में  उपजाने एक नई संस्कृति,  निकला है कोई फिर घर से। … आगे पढ़ें
कृषि धन-धान्य से परिपूर्ण,  सस्काचेवन और इसके आसपास के क्षेत्र की धरती  जहाँ असीमित आसमान इतना जीवंत, इतना सजीव।  ज्यों चित्रकार ने अपनी अत्यंत अनुभवी तूलिका से जैसे— यूँ ही उकेर दिया नीला, चाँदी सा चमकीला, स्लेटी रंग।  पड़ती जब उस पर डूबते सूरज की,  स्वर्णिम आभा की नारंगी, क़ुदरती मटमैली  और कभी सतरंगी धारियाँ-सी बनती,  रोज़ एक नवीन, विस्मित नज़ारा सूर्यास्त का,  मोह लेता है मन।  यूँ ही नहीं कहते इसे— जीवंत आसमान की धरती का जादू।    सहसा लगेगा, बादल ये चलते हैं,  सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम तक,  बदल-बदल कर स्वरूप अपना।  उगते सूरज की लालिमा से आच्छादित नभ पर,  सफ़ेद रुई के गोले, पारे से चमकते,  गहरे नीले पवित्र, स्वच्छ कैनवास पर।  गर्मियों की शाम में रेतीली नदी के किनारे,  संध्या में पश्चिमी आसमान का एक कोना,  कहीं सुनहरी नारंगी, कहीं चाँदी सा चमकता,  मानो असीमित नभ की सीमा मापने निकला हो,  तो… आगे पढ़ें
मैंने ख़ुद को जब भी दुविधाओं में पाया है,  न जाने क्यों तुम्हारा ही चेहरा मेरे सामने उभर आया है गहन अँधेरों ने जब भी  अपना विशाल रूप दिखाया है,  तुम्हारे आग़ोश में बीते  उन पुराने सवेरों से ही तो  मैंने ढाढ़स बँधाया है  धुँधले कुहासों ने जब  रास्ते के हर मोड़ को छिपाया है  तब तुम्हारे आदर्शों ने ही तो  मुझे आगे बढ़ाया है    और मन के सन्नाटों ने जब  हर साज़ को दबाया है जब तुम्हारी ही आवाज़ को मैंने  गूँजता हुआ पाया है ज़िन्दगी की उधेड़बुन ने जब जब  मेरे वुजूद पर प्रश्नचिन्ह उठाया है तब तुम्हारे ही वुजूद में मैंने  अपने अस्तित्व को समाया है सात समुंदर की दूरी से भी यक़ीन रखो तुमने मेरी राह का हर पत्थर हटाया है  आगे पढ़ें
मेरे मन में बोझिल मंज़र तेरे मन में गहरे साये  फिर भी सुबह के होने पर  हम दोनों ही तो मुस्काए   कुछ शब्दों ने व्यक्त किया,  कुछ काव्य ने दोहराया,  बाक़ी का घनघोर अँधेरा,  अभिव्यक्ति से घबराया   तुम टूटे काँचों के शीशों में अपना साया ढूँढ़ रहे हो नासूरों से बहता ख़ून  मरहम नहीं वह पाता है   बीते लम्हों के अफ़सानों में जा- एक बार फिर जम जाता है   मेरे मन की आशंकाएँ गहरे बादल सी घिर आयी हैं  बोझिल बादल भटक रहा है बरसात नहीं कर पाता है अपने मन के सूनेपन में एक बार फिर खो जाता है   फिर भी शाम के ढलने पर  हम दोनों ही तो घर आए बुझते दिए में लौ लगा एक बार फिर मुस्काए . . . आगे पढ़ें
अग्नि के सात फेरे  साथ-साथ जीने मरने की क़समें  और सात जन्मों का साथ  माता पिता का आशीर्वाद  दोस्तों और सगे सम्बंधियों का प्यार    समय का चक्र चलता गया  रस्में पूरी होती गयीं  एक प्रश्न उठा था मेरे मन में  जो पूछ न सका उस पल में  ग़र मिलते वो पंडित तो पूछता ज़रूर  कि क्यों कराते हैं सात जन्मों का साथ  फिर ख़्याल आया  दिमाग़ ने गणित लगाया  कि निश्चित है अगले छह जन्मों का मिलना  क्योंकि बंधन तो सात जन्मों का है    अब जब अगले जन्म में आएँगे  रस्में भी करवाएँगे  जीने मरने की क़समें भी खाएँगे  लेकिन पंडित जी से अग्नि के फेरे  सात जन्मों वाले नहीं  जन्मों जन्मों के साथ वाले ही पढ़वाएँगे  आगे पढ़ें
प्रार्थना किया करता था  रोज़ मैं अपने भगवान से,  मुझको ऐ मालिक मिलवा दे  मेरी प्यारी माँ से।    वह माँ जिसकी पलकों का तारा हूँ मैं,  वह माँ जिसके जीने का सहारा हूँ मैं,  कभी जिसकी ऊँगली पकड़ के चला था मैं,  उसकी गोद में सोकर,  उसकी लोरियाँ सुनकर,  उसके मातृत्व प्रेम में,  पला बढ़ा था मैं।  वह मूरत है ममता और दुलार की,  वह सूरत है एक निश्छल प्यार की,  वह मेरे जीवन का आधार है उससे ही मेरा जीवन साकार है    कर ऐसा कोई चमत्कार  ओ दुनिया के पालनहार  माँ की सेवा कर  मैं भी करूँ अपना जीवन साकार     प्रार्थना करते करते,  निकल गए कई वर्ष,  लगता था जैसे अब  ज़िन्दगी में नहीं है कोई हर्ष,  अब तो सब्र भी टूटने को था,  आँसुओं का समंदर जैसे फूटने को था।    क्या करूँ क्या न करूँ,  असमंजस की स्थिति में  मेरे विश्वास को… आगे पढ़ें
कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे    कभी तो छटेंगे ये बादल ग़मों के कभी तो ये मौसम सुहाने बनेंगे कभी तो लबों पे नये गीत होंगे कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे,    भले हम चले हैं अभी तक अकेले रहे हम सदा चाहे गिरते सँभलते ये आगे न होगा लगे मुझको ऐसा नये फिर हमारे फ़साने बनेंगे,    ये दुनिया किसे जीने देती यहाँ पे जहाँ देखो शिकवे गिले हैं ज़ुबाँ पे मिलन के जो क़िस्से रहे हैं अधूरे दोबारा वो मिलकर तराने बनेंगे,    ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें मुहब्बत की आती रहेंगी सदायें सीमायें जो बांधी वो टूटेंगी इक दिन बनेंगे तो आख़िर, हमारे बनेंगे कभी तो वो हमदम हमारे बनेंगे॥ आगे पढ़ें
1. तब बात कुछ और थी तब रास्ता लम्बा ज़रूर लगता था मगर,  रास्ते के तमाम मंज़र बड़े ही लुभावने, तसल्लीदार और मज़ेदार लगते थे,  ख़्वाहिशों के ख़ुशबूदार फूल रास्ते के दोनों तरफ़ बेहिसाब बिछे हुए थे,  आसमान भी बिल्कुल साफ़ और रंगीन नज़र आता था जिस पर उम्मीदों के अनगिनत सपने सदा टिमटिमाते रहते थे,  सो, बचपन के वो कहकहे वो चुलबुलापन, वो चटपटापन नये-नये स्वाद के साथ-साथ वक़्त के हर लम्हे को मस्ती के साथ निगल जाया करता था,  सचमुच,  कुछ पता ही नहीं चलता था वक़्त का,  क्योंकि,  तब बात कुछ और थी 2. फिर,  फिर बात कुछ बदली रास्ता तो वही था मगर,  कई जगहों से उठाया गया सामान कंधों पर लद जाने से चाल कुछ धीमी होने लगी,  सूरज की गर्मी से पिघलता लहू आँखों से होकर दिल में समाने से सम्बन्धों को तपने का अवसर मिलने लगा,  मुहब्बत की वो पुरसुकून घड़ियाँ… आगे पढ़ें
वह,  पुरातन ग्रन्थ सी,  सिर्फ़ बैठक की शेल्फ पर सजती हैं।  वह,  सस्ते नॉवेल सी,  सिर्फ़ फुटपाथ पर बिकती हैं।  वह,  मनोरंजक पुस्तक सी उधार लेकर पढ़ी जाती हैं।  वह,  ज्ञानवर्धक किताब सी,  सिर्फ़ ज़रूरत होने पर पलटी जाती हैं।  गन्दी, थूक, लगी उँगलियों से,  मोड़ी, पलटी, और उमेठी जाती हैं।    पढ़ो हमें सफ़ाई से,  एक-एक पन्ना एहतियात से पलटते हुए,  हम सिर्फ़ समय काटने का सामान नहीं,  हम भी इन्सान है, उपहार में मिली किताब नहीं। आगे पढ़ें
हथेली पे मेहँदी नहीं,  महल सजाया था . . .  तेरे संग मैंने,  नया जग बसाया था . . .  आँखों में काजल नहीं,  अरमान लगाया था,  तेरे संग जीवन का,  रिश्ता निभाया था . . . माँग में सिंदूर नहीं,  ख़्वाब बसाया था,  तेरे संग उम्र भर,  साथ का वादा निभाया था,  मंत्रोचारण की अग्नि में,  अपना अतीत जलाया था . . .  भूल सब अपनों को कुछ नयों को गले लगाया था . . . मेरे क़दमों की आहट ने,  तेरा आँगन महकाया था,  परिक्रमा तो थी ली दोनों ने साथ,  फिर क्यों जलती हूँ मैं एकाकी . . . उदास . . .  तुम कहाँ खो गए . . . प्राण . . . मेरे प्राण।  आगे पढ़ें
कुछ यादें कुछ बातें रत्ती भर मोहब्बत माशा भर प्यार छूट गया उस गली के मोड़ पे मिले गर उठा कर रख लेना।  बड़ा बेपरवाह सी हूँ,  कुछ न कुछ छूट जाता है . . . हर बार . . .    वो गोलगप्पे की खटाई लस्सी की मलाई चौक के बीच कहीं शायद छलक गयी वो भाई का स्नेह माँ का आँसू चौखट पर कहीं छोड़ आयी हूँ मिले तो रख लेना यूँ ही सिरफिरी सी हूँ न,  कुछ न कुछ छूट जाता हर बार . . . हर बार . . .।  आगे पढ़ें
इस बार का तेरा आना,  यह भी हुआ क्या आना?  न रही ठीक से,  न ठीक से पिया, न ही खाया,  न कुछ सुना,  न ही कुछ सुनाया,  तू कब आई और कब चली भी गयी,  पता भी न चला।  इस बार का तेरा आना,  यह भी क्या हुआ आना?  क्या कहूँ, कैसे कहूँ,  मेरी अपनी मजबूरी का रोना,  माँ अब कहती कम,  दोहराती है ज़्यादा।  मुस्कराती अब टुकड़ों में,  रोती है कुछ ज़्यादा,  माँ अब बोलती कम,  भूलती है ज़्यादा।  माँ अब ज़्यादा ही भूलने लगी है,  उनकी यह व्यथा,  आँखों से टपकने लगी है।  पल्लू का सीलापन,  कोरों का गीलापन,  होठों की थरथराहट पहले से ज़्यादा।  अब फ़ोन करने से पहले,  ख़ुद को कड़ा सा लेती हूँ कर,  उनकी हर बात पर कुछ हँसती हूँ ज़्यादा,  नाराज़ सी हो जाती है अक़्सर,  मेरी शीतल जलधारा सी माँ,  अब चुनमन बच्ची सी हो गयी है ज़्यादा।   … आगे पढ़ें
गर्मी की दोपहर में जल कर जो साया दे वो दरख़्त हो   बच्चों की किताबों में जो अपना बचपन ढूँढ़े वो “उस्ताद” हो तुम पिता हो तुम . . . पिता हो . . .    दुनिया से लड़ने का . . . रगों में ख़ून बन कर बहने का “जज़्बा” तुम हो . . . अपने खिलौनों को हर वक़्त तराशने के लिए . . . हाथों में गीली मिट्टी लिए रहता है वो “कुम्हार” हो तुम पिता हो तुम . . . पिता हो . . .   अपने अधूरे ख़्वाबों को पूरा जीने के लिए . . . ख़ुद की नींद को . . .बाँध कर जो फेंक दे वो “हौसला” . . . तुम हो पिता हो तुम . . . पिता हो . . .   ख़ुद से भी ज़्यादा ऊँचाई से देख पायें . . . इस दुनिया को . .… आगे पढ़ें
माँ हिन्दी  तुम मात्र मेरी आवाज़ की  अभिव्यक्ति नहीं हो  तुम वो हो  जिसे सुनने के बाद  दुनिया मुझे पहचान जाती है  मैं कौन हूँ  कहाँ से हूँ  ये जान जाती है    जब मैंने काग़ज़ पर  अपनी भावनाओं के रूप में  लिखा तुम्हें  तुमने बढ़ कर मुझे  कवि की संज्ञा दे दी    तुम्हारे ही साँचे में ढल कर  दिनकर और निराला की रचना हुई  साहित्य को साहित्य तुमने ही तो बनाया है  तुम ही वो  जो वीरों की दहाड़ बन कर  सरहदों पर  दुश्मनों को दहलाती है   तुम वो ही हो  जो लोरी बन कर  किसी बालक को  मीठी नींद सुलाती है    जब मन के भीतर  कोई रचना बन कर  टहलती हो तुम  मेरे चेहरे का नूर  कुछ और ही होता है    हिमालय के गर्भ से जन्मी हुई नदी को 'गंगा'  तुमने ही बनाया है   ब्रह्माण्ड स्वर ॐ  जब तुम्हारी सूरत बन… आगे पढ़ें
अध्यात्म की ओर बढ़ो राजन,  मोह का त्याग करो  इन वचनों के साथ मुनिराज विश्वामित्र  का  अयोध्या से प्रस्थान हुआ  राजा दशरथ को आज  समय बीतने का ज्ञान हुआ  दशरथ आज दर्पण के सामने हैं – श्वेत केश दुर्बल काया और झुके कंधों को देखते हैं  अयोध्या भूमि पर अब, नव पुष्प खिलने चाहिएँ राज मुकुट और सिंहासन को,  अब राम मिलने चाहिए!    राज गुरु वसिष्ठ से मिले राजन,  अपनी अभिलाषा व्यक्त की  राम को राजा रूप में देखूँ,   चरणों में इच्छा रख दी।   सुनकर कर हर्षित हो गुरु ने,  राजा को साधुवाद किया  हे राजन! मंत्री परिषद् का आह्वान करो  इस विचार को राज्य सभा में, तुरन्त रख दो  विलम्ब न हो इस काज में, ऐसा आदेश किया।   राज्य सभा बुलाई गई, राम राज तिलक का प्रस्ताव हुआ  सारी सभा के जयघोष से  इस शुभ कारज का आरम्भ हुआ  घोषणा हुई अयोध्या में, … आगे पढ़ें
नभ धरा दामिनी नर नारी रास रंग राग  भाव विभोर हो सब कृष्ण संग खेलें फाग      सूर्य किरण सलोने से छन कर      भूमि पर करे सुन्दर अल्पना      बृज धरा केशव रंग में रँगकर      देखो स्वर्ण भई आज  ग्वाल बाल गोविन्द संग नृत्यकला सीखें  पाताल हर्ष विभोर हो जब  हरिचरण दें थाप      गैयाँ रम्भाकर गल घंटियाँ छनकाएँ      ताल मिलाकर ध्वनि से मिलाएँ थाप से थाप  मनमोहक मधुर छवि श्याम को सुन्दर बनाएँ  हर गोपी ख़ुद मदन भई सुधबुध सारी बिसराई  मुरली ध्वनि ने देखो वो मोहपाश फेंका आज     मनोहर की छवि से चकित केवल नर-नारी ही नहीं      जमुना-तट गोवर्धन पर्वत पुष्प तरू लता मोरपंख      कोई भी स्वयं के बस में नहीं आज  राधिका माधव संग बैठ झूला झूलें  प्रेम पेंग बढ़ा कर गगन छू लें आज     नन्दगोपाल यादवेन्द्र मुरली… आगे पढ़ें
साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर तो श्याम बन जाते हैं   बाँसुरी अधरों का स्पर्श पाने को व्याकुल है  वो ख़ुद से ही कहती है  जाने अब साँवरी घटाओं में क्या ढूँढ़ रहे हैं  राधिका के आने तक मुझे क्यों नहीं सुन लेते  काफ़ी गीत याद किये हैं मैंने उनके लिए  एक मैं ही हूँ जो सदा साथ रहती हूँ   तब ही कुछ कहती हूँ  जब वो सुनना चाहते हैं  पवन तुम ही किंचित बहो ना   तुम्हारे स्पर्श से ही वो मुझे हाथों में ले लेंगे  ये क्या साँवरी घटाओं से सूर्य भी दर्शन देने लगे  वो भी दर्शन के प्यासे हैं  ओह कितना सुन्दर दृश्य है    स्वर्ण जैसी किरणों ने श्याम को छुआ  और देखते ही देखते   श्याम साँवरे “सलोने” हो गए  ये मनमोहक दृश्य सिर्फ़ मेरे लिए  सिर्फ़ मेरे लिए . . .   साँवरी घटाएँ पहन कर… आगे पढ़ें
जाने क्यों और कैसे रोज़ ही अपने को कटघरे में खड़ा पाती,  वही वकील,  वही जज,  और वही  बेतुके सवाल होते,  मेरे पास न कोई सबूत और न गवाह होते,  कुछ देर छटपटा कर चुप हो जाती,  मेरी चुप्पी  मुझे गुनहगार ठहराती,  वकील और जज दोनों हाथ मिलाते,  मैं थककर लौट आती अपने घर को समेटने में फिर से लग जाती . . .!    सिलसिला चलता रहा . . .  फिर एक दिन  न जाने क्या हुआ बहुत थक गई थी शायद . . . ज़िन्दगी से नहीं,  उसकी कचहरी से,  सोचा— यदि मैं कटघरे में खड़े होने से इनकार कर दूँ तो . . .!  बस तुरन्त अपने को साबित करना बंद कर दिया,  हर काम डंके की चोट पर आरंभ कर दिया,  मैं सही करती रही और वही करती रही  जो मन भाया,  और वक़्त . . .  वह मेरी गवाही देता चला गया .… आगे पढ़ें
कई दिनों बाद अपने आप को आज आईने में देखा,  कुछ अधिक देर तक कुछ अधिक ग़ौर से!    रूबरू हुई— एक सच्ची सी सूरत और उसपर मुस्कुराती  कुछ हल्की सी सलवट,  बालों में झाँकती कुछ चाँदी की लड़ियाँ,  आँखों में संवेदना  शालीनता की नर्मी,  सारे मुखमंडल पर एक मनोरम सी शान्ति!    फिर, अनायास ही ख़ुद पर बहुत प्यार आया,  आज, मुझे मैं,  अपनी माँ सी लगी!!  आगे पढ़ें
नहीं है, तो न सही फ़ुर्सत किसी को,  चलो आज ख़ुद से,  मुलाक़ात कर लें . . .   वो मासूम बचपन,  लड़कपन की शोख़ी,  चलो आज ताज़ा,  वो दिन रात कर लें . . .   वो बिन डोर उड़ती,  पतंगों सी ख़्वाहिशें,  बेझिझक, ज़िन्दगी से,  होती फ़रमाइशें . . .   चलो ढूँढ़े उनको कभी थे जो अपने,  पिरो लाएँ, मोती-से,  कुछ बिखरे सपने . . .   यूँ तो, बुझ चुकी है,  आग हसरतों की,  कुछ चिंगारियाँ, पर  हैं अब भी दहकती . . .   दबे, ढके अंगारों की क़िस्मत सजा दें,  नाउम्मीद चाहतों को  फिर से पनाह दे!    न गिला, न शिकवा,  सब कुछ भुला दें,  दिल के, ख़ुश्क  आँगन में,  बेशर्त, बेशुमार,  नेह बरसा दें . . .!!    चलो  आज, ख़ुद से,  मुलाक़ात कर लें . . .!  आगे पढ़ें
पेड़ ये ऐसे हरियाये फिर जैसे कभी झड़े न थे,  खा पछाड़ ओलों से  धरती पर पड़े न थे।  मुस्काते पत्तों के होंठ मोड़,  खिलखिलाते पतझड़ की याद छोड़।    पेड़ ये,  बस पेड़ नहीं,  चिड़ियों के घर हैं बच्चों का बचपन,  चहक-चहक चढ़ जिन पर विजयी से हर्षाए,  यौवन की प्रेम पाती तने-तने लिख आए।    वृक्षों की ठंडी साँसें  तपते तनों पर पंखा झलतीं हैं,  ग़रीबों का महल हैं मन्नत के धागे पहन खड़े विपदाओं के प्रहरी हैं।  तने तले बैठे मुस्काते हैं सालिगराम,  स्वीकारते सबका प्रणाम वर्ग और वर्ण भेद बिना।    एक पूरी दुनिया है इस पेड़ में  जड़ से फुनगी तक . . सब कुछ . . . मंत्र है, तंत्र है,  सबसे प्यार जताने को पॆड़,  पूर्णत: स्वतंत्र है।  आगे पढ़ें
मैं,  उलटती-पलटती रही इस अनुभूति को बहुत देर,  दिल और दिमाग़ के बीच की रेखा पर तौलती रही इसे,  शब्दों को पकाती रही सम्वेदना के भगौने में,  तब सोचा कि स्वीकार किये बिना अब कोई चारा नहीं है,  कि माँ,  मैं तुम सी न हो पाई।  मैं तुम सी न हो पाई!!    तुम,  अपनी नींद,  टुकड़ा-टुकड़ा हमारी किताबों में रख,  भोर की किरणों को परीक्षा पत्र सा बाँचती आई मैं, न कर पाई!    तुम,  हमारे स्वाद,  थालियों में सजा,  अपनी पसंद सिकोड़ती आई मैं, न कर पाई!    तुम्हारी,  प्रार्थनाओं की फैली चूनर में केवल हमारे सुखों की आस थी तुम कहीं नहीं थीं उसमें!  मैं,  न कर पाई!    तुमने बोलना सिखाया हमें और ख़ुद चुप होती चली गई!  तुमने कभी कहा नहीं परेशानियों में भी कि “अब तुम से होता नहीं”  और तुम्हारी हिम्मत मुक्त करती रही हमें अपराध बोध से!  तुमने कभी यह… आगे पढ़ें
पेड़ पर फुदकती है चिड़िया पत्ते हिलते, मुस्कुराते चिड़िया पत्तों में भरती है चमक,  डाली कुछ लचक कर समा लेती है चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,  और हरहरा उठता है पेड़ पेड़ खड़े हैं सदियों से,  चिड़िया है क्षणिक पर चिड़िया का होना ज़रूरी है॥    चिड़िया के गान पर गा उठता है पूरा जंगल,  चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को,  तान देती है पेड़ों के सिरों पर  धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में  जो वंचित है सूरज की ममता से,  चोंच से खोदती है मिट्टी में,  उजाले के अक्षर,  बोती है उनमें जीवन के कुहुकते बीज परों से सहला देती है दबी, कुचली घास को,  जिनको नहीं अपने महत्त्व का भान चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान!  जंगल है सदियों से चिड़िया है क्षणिक  पर चिड़िया का होना ज़रूरी है॥   ठीक वैसे ही,  जैसे,  कीचड़ सनी, धान रोपती औरतों… आगे पढ़ें
दिन की शतरंजी बिसात पर  हर बार रखा मैंने अपने मूड को उठा कर  तुम्हारे मूड की चाल के अनुसार और पूरी कोशश करी  अपने मूड को बचाने की।     पर तुम्हारा मूड बदलते ही पिट जाते हैं  मेरी युक्तियों के हाथी और वज़ीर!  बचती फिरती है मेरे उमंगों की रानी,  धैर्य के प्यादों के पीछे छिपता है,  मेरे अस्तित्व का राजा!     तुम्हारा ध्यान हटाने की कितनी भी कोशिश करूँ,  पर हर बार तुम्हारा मूड जीतता है और मात खा जाता है मेरा मूड . . . आगे पढ़ें
गुरुदेव तुम्हारे चरणों में करती हूँ अर्पित,  मन के भाव सारे आज तुझे है समर्पित।    तृष्णा, लालसा और मनके सारे क्लेश,  अहंकार, वासना और क्रोध ईर्ष्या द्वेष।    पुष्पों की नहीं इन भावों की ले आयी हूँ माला,  कैसे करूँ आराधना जब मन में इतनी ज्वाला।    दुनिया की यह चमक, तुम कहते थे है माया,  कर्मों का है अनूठा खेल, श्वासों से बँधी काया।    मन में उठती नित तरंगें, लेती नित नए संकल्प,  कैसे रोकूँ इस प्रवाह को, क्या है मेरा विकल्प।    तुझ पर ही हूँ गुरुदेव अब पूर्णतः आश्रित,  अपनी दयादृष्टि से करो मेरा मन परिष्कृत।    फिर भर दो उसमें तुम थोड़ी करुणा थोड़ी भक्ति,  मोह माया को करके भंग, दे दो थोड़ी धैर्य शक्ति।    हृदय के विकार मिटा कर तुम दे दो ऐसे दृष्टि,  समत्व भाव से देख़ सकूँ ये प्रभु की अनुपम सृष्टि।  आगे पढ़ें
पूजा के थाल का चंदन हो तुम फूलों की ख़ुश्बू, रंगत हो तुम   जैसे भजनों की भावना हो तुम जैसे ईश की उपासना हो तुम!    हो सर्दी की धूप का उजियारा है रोशन तुमसे ये जग सारा   ईश्वर का मधुर वरदान हो तुम माता-पिता का सम्मान हो तुम   हो होठों पे ठहरी मुस्कुराहट हो जीवन में ख़ुशियों की आहट   हर छल दंभ से नादान हो तुम मन का स्वप्न, अरमान हो तुम   तुम्हारी बोलियों में बसता है जग तुम्हारे क्रंदन में रोता है सब   कंठ में खनकता गान हो तुम परिवार की अब पहचान हो तुम   दुनिया में मेरी छोटी दुनिया हो तुम मेरी बिटिया, मेरी मुनिया हो तुम आगे पढ़ें
जाने की उन्हें ज़िद थी, वो मुलाक़ात अधूरी रह गई होठों तक आयी तो मगर वो बात अधूरी रह गई।    साथ कुछ पल मिले, मगर वक़्त का तकाज़ा रहा गए ज़माने में किया, इक रात का बिसरा वादा रहा चाँदनी कुछ मद्धम पड़ी तो मगर रात अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    आगे बढ़ते जाने के उसूल कुछ हैं दुनियादारी के घिर रहना बीते यादों में हैं विपरीत समझदारी के संग मरने की थी क़सम ली साथ, अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    बहार कभी जहाँ खिले, दो फूल को वो तरसे चमन नैनों में जिनके थे बसे, उन्हें देखने ये तरसे नयन पलकें पुर नम हो रहीं पर बरसात अधूरी रह गई।  होठों तक आयी तो मगर कुछ बात अधूरी रह गई।    अक़्सर चाहत के फ़साने क़िस्मत को न… आगे पढ़ें
जीवन के दीर्घ विस्तार समान फैले इस अनंत आसमान की इस मधुमय सावन-संध्या में शायद मुझ सी बिन साथी हो चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    पावस का मेघमय सान्ध्य गगन मानों नीरव उर का सूना प्रांगण दूर क्षितिज निहाराते थके नयन मधु-स्मृतियों में तुम खो जाती हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    जाने क्यूँ हैं निश्चल अम्बर अवनी तमस चादर ओढ़े विकल है रजनी अंतर क्यूँ व्यथित विरहाकुल सजनी विरह व्यथा में जलती कोई बाती हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    मन के तारों को छू रहती ख़ामोशियाँ अँधेरी रातों में संग बस तनहाइयाँ गमगीन चेहरे को ढक लेती परछाइयाँ लगे चाँदनी रात काश अब न बाक़ी हो?  चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?    प्रतीक्षा शेष अभी, क्या बाक़ी कोई तलाश है वीराने में क़दमों का मद्धम यह एहसास है?  वादों के पतझड़ में वसंत की क्या आस है?  सपनों की… आगे पढ़ें
निकल कर पहाड़ों की गोद से मैं लहराती, इठलाती,  अल्हड़ बाला सी मस्ती में उछलती पत्थरों पर कूदती वृक्षों की टहनियों पर झूलती शिखरों पर पले सपनों को  हृदय की गुफा में छुपा ज़मीन से जुड़ी रहती गाँव-गाँव, शहर-शहर विचरण करती दिशा भ्रमित होकर भी अपना पथ स्वयं बनाती अपने अस्तित्व से प्यासों की प्यास बुझाती गर्मी की तपिश दूर कर ठंडक भी पहुँचाती ऊपर से नीचे गिरने का साहस ले, झरना बन गिरती संबंधों की डोरी पकड़े वनस्पतियों संग बहती वन्य जीवों का जीवन बनती अग्नि से मेरा नहीं दूर-दूर का नाता जंगलों में लगती आग तो मेरा जल ही उसे बुझाता  निरंतरता का सबक़ ही सीखा है मैंने,  वही मुझमें विश्वास जगाता कभी शिवलिंग पर चढ़ाई जाती और मैं धन्य हो जाती आँगन बीच खड़े,  तुलसी के बिरवे में जल बन, औषधि उपजाती मेरी राह में जब-जब भी बाधाएँ आतीं महाकाली का रूप धर मैं उदण्ड… आगे पढ़ें
एक दिन लेखनी कवयित्री से बोली— क्यों रख छोड़ा है मुझे एक कोने में उठा लो मुझे कुछ कसरत करा दो तभी कवयित्री ने कहा— थक गयी हूँ बहुत अब जीवन से उठने का भी साहस नहीं है टूट चुकी हूँ दिन भर की जद्दोजेहद से शरीर भी दर्द का मारा है कैसे उठूँ! ना कोई सहारा है अब तो ये हाल है कि हर समय सहारे को ही पुकारा है   लेखनी— एक बार उठ, हिम्मत ना हार मुझे उठाकर काग़ज़ पर उतार भूल जाएगी तू सारे दर्द हो जायेगा सभी दर्दों का उपचार झाड़, अपनी दबी यादों की परत मस्तिष्क में जो दबे बैठें हैं शब्द उन शब्दों का मरहम बना घावों पर लेपकर और सहला खोलकर मन की गगरी एक काग़ज़ पर उँडेल हल्का हो जायेगा मन तेरा पायेगी नवचेतना और सवेरा अकेली पड़ी रहती है तू इसलिए तुझे विपदाओं ने है घेरा   कवियित्री… आगे पढ़ें
हमारे बड़े कहीं जाते नहीं वो यही रहते हैं . . .  हमारे मध्य . . .  वो झलकते हैं कभी किसी के चेहरे से,  और कभी किसी की बातों के लहजे से  कभी किसी बच्चे के तेवर में,  कभी किसी के संस्कार में,  कभी किसी की मुस्कान में,  कभी किसी के अभिमान में  कभी किसी के स्नेही स्वाभाव में  कभी किसी के निश्छल अनुराग में  वो यही हैं . . .    वो दीवारों में टँगी तस्वीरों में नहीं हैं  वो हमारे मानस में हैं  हमारी ऊर्जा, हमारी विश्वास में  हमारे संकल्प, हमारे साहस में हैं  हमारी प्रेरणा, हमारे प्रयास में हैं  वो यही है . . .    हमारे आचारों में, हमारे विचारों में।  हमारी भावनाओं में . . .  हमारे मूल्यों में . . .  हमारे रीत रिवाज़ों में . . .  हमारे रसोई के स्वाद में  वो यही है,  स्थूल देह में नहीं,  मगर… आगे पढ़ें
स्मृति पटल पर अंकित है,  आज भी,  मेरा प्यारा ननिहाल,  गर्मी की छुटियों का बस होता था  यही एकमात्र ख़्याल,  पेटियों में कपड़े, भर मन में उत्साह,  न कोई फ़िक्र, न कोई परवाह,  राजधानी या कोलफील्ड में लदना,  और नानी के घर धमकना    नानी— श्वेत साड़ी में बड़ी साधारण सी लगती थी,  मगर बरगद के वृक्ष सा विशाल उनका व्यकतित्व  पूरे घर पर छाया रहता था,  हवन के मंत्रों से करती थी सवेरा  घर के हर सदस्य पर रखती थी पहरा,  नानी,  मानो एक धागा थी  और हम सब मोती,  जिन्हें पिरो कर वह एक सुन्दर कण्ठहार बना रही थी . . .    मेरी मामियाँ- हाल में बैठी,  कभी क़ुछ चुगती, कभी कुछ बिनती, कभी कुछ चुनती  सहमी सहमी सी रहती थीं,  कुछ संकोच कुछ लज्जा की,  घूँघट ओढ़े रहती थी,  छोटी उम्र में ही बड़े दायित्व उठाना सीख रही थी नानी उनमे, अपनी कार्य कुशलता… आगे पढ़ें
निर्भय श्वास ले रहा, आज लाल चौक पर तिरंगा,  सशक्त करों में झूम रहा, जैसे शिव जटा में गंगा।    केसर उपजती जो घाटी, है केसरिया उसका मान,  न भूलों हमें मिली धरोहर, गुरु द्रोणाचार्य के बाण।    धैर्य सिखाया हमको बुध ने, महादेव ने तांडव,  मातृ भूमि के लिए हैं, हम मधुसूदन के पांडव।    सहिष्णुता को हमारी, समझ लिया अक्षमता,  विनाश काल में सदा विवेक ही पहले मरता।    कीट कीटाणु, प्राणी, जंतु में, हमने देखी अभिन्नता,  युग-युग से पाठ पढ़ाया, प्रेम सद्भावना और एकता।    बाधा विघ्न न डालो तुम, हमारा मार्ग प्रशस्त है,  एक हाथ में गीता है, दूजे में चामुंडी के शस्त्र है।  आगे पढ़ें
ओ मेरी बिरहन रूह कैसी तेरी भटकन कैसी तेरी जिज्ञासा,  ले गई मुझे किन रास्तों पर तेरी अद्भुत आकांक्षा!    रेगिस्तानी जगह एक जंगल एक सुनसान  यहाँ पर था वो साधना-स्थान काफ़ी देर से सोचों में उभरता रहा जिसका नाम . . .    सज्दा इसे करने को  मैंने राहें कंधे धर लीं सैंकड़ों कोस के सफ़र की अंगुलियाँ मैंने पकड़ लीं . . .    वहाँ पहुँची तो  ख़ूबसूरत! सवारोओं1 ने बाँहें मेरे लिये खोल दीं कँटीली झाड़ियों ने ख़ैरियत-सुख पूछ ली  उड़-उड़ कर मिट्टी मुझे आलिंगन में भरने लगी  अपनी सी लगती थी जब आँखों में पड़ने लगी . . .    कोसी-कोसी धूप की ऊष्णता को पहली बार माना मैंने  क़ुदरत के इस रहस्य को पहली बार जाना मैंने . . .  कँटीले-काँटों की मुहबबत को पहली बार पहचाना मैंने . . .  चाहता था दिल  चलती जाऊँ . . . बस यूँ ही चलती… आगे पढ़ें
ओ अनादि सत्य  ए क़ुदरत के रहस्य  तू चाहे चिलकती धूप बन मिलना या गुनगुनी दोपहर की हरारत बन,  घोर अँधेरी रात बन मिलना  या श्वेत दूधिया चाँदनी भरा आँगन बन   मैं तुम्हें पहचान लूँगी,  खिड़की के शीशे पर पड़तीं  रिमझिम बूँदों की टप-टप में  दावानल में जलते गिरते  पेड़ों की कड़-कड़ में    मलय पर्वत से आती  सुहानी पवन की  सुगंधियों में मिलना  या हिम-नदियों की  धारों में मिलना    धरती की कोख में पड़े  किसी बीज में मिलना  या किसी बच्चे के गले में लटकते  ताबीज़ में मिलना  मैं तुम्हें पहचान लूँगी . . .    लहलहाती फ़सलों की मस्ती में या ग़रीबों की बस्ती में मिलना तू मिलना ज़रूर  मैं तुझे पहचान लूँगी   पतझड़ के मौसम में किसी चरवाहे की नज़र में उठते  उबाल में मिलना या धरती पर गिरे सूखे पत्तों के उछाल में मिलना!    मैं तुझे पहचान लूँगी किसी भिक्षु… आगे पढ़ें
कितना शुभ रहा होगा वो पल  जिस पल लिया गया था निर्णय कैनेडा तुम्हें अपनाने का यह किन्हीं पुण्य कर्मों का फल था या पुरखों का आशीर्वाद जो तुमसे मिलते ही होने लगी थी  प्रेम और श्रद्धा की अनुभूति पुलक उठा था मेरा रोम-रोम  बर्फ़ से अटा ठिठुरता तुम्हारा तन  पर भीतर ग़ज़ब की उष्णता  जो आए लगा लेते हो गले  जीत लेते हो मन अपने रवैयों से कितने प्यार से समो लेते हो  सबकोअपनी सशक्त बाँहों में  तुम्हारे विशाल हृदय पर कई बार भ्रम भी हुआ  पर फिर कभी लगता  कोई तो होगा जिसने  थाम लिया बढ़कर हाथ नई धरा पर न मन डोला  न लड़खड़ाए कभी पाँव कहीं ऐसा तो नहीं सोए पड़े हों  यहीं किसी क़ब्र में हमारे पूर्वज  जिन्हें चिरकाल से हो हमारा इंतज़ार वरना कब मिलता है सौतेली माँ से किसी को इतना अपनापन और सुकून माज़ी को याद करती हूँ  तो खो… आगे पढ़ें
यहाँ विदेश में  मेपल दरख़्त पत्तों की खड़खड़ाहट लदे फूल खिलखिलाती क़ुदरत घरों के अन्दर खिले फूल हरियाली से भरी कायनात थी।    मैं देखती रही आसमाँ भरा भरा बादलों का ग़ुबार  टप् टप् पिघलती बूँदें  लोगों का ग़ायब हुजूम    मँडरा रहा सूनी सड़कों में वायरस का साया था  क़रीने से पार्क की हुई कारें पहले जैसा जो था  वैसा ही हरा भरा था   कहीं कहीं इक्का-दुक्का लोग  बदहवास से सायों से डरते बर्फ़ से ढकी वादियों में साँ-साँ पत्ते लड़खड़ाते l गिरते बिखरते ख़ौफ़ से जूझते  धीमे से दर बन्द कर  अन्दर दुबक जाते  यह विदेशी लोग।    कल मेरे देश में बन्द था शाम होते होते  शंख नाद, मन्दिर की घंटियों का संगीत  थाली चम्मच कटोरी की आवाज़ से करोना  से महा जंग था    आओ जो कल था आज भी वही सुकून लाएँ घर परिवार संग बैठे और बतियाएँ . . . ‘कहा… आगे पढ़ें
हवा में उड़ते चमकते बिछलते टूटते  आकाशीय तारे कब बिखरे  मेरी धरती पर,  बन कीड़े मकोड़े  लाठियाँ खाते नाम शाहीन बाग़ का देते।    कचरा जीवन जीते दागी गोलियों में जनरल डायर का नाम खोजते भगत सिंह का नाम तोलते  शैक्सपीयर के नाटक में अदाकारी जोड़ते  और . . . ‘लाईक ए स्वाइन आन द सोइल’ जीवन जीने का नाम खोजते।    मेरे लोग हीरे जैसा जीवन गँवाते ज़ुबाँ से कर देते  उड़न-छू ग़ालिब  बसीर फिरते दफ़नाते  भुखमरी लाचार ज़िन्दगी ढोते कर्म कहीं  भ्रम कहीं पालते जड़ें पाताल में खोजते घर वापसी पर बेघर हो लुटे-पिटे से अपने पिंजर  आप ढोते  अथक चलते जाते आगे पढ़ें
एक लिफ़ाफ़े में घर की ख़बर आयी हैं सौंधी मिट्टी सी यादें बन घटा छाई हैं सिलवटों में पन्नों के आँखें टटोलें उन्हें पुराने चेहरों पे झुर्रियाँ जो नयी आयी हैं   ढूँढ़ो माँ की छुअन का सुकून ढूँढ़ लो मौन बाबा की आँखों की चुभन ढूँढ़ लो ढूँढ़ लाओ वो चैन जिसको कहते हैं घर वो जो ख़ुशियों में छुट्टे हैं कम, ढूँढ़ लो   दोस्तों संग थी नापी वो गलियाँ सड़क ढूँढ़ लो मोड़ छूटे, छूटे क़िस्से, वो छूटी नज़र ढूँढ़ लो  पाओ लीटर पे स्कूटर भगती जो मीलों तलक सरफिरों के वो दिल की धड़क ढूँढ़ लो   जो कहानी सुनी चाँद तारों तले ढूँढ़ लो जो टपके नानी की चंपी में वो सुकून ढूँढ़ लो दादी बुनती थी लेकर मेरे बचपन की ऊन प्यार वो, वो भरोसा, वो जतन ढूँढ़ लो   एक लिफ़ाफ़े में घर की ख़बर आयी हैं सौंधी मिट्टी सी यादें… आगे पढ़ें
[पेरिस की कार्टून पत्रिका चार्ली हेब्दो को जहाँ 2015 में आतंकियों ने 12 लोगों को मार डाला था]    अख़बार के दफ़्तर  न संसद होते हैं  न सुप्रीम कोर्ट  न वेटिकन।  वे आईना होते हैं  टूटे-फूटे, तड़के और चटके  फिर भी वे बताते रहते हैं  जनता के हिस्से का सच।    वहाँ बैठे लोग  सामना कर रहे होते हैं  बरसों से तनी मशीनगनों  हैंड बमों, टैंकरों का  काग़ज़ और पेन पकड़े  आड़ी-टेड़ी रेखाएँ खींचते हुए।    आतंकियों सुनो चार्ली हेब्दो की इमारत  कह रही है  अख़बार की जीभ काटोगे करोड़ों शब्द निकल आएँगे अपने शब्दकोशों से।  अख़बार की आँखें फोड़ोगे  अरबों लोगों की आँखें  देखने लगेंगी उनकी जगह।    चार्ली हेब्दो में बहा ख़ून  अभिव्यक्ति को सींचेगा पैनेपन से  देखना तुम  वह हर बार सिद्ध कर जाएगा  तलवार पर भारी पड़ती है  क़लम की धार।  आगे पढ़ें
मशीनी हाथ  पेड़ को ज़मीन से काट  कर देते हैं अलग  मशीनी हाथ तने को उठा  छाँट देते हैं डालियाँ मशीनी हाथ घड़ देते हैं  लकड़ी का आकार  मानक लंबाई, चौड़ाई में  मशीनी हाथ समेट देते हैं  जंगल रातोंरात  पोंछ देते हैं धरती का राग।  मशीनी हाथ एक दिन मशीनी मुँह तक जाने लगेंगे  आदमी को दबोच कर।  आगे पढ़ें
अध्ययन कक्ष में  अपने आसपास घना अँधेरा रच कर  टेबल लैंप की केंद्रित रौशनी में  खुली आँखों से एकाग्र होने की मेरी कोशिश  और फिर टेलिस्कोप से  आकाश की सीमाओं में झाँकना  बहुत अजनबी बना देता है मुझे ख़ुद से।  यूँ भी निहारिकाओं और  आकाशगंगाओं के बारे में पढ़ते हुए अपनी दीवार के उस पार के लोग  अजनबी लगने लगे हैं मुझे।    कसैली कॉफ़ी की सिप के साथ  मैं पुनः खो जाना चाहता हूँ  ब्रह्मांड और उसके उल्कापिंडों में  प्रकाशवर्षों की दूरियों को मापते हुए जिन्हें कभी मैंने महसूस नहीं किया अरबों तारों और उनके सौर मंडलों के बारे में सोचना बेमानी लगता है अब।    पेंसिल की नोक भोथरी हो गई है ग्रहों और तारों का  रेखीय पथ खींचते हुए।  अपने हाथों से  पहियों वाला पटिया धकेलते हुए  वो रोज़ रोटी की आस में आता है इधर बाहर से आ रही चरमराहट जानी पहचानी है जो… आगे पढ़ें
नहीं है आवश्यकता,  किसी ज्योतिषी की मुझे,  क्यों कि,  जो समझ रही हूँ,  “कि मैं हूँ”  वह मैं हूँ ही नहीं,  एक विभ्रम है।  क्यों कि,  जिस सबको अपना,  समझ रही हूँ,  कि“यह मेरा है,”  वस्तुत: वह मेरा है ही नहीं,  सौग़ात है प्रभु की।    वास्तव में जीवन,  एक अभिनय है,  जगत एक रंगमंच,  और मैं, एक अदना सा पात्र।    जिस देश में,  परिवेश में,  जिस वेश में,  विधाता ने, है मुझे भेजा,  वह, नियति है मेरी।    जिस भी जगह मैं हूँ,  वहाँ, उस रंगमंच पर,  अभिनय करना है मुझे।     मेरा कुटुम्ब व सब रिश्ते नाते,  अन्य पात्र हैं,  इस नाटक के।  न कोई स्क्रिप्ट है,  न मिलेगा अवसर एक भी,  रिहर्सल के लिये,  इस नाटक का।    मिला है रोल जो मुझे,  अदा करना है उसे,  बहुत ध्यान से,  चुनने है स्वयं मुझे अपने,  आवेग, संवेदनायें व भाव भंगिमायें,  कुशलता से, विवेक से,… आगे पढ़ें
आ गया बसंत है उत्सुकता से, आतुरता से,  अपलक नयन बिछाये,  जग कर रहा प्रतीक्षा जिसकी,  वह आ गया बसंत है।    दिव्य प्रकृति की ऋतुयें सारी,  पर वसंत ऋतु सबसे न्यारी।  क्यों कि, ऋतुराज बसंत है,  ऋतुओं का राजा वसंत है,  सब ऋतुओं में सबसे प्यारा,  मुझको बसंत है।    हौले-हौले, चुपके-चुपके,  आ गया बसंत है।  नाचो-गाओ, धूम मचाओ,  आ गया बसंत है।  अनुपम आल्हाद लेकर,  सुनहरा प्रकाश लेकर,  मलयज बयार लेकर,  सुरभित बहार लेकर,  फूलों का शृंगार कर के,  रिमझिम फुहार लेकर,  रुपहरी चाँदनी बिखेरता,  आ गया बसंत है।    तरुवर सब हैं धुले धुले,  हरित, मोहक मुस्कान धरे,  नूतन परिधान पहर,  शीतल नयनों को करें,  क्योंकि आ गया, बसंत है,  आ गया बसंत है।    जीव जंतु जगे सभी,  रच रहें हैं मधुर नाद, जैसे ऑर्केस्ट्रा चिड़ियाँ हैं चहक रही,  कोयले हैं कुहुक रही,  गिलहरियाँ फुदक रहीं और मयूर नाच रहे,  ख़ुशियों की थिरकन लिये, … आगे पढ़ें
गहन भारी-भरकम अत्याधिक दारुण समस्याएँ जीवन कष्टकर दिन पर दिन बनाएँ रोज़ी-रोटी लेन-देन दवा-दारू साफ़-सफ़ाई  सूक्ष्म सूक्ष्मतर प्लास्टिक हवा-पानी-मिट्टी में,  पशु-पक्षी-प्राणी हर में   फ्रेकिंग समुद्र तल खनन (डीप-सी माइनिंग)  पिघलते ध्रुव दोनों धुआँ-धूँ जलते वन छोर छोर कार्बन पदचिन्ह का बढ़ता ज़ोर अब लो कोविड वायरस फैला हर ओर    पेड़  पेड़ों से है आशा  सिर तने से लगा अंक में ख़ुद को छुपा शाखा का झूला बना   निहारें फूल  खाएँ फल चाहे पिएँ  नीरा औ' ताड़ी   इनकी छाया तले ठंडक बयार मिले पंछी कुहू करें   हम वन स्नान करें बस चैन की साँस भरें आगे पढ़ें
कविता की किताब पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई मैरी ओलिवर ने पूछा  क्या करोगी अपनी इकलौती उत्कृष्ट ज़िन्दगी के साथ  तुम्हें अच्छा होने की आवश्यकता नहीं तुम्हें घुटनों के बल चलने की आवश्यकता नहीं कुछ तुम अपना दर्द सुनाओ, कुछ मैं अपना   पेंटिंग देखते-देखते उसमें जैसे खो गई  मॅरी प्रॅट ने कहा इमेज ही बन जाओ, रंग भावना है  जो सामने है उसमें छिपे छोटे-छोटे यथार्थ हैं साधारण में है अपनापन, गहराई है ज्यों अंगूरों के गुच्छे में, सृष्टि समाई है   काउच पर बैठ उँघते-उँघते आँख लग गई मेरी अंतरात्मा ने कहा अनुभव ही लिख जाओ, मन की बात दिखाओ  मैरी ओलिवर की सुन लो, मॅरी प्रॅट की समझ लो मेरी समझ आया यह—मेरी माया मुझ से विस्तृत   शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम आगे पढ़ें
अवसादों की भीड़भाड़ में,  और विषाद के परिहास में,  प्राणों के सूने आँगन में,  अश्कों के बहते प्रवाह में,  मधु स्मृति!  तुम थोड़ा मन बहला दो,  तुम थोड़ा मन बहला दो।    आज बहकती सी यादों में,  आज थमे मेरे सपनों में,  अश्क धुले मेरे अंतर में,  एक दीप जला दो!  मधु स्मृति!  तुम एक दीप जला दो!    यादों की बढ़ती बाढ़ों में,  अश्कों के चुपचाप गुज़रते  इस अविरल बहते प्रवाह में,  थोड़ी सी गति ला दो!  तुम थोड़ी सी गति ला दो!    अरी, प्रतीक्षा के बन्धन पर,  शत शत मुक्ति लुटा दूँ,  मैं शत शत मुक्ति लुटा दूँ,  प्रणय अश्रु के दो कण पर  शत शत मुस्कान लुटा दूँ,  मैं शत शत मुस्कान लुटा दूँ!  प्रिय लौटेगें कल,  मधु स्मृति!  तुम आज मधुर बना दो!  तुम आज मधुर बना दो!  आगे पढ़ें
अश्रु, तुम अंतर की गाथा  चुपके चुपके कहते  अंतरतम को खोल,  जगत के आगे रखते,  तुम बिन, गरिमा, प्यार, व्यथा  की गाथा कौन भला कहते?    अनुभावों की कथा आज  बोलो यूँ कौन कहा फिरते,  आज छिपा असमंजस मन में  वफ़ादार कैसे कह लूँ,  बोलो मीत अरे, ओ मेरे  वफ़ादार कैसे कह लूँ?    तुम अंतर को खोल जगत के आगे मेरा रखते,  अंतर में रहते तुम मेरे  पर जग से साझी करते,  यह अधिकार मीत ओ मेरे  बोलो तुमने कैसे पाया?  याद नहीं कब मैंने तुमको  यह अधिकार दिलाया?    फिर भी मीत मान, अरे  अंतर में तुमको रखती  और पुनः अंतर से मेरे  यह आवाज़ निकलती  तुम बिन गरिमा, प्यार, व्यथा की गाथा कौन भला कहते,  अनुभावों की कथा आज  बोलो यूँ कौन कहा फिरते?  बोलो यूँ कौन कहा फिरते?  आगे पढ़ें
तुमने मुझे  धरती पर  इस उत्सव में  आने का निमंत्रण  दिया था,  और मैं अपने गीत  गाने आ गई,  मेरे गीतों को सुन कर  क्या तुम बताओगे  कि मेरे गीत  इस उत्सव में  माधुर्य घोल सके?    समुद्र की लहरों  की तरह,  मेरे उन्मुक्त गीत  किनारे से टकरा कर  तुम्हें ढूँढ़ रहे हैं,  क्या तुम मेरे गीतों को  शब्दों के बंधन से  मुक्त कर,  अपनी बाँसुरी में ढाल  मुझे सुनाओगे?  आगे पढ़ें
मैं हवा हूँ बड़ी दूर की,  महकती, चहकती सुन्दर बयार।  आप जानते हैं मुझे,  आस पास ही रहती हूँ आपके,  कभी सोते से जगा देती हूँ,  स्वप्न में भी बहुधा आ जाती हूँ।    वह प्यार दुलार जो  आपके साथ सदा रहता है,  मैं ही तो ले आती हूँ  और सुगन्धित कर देती हूँ आपके चारों ओर।    वह जल की कल-कल,  स्वस्ति गान मन्दिरों के,  सुनते रहते हैं हम सब जिन्हें झटपट अपने पंखों पर पसार लाती हूँ मैं!    संगीत की वह स्वर लहरी,  रास लीला की मधुर गूँज  जिसे सुनकर आप विभोर हुए थे कभी,  मैं ही चुरा लाई थी, नंद गाँव बरसाने से।    वह गुदगुदाती लपकती लहरें  जिनसे सराबोर हो जाते हैं मन प्राण,  और कोई नहीं मैं ही ले आती हूँ आपके पास,  और हाँ तिरंगे के रंग तो मेरे पास ही रहते हैं,  जो मैं हरे खेतों में देखती हूँ,  केसर… आगे पढ़ें
मुझे मेरी उम्र से मत आँको,  मेरे बालों के रंग से भी नहीं,  न मेरे नाम, न मेरे भार से, मेरे पहनावे से,  मेरे चेहरे पर जो तिल है,  वह भी मेरी पहचान नहीं हैं।  मुझे पहचानो मेरी आवाज़ से,  जो सुबह उठ कर बोलती हूँ तो  भारी लगती है जैसे गला रुँधा हुआ हो,  जो शब्द मैं बोलती हूँ,  उन किताबों से, जो मैं पढ़ती हूँ,  उस मुस्कान से,  जो कभी कभी मैं छुपा जाती हूँ,  उन गीतों से जो मैं अकेले में गाती हूँ,  मेरे आँसुओं से, मेरी खिलखिलाती मीठी हँसीं से,  मैं किन स्थानों में घूमती रही?  मेरा घर कहाँ है? मेरे कमरे में कौन सी तस्वीरें लगी हैं?  मेरा प्यार, मेरा विश्वास कहाँ है,  वह मेरी असली पहचान है,  उस से आँको मुझे!  मेरे चारों ओर सुन्दरता है परन्तु लगता है— वह सब भुला दिया तुमने और जो मैं नहीं हूँ  उन्हीं आँकड़ों से… आगे पढ़ें
आज मैंने बहुत सारी चिट्ठियाँ फाड़ डालीं,  बरसों से फ़ोल्डर में रखी हुई थीं,  कभी कभी निकाल कर पढ़ लेती, रो लेती हँस लेती।  आज फिर पढ़ने लगी, माँ की बीमारी,  बहन की शादी, भाई की पिता जी से बहस,  पति का प्यार मनुहार, बच्चों की ज़िद  सभी कुछ मिला उन सहेजे हुए ख़तों में,  बार बार पढ़ कर मन में रख लिया सब कुछ!  ख़तों का काग़ज़ भी पुराना होकर  तार तार सा होने लगा था,  स्याही हल्की हो गई थी,  पढ़ पाना भी कठिन हो रहा था।  वैसा ही जैसे जीवन में होता है, यादें धुँधली,  वे कहानियाँ जो उन चिट्ठियों में बुनी गईं थी— बेसहारा सी लगीं,  जैसे झूल रही हों किसी झंझावात में— बिना पतवार के,  माता पिता, भाई बहन बच्चों की  पुरानी बातों ने तो नये आकार ले लिये थे,  मन में, तस्वीरों में, कविता कहानी के पन्नों में।  अब उनमें दर्द नहीं… आगे पढ़ें
अब मैं उस कोने वाले मकान में नहीं रहती हूँ, अब उस मकान में कोई और ही रहता है। उस मकान में आकर उसे घर बनाया, सजाया सँवारा, धीरे धीरे वहाँ अच्छा लगने लगा, वह शीशे की गोल मेज़, मैं दुकान में देखा करती थी, रसोई के एक कोने में लगाई, कितनी ही तस्वीरें जो अख़बारों में लिपटी पड़ी थीं, निकालीं और दीवारों पर सजाईं। किताबों और चित्रकारी के लिये नीचे का बड़ा कमरा ठीक किया, वहाँ कभी कभी संगीत का कार्यक्रम भी होता था। फिर रहते रहते वहाँ शहनाइयाँ गूँजीं, नये मेहमान आये, किलकारियाँ सुनाई पड़ी, हाँ, उनके लिये खिलौने रखने की जगह भी तो बनाई थी। फिर धीरे धीरे जाना भी शुरू हो गया, लाठी की खटखट जो ऊपर के कमरे से सुनाई पड़ती थी और जिसे सुन कर अच्छा लगता था, बंद हो गई, दोस्तों के ठहाके व खाने के लिये उनका ज़ोर से पुकारना… आगे पढ़ें
आज मैंने भी एक दिया जलाया, देखती रही उसे देर तक! सोचती रही, सब इसकी लौ में लपेट लूँगी। और ले जाऊँगी कहीं दूर एक छोटी सी पोटली में बाँध कर! वही, ज़िन्दगी के सुनहरे लम्हें,  जो उस दिन – अलाव पर हाथ सेंकते हुये दिये थे तुमने,  और देते ही रहे,  हैं मेरे पास, आज भी। उन्हीं से सुलगाती रहती हूँ...  वह अनमने से,  अकेले से पल,  जो घने बादलों की भाँति  ओढ़ लेते हैं  मेरी खिड़की से आती हुई  उस हल्की हल्की गरमाई को! आज मैंने भी एक दिया जलाया! देखती रही उसे देर तक! आगे पढ़ें
वह जल्दी से मेरे पैर छूकर चला गया,  आशीर्वाद के शब्द बोलती मैं उसके पीछे पीछे आई तो पर वह चलता गया मैं सोचती रही उसने सुनें तो होगें,  मेरे वे शब्द जो मन से निकलते है कभी कभी, कहीं धुँधलके में विलीन हो जाने के लिये मन की गहराइयों में पड़े रहने के लिये।    शब्द जो दिन रात, सोते जागते हम सुनते हैं, अनसुनी भी करते हैं फिर उन्हीं को स्मरण करने का प्रयत्न करते हैं कभी कभी।    काश मेरे आशीर्वाद के शब्द कोई सुनें ना सुनें, उनका प्रभाव उनके जीवन पर पड़े एक घने वृक्ष की छाया की भाँति, सुखद बयार की भाँति।    इन्हीं विचारों में खोई मैं बाहर तक पहुँच गई, तब देखा वह कार के पास खड़ा, हाथ जोड़े, धीमी सी मुस्कान लिये,  स्वीकार रहा था, मेरे आशीर्वाद को।  आगे पढ़ें
बहुत चाहा कह दूँ तुम्हें  लेकिन भींच लेता हूँ मुट्ठी में  कसकर सोच की लगाम  चाहे कितना भी दबा लूँ  अंतस की आग को  फिर सुलग उठती है तुम्हारे रवैये से  थक गए हैं मेरे हवास  लगा-लगा कर होंठों पर ताला  अनचाहे बँधा हूँ उस डोर से  जिसे कब का बे-मायने कर दिया है तुम्हारी हठधर्मियों ने  चाह कर भी कस नहीं पाता मन  ढीली हुई रिश्तों की दावन को  सोचता हूँ टूट ही जाए यह रिश्ता ताकि स्वतंत्र हो जाएँ मेरे शब्द  तुम्हारे ग़ुरूर को बेधने को  मेरी चुप्पियाँ  तुम्हारी अना की जीत नहीं  अपितु गृह कुंड में शान्ति की आहुति है  अच्छा होगा जो अब भी थाम लो तुम  अपनी कुंद सोच के क़दम ऐसा न हो रह जाए कल तुम्हारी ज़िद की मुट्ठी में केवल पछतावा।  आगे पढ़ें
अम्मा के आँचल में था ख़ुश बचपन मेरा चन्दा के घर था परियों का डेरा  पलकों पर नींदें थीं  सपनों का फेरा  बाँहों के झूले थे  काँधे की सवारी  पीठ का घोड़ा था  थी मस्ती किलकारी  छोटी-सी चाहें थीं  भोली-सी बातें  तनिक रूठ जाते थे सारे मनाते  गलियाँ बुलाती थीं अपना बताती थीं संगी थे, साथी थे ख़ुशियों की थाती थी रूठी अब राहें हैं अपने पराए हैं सपने न नींदें हैं रातें जगाए हैं दिखावा छलावा है झूठ चालाकी है अपनापा क़ब्रों में प्रेम प्रवासी है नानी औ दादी अब बीती कहानी है बाँचे व्यथा किससे चहुँ दिश वीरानी है।  आगे पढ़ें
प्रेम से उद्वेलित हूँ तो विष से भी हूँ लबरेज़ राग-द्वेष-आक्रोश सब समाहित हैं मुझमें यूँ न देख मुझे नहीं हूँ मैं  निरीह निस्सहाय-सी सदियों से सींच रहा है मेरा अनुराग तेरे प्राण  संपूर्ण हूँ स्वयं में मैं किन्हीं दुआओं और मन्नतों का परिणाम नहीं और न ही किसी पीर की दरगाह के ताबीज़ का असर हूँ बेक़द्री और मलाल से सिंचा  बड़ा पुख़्ता वुजूद हूँ मैं ग़ज़ब की है जिजीविषा मेरी तभी तो पी लेती हूँ सहज ही  सारी तल्ख़ियाँ और कठोरता  यूँ भी कड़वा कसैला पीना किसी साधारण जन के बस की बात नहीं  जानती हूँ समय से आँख मिलाना  तभी तो जी लेती हूँ लम्बी उम्र तक  बिना किसी करवाचौथ के सहारे के।  आगे पढ़ें
मेरी कोमल देह पर पाँव रखकर सुकून पाने वालो भूल न जाना  मेरी तपन के तेवर  मुझे मुट्ठियों में भींचने की जी तोड़ कोशिश करने वाला स्वयं तोड़ बैठता है अपनी क्षमता का भ्रम समन्दर भी नहीं बाँध पाता मुझे जानता है आज़ाद ख़्याल रेत की फ़ितरत नहीं होती मुट्ठियों की क़ैद में रहना।  आगे पढ़ें
ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।    शर्त व्यापी जगत में वह जीत में है, हार में है।  दो जनों के सख्य,  सारी प्रकृति के व्यवहार में है।  शर्त पूरी यदि न हो, उत्तप्त साँसों की धरा से,  देख कर तुम ही कहो, वह श्याम घन झरता कहीं है?  ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।    साथ की है शर्त क्या?  बस प्यार को तुम मान दोगे।  थक चलूँगी मैं जहाँ,  बढ़, बाँह मेरी थाम लोगे।  बिन सहारा नेह-बाती का मिले, तुम स्वयं देखो,  लौ लिये निष्कंप दीपक, प्यार का जलता नहीं है।    दे सके तुम प्रेम तो,  उस स्नेह का प्रतिदान दूँगी।  है अपेक्षा कुछ न तुमको,  बात कैसे मान लूँगी?  मनुज हैं सामान्य हम और सत्य तुम यह जान लो प्रिय,  एकतरफ़ा प्यार से यह मन सहज भरता नहीं है,  ज़िन्दगी का साथ शर्तों के बिना निभता नहीं है।  आगे पढ़ें
बेटे का मुँह भर माँ कहना,  बेटी का दो पल संग रहना,  मेंरे सुख की छाँह यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    बहुत बढ़ गया मानव आगे,  चाँद नाप आया पाँवों से।  मेंरी परिधि बहुत ही सीमित,  बाँधे हूँ, बस, दो बाँहों से।    बच्चों का यों खुल कर हँसना,  गले अचानक ही आ लगना,  मेरा सब कुछ आज यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    जीवन के ये बड़े-बड़े सुख,  मिलें सदा छोटी बातों से।  डरता है मन, फिसल न जाएँ,  अनजाने में निज हाथों से।    इनका यह बिन बात मचलना,  पल में मनना, फिर आ मिलना।  मेरा सुख-साम्राज्य यही है,  इसके आगे चाह नहीं है।    हो साधारण, प्यार बहुत है,  मुझको निज अमोल सपनों से।  घिरी रहूँ जीवन संध्या में,  स्नेह ज्योति से, बस, अपनों से।    जाड़ों की हो धूप गुनगुनी,  साथ-संग मिल बैठें हम सब।  चुप कुछ सुनना, हँस… आगे पढ़ें
दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    कट गई है आयु काफ़ी नाचते विधि की धुनों पर,  आ लगी है नाव जीवन- सरित के नीरव तटों पर।  समय आया, डाँड़ छोड़ें,  धार से अब ध्यान मोड़ें।  किन्तु फिर-फिर मन हठी यह,  थामता पतवार क्यों है?  दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    मोह की आँधी प्रबल है कठिन है इससे उबरना,  हम भला कब चाहते हैं,  सत्य में ही “विदा” कहना?  मन अटकता है अभी भी,  इस जगत के बन्धनों में,  नेह-निर्मित नीड़ जिसको  छोड़ने की सोचते ही,  उठ पड़ा मन-प्राण में,  यह तुमुल हाहाकार क्यों है?  दिन सिमटने के मगर,  मन माँगता विस्तार क्यों है?    हुए पूरे, कुछ अधूरे,  चित्र जो मन आँकता है।  रंग भर दूँ और थोड़े,  समय इतना माँगता है।  एक क्षण भी अधिक अपने  प्राप्य से मिलना नहीं है।  ज़िद से, मनुहार से,  इस नियम को… आगे पढ़ें
क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    लेख में मेरे जगत की कौन सी उपलब्धि संचित?  अनलिखा रह जाय तो होगा भला कब, कौन वंचित?  कौन तपता मन मरुस्थल काव्य मेरा सींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    भाव शिशु निर्द्वन्द्व सोया हुआ है मन की तहों में।  क्यों जगा कर छोड़ दूँ,  खो दूँ जगत की हलचलों में?  है प्रलोभन वह कहाँ  जो इसे बाहर खींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    छू सके जग हृदय को,  कब लेखनी ने शक्ति पाई?  कब, कहाँ, इससे, किसी के  भाव ने अभिव्यक्ति पाई?  कौन इससे पा सहारा,  नयन दो पल मींचता है?  क्यों लिखूँ, किसके लिये?  यह प्रश्न मन को बींधता है।    लिखूँ, और, अपने लिए,  यह बात मन भाती नहीं है,  क्योंकि अपने लिए जीने की कला आती नहीं है।  निज… आगे पढ़ें
मैं अच्छा-भला चल रही थी।  सहज गति से, उन्मुक्त रूप से,  गाते हुए, प्रकृति का आनन्द लेते हुए,    गन्तव्य यद्यपि बहुत स्पष्ट न था,  पर दिशाज्ञान अब भी शेष था।  कर्म के प्रति था सुख-सन्तोष,  मन-बुद्धि पर था सम्यक्‌ नियन्त्रण।    सहसा मैंने पाया कि पता नहीं कब से  मेरे समकक्ष ही  कुछ लोग दौड़ रहे थे।    और न जाने क्यों स्वयं को उनके साथ  प्रतियोगिता में खड़ा कर,  मैं भी उनके साथ ही दौड़ने लगी।    गन्तव्य तो पहले से ही  स्पष्ट न था, और अब दिशाहारा होकर,    मन, बुद्धि, सुख, सन्तोष सभी धीरे-धीरे विदा लेने लगे।    और बच रहे मात्र दिग्भ्रमित दो पैर,  और उनकी अनवरत गति।  आगे पढ़ें
कभी कभी मुझे ऐसा होता है प्रतीत,  कि मेरी कविताओं का भी  बन गया है अपना व्यक्तित्व।    वे मुझे बुलाती हैं,  हँसाती हैं, रुलाती हैं,  बहुत दिनों तक उपेक्षित रहने पर मुझसे रूठ भी जाती हैं।    करती हुई ठिठोली,  एक दिन एक कविता मुझसे बोली “तुम मुझे कभी नहीं पढ़ती हो,  दूसरी कविता को मुझसे ज़्यादा प्यार जो करती हो।”    एक कविता ने तो हद ही कर दी,  जब वह एक सिरचढ़ी किशोरी सी हठात् घोषणा सी करने लगी “तुम्हें करना होगा कोई उपाय,  मेरे साथ नहीं हुआ है न्याय।”    मैं आश्चर्य से उसे देखती रही।  और वह अपनी धुन में कहती चली गयी।  “मेरे कुछ शब्दों को बदल दो,  तो मैं और निखर जाऊँगी,  अभी मेरा स्वर धीमा है,  कुछ और मुखर हो जाऊँगी”    मैंने उसे समझाया,  “मेरे जीवन में मेरे सिवाय और भी बहुत कुछ है।  मेरा घर, मेरे बच्चे,  मेरे… आगे पढ़ें
आरम्भ से अबतक दूसरों की अपेक्षाओं को सुनने-समझने तथा पूरा करने के प्रयास में लगी-लगी, मैं भूल ही गयी कि स्वयं से भी मेरी कोई अपेक्षा भी है क्या?    पहले माता-पिता की,  उसके पश्चात् पति की अपेक्षाओं से अवकाश मिला ही न था कि समय आ गया है कि समझूँ, हमारे बच्चे हमसे क्या चाहते हैं?    तीन पीढ़ियों की अपेक्षाओं से जूझते हुए मुझे क्या मिला?  मुझे मिला सुरक्षाओं का  एक ऐसा सुदृढ़ कवच कि उसमें जकड़ी-जकड़ी मैं निरन्तर भूलती चली गयी कि आख़िर मैं स्वयं से भी क्या चाहती हूँ?    अब तो स्थिति यह है कि मेरा सारा अपनापन, मेरे अपनों में इतना विलय हो चुका है कि उससे पृथक्‌ मेरा अस्तित्व ही कहाँ रहा है? तो अब मैं क्या, और मेरी अपेक्षायें भी क्या?  आगे पढ़ें
यह प्रश्नचिन्ह क्यों बार-बार?  क्यों उसे जीत, क्यों मुझे हार?  यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?    जीवन में जो भी किये कर्म,  तत्समय लगा था, वही धर्म।  यदि अनजाने ही हुई भूल,  लगता जीवन से गया सार॥   यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  इच्छाओं का तो नहीं अन्त,  मन छू लेता है दिग-दिगन्त।  इस मन को ही यदि कर लूँ जय,  हो जाये कष्टों से निस्तार॥   यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  क्यों मुझको बनना है विशिष्ट?  क्यों नहीं काम्य है सहज शिष्ट?  सब सौंप उसे यह कठिन भार,  निश्चिन्त रहूँ, पा सुख अपार।    यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  क्यों उसे जीत, क्यों मुझे हार?  यह प्रश्न उठे क्यों बार-बार?  आगे पढ़ें
सन्नाटे चीखते हैं मेरी चारदीवारी मेंं  मरघट से लौटती साँसें,  थम गयी हैं नक़ाबों मेंं  रुकी साँसों को मुँह मेंं दबाए,  डरे चेहरों के काले अक़्स  छिपे हैं,  शक़ से तौलते हैं हर पास आते साए को   दूर . . . बस दूर रुक कर  देखते हैं  एक गुफा मेंं क़ैद मेरी रूह  चाहती है गले मिलना, लगाना, खिलखिलाना  दर्द के समंदर पर तैरती आँखों में  उम्मीद जगाना,  दबे पाँव सूरज की रौशनी  का पीछा करती  मै उग रही हूँ  ज़िन्दगी की कोपलों मेंं॥ आगे पढ़ें
रोज़ सुबह  किरणों के जागने से पहले  घर होता जाता है ख़ाली  जाते हो तो एक टुकड़ा मुझे भी साथ लिए जाते हो।    शाम को मिलने का वादा तो रहता है  हर दिन  मगर फिर भी  रोज़ जब जाते हो  कुछ मैं कम होती जाती हूँ।    हौले-हौले ख़ुद को तब सँभालती हूँ बिखरे घर की तरह!    जब सुबह दोपहर से बातें करती  संध्या से मिलने आएगी  ये घर  शाम को मिलने के वादों से भर जायेगा।  आगे पढ़ें
बस रहने दें, अब बस भी करें,  धम्म से पसरें धरती पर,  हाथों पर हाथ धरे,  कुछ न करें . . .!    घूरें–उस दूर उड़ती चिड़िया की चहचहाट कानों में भरें,  उसकी बोली, उसकी बातें—समझें तो ठीक  वरना मौन धरें . . .!    एक बार, बस एक बार  ख़ाली बर्तन सा आँगन में लुढ़कें,  तेज़ बूँदों, बारिश में जिसे  अम्मा भूल गयी थी ढँकना  भीगते चूल्हे की राख और  मिट्टी में पैरों को भीजते छोड़ दें . . .!    ऊपर से झाँकते चाँद से आँखें  चार कर  झप्प से टूटते तारे को  लपक लें गोदी में  अँधेरे में लरजते झींगुर की झिक-झिक  मच्छर की बाँसुरी को गुनें . . .!    या कभी,  नवम्बर की दुपहरी  गुनगुनी चाय और धूप  अलसती शाम को ताकें ऊन के गोलों, सलाइयों के  फंदों के बीच उलझती, उधड़ती  पड़ोसिनों की बातों को बुनें . . .!    धूप में… आगे पढ़ें
मन की आँखें खोल रे बन्दे,  अपने मन को तोल रे बन्दे,  बोल प्यार के बोल रे बन्दे,  भर मन में झनकार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥1॥   याद करो जब तुम थे बच्चे,  सरल हृदय थे, तुम थे सच्चे,  बंद किया कपाट हृदय का,  खोलो मन का द्वार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥2॥   देश-विदेश में कितनी भाषा,  धर्मों की कितनी परिभाषा।  ढाई आखर प्रेम समझ लो,  जो धर्मों का सार।  बोलो, प्यार-प्यार-प्यार॥3॥   क्यों करते हो सबसे झगड़ा?  झूठ-म़ूठ का है ये रगड़ा,  भेदभाव को भूलभाल,  छोड़ो सारी तकरार।  बोलो प्यार प्यार प्यार॥4॥   रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,  गुलदस्ते में ख़ूब सजे हैं।  हम सब मिल सारे जग को  बना लें इक परिवार।  बोलो प्यार-प्यार-प्यार॥5॥   शान्ति, अमन और भाईचारा,  यदि हो, तो संसार तुम्हारा,  जैसा तुम दूजों से चाहो,  वैसा हो व्यवहार।  बोलो प्यार-प्यार-प्यार॥6॥ आगे पढ़ें
कुछ पल होते हैं तन्हाई के मायूस मन फड़फड़ाता है  भीड़ में  कोई चिठ्ठी है बंद बोतल में  जिसे कोई नहीं मिला   बीच सागर में  ऐ मन! ज़रा सुनो  ज़िन्दगी एक स्वर्ण किताब है  ज़रा पढ़ कर तो देखो  कुछ दर्द हलके होंगे  मीठे पलों को चख कर तो देखो  दिल की हर धड़कन इक तार है  उसे मीठे मुस्कान से सिल कर तो देखो  कभी आँखों के नमी को  नीले बूंदों से मिला कर देखो  हर बार एक नई कहानी मिलेगी  कभी सागर की लहरों से  मिल कर तो देखो  आगे पढ़ें
पल भर में भय का बादल छाया जो बुन रही थी सपने कभी दरारें उनमें पड़ने लगीं आखिर मोड़ ऐसा क्यों आया? क़ुदरत की ये कैसी माया?   महामारी का वार है भारी टूटे हैं कुछ सपने ग़म नहीं जब करीब हैं अपने थोड़े ग़म भी हैं कहीं जब कुछ घर पहुँचे नहीं अपने।   रो रहे हैं सब कहीं मौत का तांडव हो रहा विनाश की भँवर में तड़प रही प्रकृति ना जाने कुसूर किसका है?   खून के आँसू रोती हूँ मैं जब पीड़ित रोगियों को देखती हूँ कभी कुंठा में सन जाती हूँ जब बेशर्मों को थूकते देखती हूँ जान-बूझकर रोग फैलाते देखती हूँ आखिर ये कैसा बैर है? वसुधैव कुटुम्बकम् को अपनाओ दोस्तों धर्म यही है तीर्थ यही है।   देर न हो जाए थोड़ी देर संभल जाओ आशा की किरण मिल जाएगी आज की उदासी कल किलकारी बन जाएगी ग़म की परछाई अस्थायी… आगे पढ़ें
साल उन्नीस सौ पैंसठ गन्ना कटाई के मौसम  सेठ के लड़कक सादी के दिनवा तय भय जिस दम  देखत सादिक चर्चा पूरे गाँव में होई गए  रही हफ्ता भर मौज लोग सब ख़ुशी मगन भाए।    नक्चान सादी के दिन गाँव में हलचल भारी  खुसी खुसी सब करे लगिन सादिक तैयारी चला नाउ फिर पियर-चाउर लै बटिस नउता  इधर सेठ गए टाउन लाइस ढेर के सउदा   अदमी काटें लकड़ी लई के टांगा आरी अउरतन करिन घर-आंगन के सफाई जारी करिन सफाई जारी अउर फिर बना मिठाई इम्लिक चटनी चटक वाला फिर भी दिहिन बनाई   फिर बना अदमी-अउरतन के झाप अलग से बीच में लागईन ऊँचा पर्दा घास-फूस के घास-फूस के बीच में बैठी एक दरबान इधर-उधर जो झाँकी तो ऊ पकड़ी कान   तेल्वान आईस तो बटुर गय पूरा गाँव पोतिन दूल्हाक तेल कई दफे सर से पाँव सर से पाँव आज दूल्हाक अइसन चमकायिन कनिकानी… आगे पढ़ें
क्या याद है तुम्हें अपनी वो दीवाली उस गाँव के छोटे से घर पर अब तो कई साल बीत गए हैं छूट गया गाँव टूट गया वो घर हमारी दीवाली के बीच आमावस आ गई है हर दीवाली के दरमियां वनवास आ गया है अब हम  हम न रहे अब तुम  तुम न रहे तेरे मेरे बीच से दीवाली अजनबी हो चली है ये दीवाली वो दीवाली न रही॥ आगे पढ़ें
ऐ थम जा मदहोश परिंदे! ये चाँद सी तड़प सूरज सी जलन अरमानों को राख कर देगा हमारे सपनों को ख़ाक कर देगा ऐ थम जा मदहोश परिंदे! उड़ना मुझको आता नहीं जलना हमें  गवारा नहीं तुम उस डाली हम इस डाली इस से उस डाली जाना हमें गवारा नहीं ऐ थम जा मदहोश परिंदे! संबंधों में बिखराव अपनों से टकराव यू पल-पल जीना-मरना हमें गवारा नहीं ऐ थम जा मदहोश परिंदे! आगे पढ़ें
मेरे वतन फीजी! तुझे छोड़ के हम कहीं नहीं जाएँगे यही रहेंगे हम तेरे पास और तुझे दुनिया का स्वर्ग बनाएँगे दुनिया के नक्शे पर तू छोटा सा एक सितारा है नाज़ है हमको कि तू प्यारा फीजी देश हमारा है जब तक ऐ मेरे वतन हमारे सिर पर तेरा आशीष रहेगा चाहें कितने बड़े ही झमेले हों हम खुशी-खुशी झेल जाएँगे! ऐ मेरे वतन फीजी! तुझे छोड़ के हम  कहीं नहीं जाएँगे तू हमारी मातृभूमि है तुझसे मिला हर पल बहुत सारा प्यार  तेरी आँचल की छाया में समाया मेरा छोटा सा यह संसार कसम तेरे पाक आँचल की उसमें कोई दाग लगने नहीं देंगे कुर्बान हो जाएँगे ऐ मेरे वतन! फीजी तुझे छोड़ के हम  कहीं नहीं जाएँगे जुड़े हैं पूर्वजों के बलिदान तुझसे, उसे हम कैसे भुला दें जो अधिकार मिला इस वतन में उसे हम कैसे गवाँ दें यहीं पर पैदा हुए, बड़े हुए,… आगे पढ़ें
कभी तेरे कंधे पर बैठकर घूमा करते थे कभी तेरी गोदी में बैठकर क़िस्सा सुना करते थे कभी एक थाली में साथ खाते थे वो दिन कुछ अलग थे जब हम साथ रहा करते थे भाई मेरे, तेरे साये में हम कितने महफ़ूज़ रहा करते थे।   आगे पढ़ें
एक छोटी सी पोटली एक मीठा सा सपना लेकर झगरू चला सात समुद्र पार बारह सौ मील दूर जब आँख खुली तो पाया रमणीक द्वीप साहब का कटीला चाबुक और भूत लैन में एक अँधेरा कमरा रोया, गाया, भागा, बहुत चिल्लाया अपने को कोसा लेकिन तोड़ न पाया वो समुद्री पिंजरा! दिन, रात, महीने, साल धीरे-धीरे बीते गिरमिट की काली रात घाव के ऊपर घाव और इज़्ज़्त भी लुट गई जटायू की भाँति कट गए पंख जब पिंजरा खुला अकेला तट पे पड़ा वो उड़ न सका फिर छूटी पोटली और रेत हुआ  सपना॥   आगे पढ़ें
फीजी हिंदी हमार भासा कोई से पूछ लो आइके देख लो फीजी के लोग है कुछ अलग हमार बात फीजी बात है बहुत सुन्दर बात हम यही भासा छोटे से है बोलता इसमें थोड़ा अवधी इसमें थोड़ा भोजपुरी इंग्लिश भी है फीजियन  मसाला भी है सब भाषा के मिलावट इसमें बनगे एक अलग भासा अब यही हमार वजूद  हमार पूर्वजों  के इतिहास हम लोगन के पहचान सब कोई माँगो फीजी हिंदी के उठाओ इसमें पढ़ो, लिखो, गाओ मजबूत बनाओ शर्माओ नहीं  गर्व से बोलो फीजी हिंदी हमार भासा है॥   आगे पढ़ें
पीपल की छाँव में अपने गाँव में बचपन में झूला करती        थी झूला हरियाली के मौसम में चूडियों की खनक   पायल की झनक राग में मिलाती राग       गुनगुनाती       कभी मुस्कुराती कभी खिलखिला कर     हँसती, पतझड़ आता पत्ते झड़ते ढेर लग जाते कुछ से झूला सजाती कुछ से पहाड बनाती, आया समझ में पीपल       का महत्व नित्य शाम दिया     जलाती परिक्रमा           करती मन में सपने सजाती      मन-चाह पाती सुन्दर घर-परिवार पाँव रखूँ कभी  धरती पर   कभी आँसमा पीपल की छाँव जैसे हो अपना खुशनुमा-संसार पीपल जैसे पवित्र हो  अपना प्यार जीवन का झूला झूले हँसते- मुस्कुराते जैसे बचपन वाली पीपल की छाँव में कभी गाँव लौटूँ तो  माथा टेकूँ अपने बचपन वाली  पीपल की लूँ आशीर्वाद  हर सावन में    गाँव लौटूँ झूला झूलूँ… आगे पढ़ें
मेरे राजा भइया      सावन की हवाएँ          चल रही हैं    तेरे मेरे बचपन की        याद दिला रहीं हैं  वक़्त बदल गया   बदलते वक़्त के संग       बहुत कुछ बदल गया  खो गया बचपन का             आँगन  विरान हो गया गाँव    सूनी हो गई खेतों की                 सुहाग   न रही दादी चाची       न रही कोई सहेली           न रहा कुछ खास                   निशानी  तू भी किस देश चला     न राह का पता दिया      न दिशा का संकेत    मैं परदेश में अकेले ही               रह गई   बिना बताये ही             चला गया, सावन में तेरी राह देखती आँख भिगोती … आगे पढ़ें
दुलहन सी सजी-धजी  अप्सरा सी मनमोहक  प्रकृति में सिमटी हुई  पग पग घाटी के आँचल              में हरियाली                                  फैलाती  ओस की बूँद पर जैसे  सूरज का पहला             किरण का              लालिमा का                         झलझलाहट  इतना सुन्दर देश है                      हमारा॥   झूम-झूम कर             नाचती गाती  नज़र को अपनी तरफ  आकर्षित करती मंद-मंद हवा के संग,           देश मेरा नीला नमकीन      पानी से घिरा  लहरों से लहर मिल तटों से टकराती  कोसों मील तक  सफेद रेत बिछाती  नारियल के लम्बे-लम्बे             पत्ते  हवाओं में… आगे पढ़ें
दूर पहाड़न में बसा रहा,  आपन सुन्दर गाँव हरा-भरा खेतन रहिन,  अउर अंगनम अमवक छाँव।   लोग मेहनती, करें  धान गन्ना के खेती करें वहिम संतोक,  जो धरती मइया देती।   कोई मजूर गरीब,  कोई किसान गन्ना के फिर भी रहा एकताई,  अउर सुम्मत जनता में।   फिर बना गाँव में,  एक स्कूल अउर मन्दिर सिक्छा के सम्मान रहा,  सब लोगन के अन्दर।   सुखी रहिन सब, चले ऊ  गऊँअम एक मण्डली करें मदद सब में, चाहे  होए सादी या मरकी।   भये मुसीबत, ख़तम भये  जब जमिनवक लीस मतंगाली जमीन लईके,  बस घराईक जगह दिहिस।   करिन लोग रातू से,  रोए-रोए के बिनती अइसा दइदो हमको लीस,  पर ऊ माँगे ढेर पइसा।   रोवत–गावत, आपन  पुरखन के धरती छोड़ीन बिखर गइन सब इधर–उधर,  जीवन डग मोड़ीन।   का जानत रहिन कि,  एक दिन अइसन भी आई आपन समझिन जिसके,  वही होई जाई पराई।   आज हुँवा जंगल… आगे पढ़ें
ज्योति पासवान तुम्हारे हौसले बुलंद इरादों के चर्चे फैल चुके हैं दूर तक देश-विदेश में, तुम कौन हो? मुझे याद आ रहा है  तुम्हारा इतिहास तुम बहादुर थीं ज़िम्मेदार भी थीं तब भी- जब गाँव में  तुम पैठ से साइकिल चला कर सौदा लेने बाज़ार जाती थीं दबंगों को नागवार  गुज़रा था तुम्हारा  साइकिल चलाना तुम्हारी माँ को भी धमकियाँ  दी गयी थीं इसे रोक ले साइकिल पर चढ़ने से अपनी औक़ात  भूल गयी तू भी नीच जात की होकर ये साइकिल चलाएगी तो हमारी बहू-बेटियाँ क्या चलाएँगी? तू बराबरी करेगी हम से इसकी इतनी हिम्मत। उसके बाद तुम्हारी साइकिल छूट गयी थी परन्तु - तुमने अपना हौसला तब भी बनाये  रखा था जैसे आज बनाये रखा है कोरोना संकट में, तुम्हारी उस साइकिल  इतिहास की ख़बरें तब भी छपीं थीं अख़बारों में ‘एक दलित की बेटी को साइकिल  चलाने से दबंगों ने रोका’ तब तुम दलित की… आगे पढ़ें
हमें प्यार है जंगल से  गिरते झरने, पहाड़ी नदियाँ  भाती हैं दिल को महुआ की मादक गंध महका देती है तन – मन सरहुल के नृत्य उमंग भर देते हैं मन में बेंग, फुटकल, सनई, रुगड़ा और खुखड़ी कहीं जाने नहीं देते साल के वृक्ष हमारे संरक्षक हैं जो थाली, प्लेट, कटोरी से लेकर  ढकते हैं हमारा तन   हम सुरक्षित रखते हैं  अपनी परम्पराओं को जीवित रखते हैं  अपनी संस्कृति को   हमारे यहाँ लड़का – लड़की नहीं होती होता है तो ‘हल जोतवा’ या ‘साग तोड़वा’ ‘साग तोड़वा’ को खुली छूट है अपना जीवन जीने की उसे हवा की सी आज़ादी है नदी में बहने की स्वतंत्रता है और ‘हल जोतवा’ समझता है  बराबरी के अधिकार को   पुरखों को नहीं भूले हैं हम परब की शान है हड़िया हम जुड़े हैं अपनी ज़मीन अपने जंगल और  कल – कल बहते जल से  संस्कृति को सँजोये… आगे पढ़ें
आज मन में आया मैं भी क्यों न उठा लूँ हाथों में बग़ावती लाल झंडा शोषितों की क़तार  दलितों से शुरू होकर  हम पर ही तो ख़त्म होती है!!  सामाजिक शोषण-हिंसा का शिकार दलित ही नहीं हम भी हैं,  मुट्ठी भर ताक़तमंद  मर्दों की मनमानी के शिकार   यही नहीं  नारी देह की बहती गंगा में  कुछेक दंभी पुरुष  अक़्सर धोते आए हाथ  जब-जहाँ-जैसा पानी मिला  गंदा, मैला, कुचला, उथला, गहरा या छिछला ज़रूरी नहीं, भरी-पूरी नदी हो छोटी-छोटी कीचड़ भरी बावड़ियों में भी उतरने से बाज़ नहीं आते तथाकथित मर्द   किसी से नहीं उम्मीद न्याय की दलितों, पिछड़ों और महिलाओं का जीवन  आज भी है उड़ती हुई बरसाती पाखी की तरह जिसके पंख झड़ते ही तमाम जीव रहते हैं मुँह बाये  आहार बनाने के लिए कितनों ने अपनाई ख़ुदकुशी की राह ये सोचकर गिद्धों से नुचवाने से बेहतर है ख़ुद ही करना देह निष्प्राण    मगर… आगे पढ़ें
करमी जाती है नंगे पाँव  खेत में  रोपती है धान मुर्गी, बत्तख, बकरियों के बीच रहती है  नापती है धरती – आसमान रोज़ ही और हंडिया पीकर झूमके नाचती है  जी रही है सिर उठाकर  सुंदर सपनों की मृगतृष्णा  ले आई नयी दुनिया में  अब पहनती है ऊँची हील की सैंडल  चमचमाते ब्रांडेड कपड़े  आगे – पीछे गाड़ियाँ  हाथों में व्हिस्की  झूमती है पॉप म्यूज़िक पर   आँखों का भोलापन  सन गया कीचड़ में  उसने मार दिया  अपनी आत्मा को ‘करमी’ अब ‘कशिश’ हो गई। आगे पढ़ें
पर्वतों के पीछे से आज फिर रिस रहा है लहू शायद फिर हो रहा है कोई हलाल काटा जा रहा है किसी का शीश अभी तो रेता जा रहा होगा उसका गला फिर, किये जाएँगे अलग उसके हाथ, फिर,धड़, पैर फिर उखाड़ दिया जाएगा समूल वो नहीं बन पाएँगे इतिहास नहीं पनपेगी उनकी वंश बेल दुनिया के नक़्शे से ग़ायब हो जाएँगे आदिमजातियों के आदिम घर विरासत में मिले हरियालेपन को हमने कर दिया धूसर उन्होंने हमें दिया भोजन और साँसें और हमने स्वाहा कर दिया उनका जीवन शायद तभी गढ़ी गई होम करते हाथ जलने की परिभाषा न, न, परिभाषा तो हमने अपने लिए गढ़ी दरअसल, केवल उनके हाथ ही नहीं जले वो पूरे जल गए, पूरे कट गए, पूरे मिट गए जब खंडहर ही नहीं होंगे तो कोई कैसे जानेगा कि इमारत कितनी बुलंद थी वो भी हो जाएँगे ऐसे ग़ायब जैसे ग़ायब हो रहे हैं… आगे पढ़ें
तीन प्रकार के  अणुओं से मिलकर  बनता है हमारा रक्त पढ़ा था मैंने  विज्ञान की पुस्तकों में रक्त सुर्ख होता है रक्ताणु से और   प्रत्येक कोशिका तक पहुँचती है ऑक्सीजन श्वेताणु दिलाते हैं मुक्ति रोगों से और  बढ़ाते हैं प्रतिरोधक क्षमता बिम्बाणु कारगर है चोट में नहीं बहता है रक्त किंतु हज़ारों सालों के  इतिहास से शोध करके पाया है मैंने  ग़लत हैं विज्ञान की पुस्तकें विज्ञान की नज़र नहीं खोज पाई  चतुर्थ अणु को भारतीयों के रक्त में  इसी के आधार पर  ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय अतिश्रेष्ठ वैश्य श्रेष्ठ कहलाते हैं शूद्रों में भी पाया जाता है  न्यूनाधिक मात्रा में और किसी को शूद्र तथा किसी को महाशूद्र बना देता है श्रेष्ठाणु। आगे पढ़ें
छीनना चाहते हो  समस्त संसाधन मान-सम्मान और अधिकार बनाना चाहते हो एक बार फिर अपने पैरों की जूती।    डर है तुम्हें फिर ना पैदा हो चुनौती दे सकने वाला कोई शंबूक कोई एकलव्य कबीर और रैदास अम्बेडकर और बिरसा डर लगता है तुम्हें पेरियार और फूले से भी।   इसलिए लाना चाहते हो तुम फिर एक बार  रामराज्य किंतु  कैसे भूल गए तुम हमारी संस्कृति के रक्षक महाप्रतापी और बलशाली महिषासुर और  हिरण्याकश्यपु को जिन्हें हर वर्ष मार कर भी नहीं मार पाते तुम अरे मूर्खो! जिन्हें मार नहीं पाया तुम्हारा भगवान भी उन्हें तुम क्या मारोगे? हम समझते हैं अब तुम्हारे सब छल-कपट नहीं चाहिए  तुम्हारा रामराज्य इसलिए सुझाव मानो देश को संविधान से चलने दो रामराज्य को  रामायण में ही रहने दो। आगे पढ़ें
वह मैं ही था जिसने सौंप दिया अपना राज-पाट जंगल और ज़मीन तुम्हारे माँगने पर तीन पग में जानते हुए भी तुम्हारा छल-कपट।   वह मैं ही था छीन लिया जिसका जीवन तुमने  मात्र इसलिए कि भूलकर अपनी शूद्रता बन बैठा था मैं वेद-पुराणों का ज्ञाता तुम्हारे समकक्ष।   वह मैं ही था, जिसे नहीं दी गई शिक्षा तुम्हारे द्वारा किन्तु  तनिक लज्जा नहीं आई तुम्हें माँगते हुए गुरुदक्षिणा की भीख और हँसते हुए दिया मैंने अपना अँगूठा।    वह मैं ही था जिसे मजबूर किया तुमने नीच कर्म करने पर किंतु मैंने सिखाई तुम्हें निर्गुण भक्ति समृद्ध किया तुम्हारा साहित्य।    वह मैं ही था  जिसे नहीं दिया तुमने ज्ञान का अधिकार कभी बैठने नहीं दिया विद्यालय में हाथ नहीं लगाया कभी मेरी पुस्तकों को फिर भी ज्ञानार्जन कर अपने बल पर मैंने दिया तुम्हें संविधान।    वह मैं ही हूँ भोग करते रहे तुम जिसके श्रम… आगे पढ़ें
मेरा रंग रूप नैन नक़्श  बल, बुद्धि और प्रकृति  थोड़ी बहुत भिन्न हो सकते हैं  परन्तु फिर भी मैं हूँ तुम्हारे जैसा यहाँ तक कि दुनिया में तुम्हारी ही तरह आता और जाता हूँ फिर कैसे  मैं हिन्दू तुम मुसलमां मैं सिक्ख और तुम ईसाई?   मेरे जैसे होने के बाद भी तुमने नहीं छोड़ा मेरे लिए  कुछ भी समस्त संसाधनों पर  करके अपना अधिकार आज तुम पूँजीपति और मैं निर्धन मेरे हिस्से को खाकर मेरे ऊपर ही अत्याचार करते हुए क्या तुम्हें थोड़ी भी शर्म नहीं आती?   तुम्हारे जैसा ही रक्त  बह रहा है मेरी धमनियों में फिर भी  घोषित कर रखा है देवता तुमने अपने आपको और मुझमें तुम्हें मानव भी दिखता नहीं एक ख़ून सनी योनि से बाहर आकर भी तुम कैसे सर्वश्रेष्ठ और मैं नीच तुम ब्राह्मण देवता और मैं दलित-शूद्र?   मैं जन्म देती हूँ तुम्हें फिर भी तुम्हारे समकक्ष नहीं कभी… आगे पढ़ें
सुना है मैंने   वो करता है पैदा मुझे  अपने पैरों से क्योंकि उसका मस्तिष्क  काम नहीं करता उसकी छाती  कर देती है मना फटने से सिकुड़ जाती है नसें  नाभि मार्ग की जननेन्द्रियाँ हो जाती है अवरुद्ध।    चलो पैरों से ही सही पैदा तो उसने ही किया था ना? फिर सुध क्यों नहीं ली कभी मेरी फेंक दिया क्यों मुझे किसी निरीह की भाँति भूखे भेड़ियों मांस नोचने वाले गिद्धों आवारा साँड़ों और नरपिशाचों के बीच जब मन हुआ इन भेड़ियों ने किया मेरा शिकार मेरा मांस नोच-नोच कर भरी इन गिद्धों ने ऊँची-ऊँची उड़ानें मार-मार कर सींग हटाया मुझे अपने रास्ते से इन आवारा साँड़ों ने पी कर मेरा लहू  लाल हुए गाल इन नर पिशाचों के और मैं तड़प-तड़प कर पुकारता रहा उसे क्योंकि सुना था मैंने दौड़ा चला आता है वो दीन-हीनों की पुकार पर फिर मेरी पुकार पर कभी  क्यों नहीं आया… आगे पढ़ें
कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती  उससे भी टेढ़ी सनातन धर्म  और उसकी सड़ी-गली व्यवस्था है  जिसे अपनाने के लिए सदियों से  तिरस्कृत समाज व्याकुल है  गर्त में मिलाने वाला यह धर्म  जादुई छड़ी से लोगों को दिशा भ्रमित कर  पूजा पाठ में लीन कर रहा है  पहले तो नफ़रत ऐसी की  कि विकास और सभ्यता से दूर  अलग बस्तियाँ बनाई  उस में कीड़े मकोड़े सा बिलबिलाता रहा दलित  शिक्षा के बल पर उस गली से बाहर निकला  तो जादुई छड़ी उसके सिर पर ऐसी घूमी  कि अपना रास्ता ही भूल गया  और मूर्खो, तुम्हें पूजना है  तो बुद्ध, ज्योतिबा फुले   बाबा अंबेडकर और कबीर को पूजो  जिन्होंने तुम्हारी आँखों में रोशनी डाली है। आगे पढ़ें
तुम कहाँ हो  वह देखो छप्पर पर बहा जा रहा आदमी  दूसरे छप्पर पर साँप बिच्छू  गाँव पूरा उजाड़ हो गया बाढ़ में  मेरा खेत मेरी किताब  मेरी माँ की कुर्ती कहाँ है  ओखल जिस में धान कूटती थी माँ  कितना भारी है  वह भी बाहर जा रहा है  मैं टुकुर-टुकुर ताकती हूँ  पूरा सन्नाटा पसर गया है  बाढ़ से कई गाँव बाढ़ में  विलीन है अब कहाँ है काला गोरा पवन सूत इसमें  सभी एक इसमें सभी एक हो गए हैं आगे पढ़ें
वर्ण व्यवस्था के पृष्ठपोषक हैं द्युपितर1  श्रमिक हैं प्रमथ्यु2 यहाँ  युगों से अंधविश्वास, अशिक्षा और सुरक्षा के बीच  हम प्रमथ्यु को भूलते देखते रहे  उफ़ तक नहीं किया  अब प्रमथ्यु जाग गया है  जाग गई है मानवता  लोग पोंगा स्वर में अलापते हैं  पहले ही अच्छी थी व्यवस्था  पहले जो द्युपितर कहता था  लोग सहर्ष स्वीकारते थे  अब प्रमथ्यु जन-जन को जगा रहा है  जगा रहा है सोए क़बीले को  मुसहर, डोम, ढाढ़ी को  युगों से सफ़ेद स्वच्छ कपड़े  द्युपितर के अलावा हम नहीं पहन सकते थे  नहीं रह सकते थे अच्छे मकान में नहीं खा सकते थे  अच्छा, स्वादिष्ट, स्वच्छ, ताज़ा भोजन  अब सब कुछ नकारने के लिए  प्रमथ्यु जाग रहा है, जाग रहा है। 1. मिथकीय मनुवादी सवर्ण राजा 2. मिथकीय दलित श्रमिक, आगे पढ़ें
दूसरे का घर बनाने में  अपना ही घर नेस्तनाबूत कर देना कितना बेमानी है सच को सच नहीं कह  झूठ को चूमना है कसैले फल जैसा फल के कसैलेपन से  पिच सा थूक फेंकना  मगर फेंकते नहीं घोट लेते हैं  यही झूठ की मूठ से  पूरा घर मटमैला हुआ पड़ा है।   मैंने कई बार अपने अंतर्मन को  दबाकर  बिना दीवारों के घर को  घर बनाया है  सजाया है  लोगों को दिखाया है  अपना मन  मगर, विचित्र साथ है  अनमेल भाव का  बिना खेल का खेले ही हमसे  हमारे घर को  मिस1 देती भावना  भला इतिहास क्या माफ़ कर देगा  नहीं! नहीं!  मैं भीतर की घुटन को  लीलता हूँ  सूँघता हूँ अपने घर को  ताकि लोगों को लगे  मैंने घर की मटमैली दीवार को  ओढ़ लिया है  और ओढ़ता ही रहता हूँ हर क्षण  यद्यपि कई दाग़ हैं उनपर  बल्कि दाग़ ही दाग़ हैं  फिर भी अपना घर… आगे पढ़ें
इतिहास बदलने की बातें कर  कितनी बाह्य ख़ुशी मनाओ  भीतर के घाव को दबाओ  इतिहास ऐसे नहीं बदलता मेरे दोस्त  छल से बातें बना कर  इतिहास बदलने की बातें बेमानी है  भीतर में ज़हर है  बाहर निर्मल पानी है  मनुष्य में जन्म लेने की सार्थकता  तुमने जानी है?   इतिहास बदलते हैं  बेचारे परिश्रम कर श्रमिक लोग कभी भी समय का नहीं करते दुरुपयोग  समय के तक़ाज़े को महसूसते हैं  लोहा, हीरा, कोयला, चाँदी, अभ्रक कल कारखाने में  बोते हैं श्रम के बीज  इतिहास बदलते हैं  देश विदेश में जाता है उनका श्रम  श्रम का फल वे नहीं जानते कल छल बल  वे समय को पहचानते हैं  अपनी सीमा को शक्ति भर  इतिहास बनाते हैं  इतिहास उन्हें नहीं भूल सकता  क्यों श्रम से सींचा गया  सुस्वादु इतिहास अच्छा होता है  मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की संस्कृति  इसीलिए थाती है  वहाँ श्रम-श्रमिक की दीया बाती है। आगे पढ़ें
पथरीली चट्टान पर हथौड़े की चोट  चिंगारी को जन्म देती है  जो जब तब आग बन जाती है  आग में तप कर लोहा नर्म पड़ जाता है  ढल जाता है  मन चाहे आकार में  हथौड़े की चोट से  एक तुम हो  जिस पर  किसी चोट का असर नहीं होता। आगे पढ़ें
शिखरों पर चढ़ने की लालसा  पैर फिसलने से नीचे खिसक आती है  अदम्य उत्साह  बुलंद हौसला  मैं सरपट दौड़ना चाहता हूँ  पहाड़ की चोटियों पर  दुख, पीड़ा, दर्द, यंत्रणा, यातना  मेरे सहयोगी हैं  सच कहता हूँ सहयोगी हैं  आज इतनी दूरी पर हूँ  तुम देख रहे हो  यही सहयोगियों की कृपा से  यातना की रपटीली आग  मुझे धू धू जलाती रही है  मैं रपटीली आग में भी  ठंड महसूस करता हूँ  आओ तुम भी साथ मेरे  नहीं आओगे तो  देखो उजली आग अब मत सोओ  खुल रहा राग। आगे पढ़ें
दुख और पीड़ा के अग्नि स्नान के बाद  गीले अनुभवों की तौलिया लिए पोंछता हूँ मानस पटल कंकड़नुमा चुभन  रेत भरे घाव टीसते हैं हाय! अपनी विवशता घिसती है कोई भी क्षण अंदर में आ कर फुंफकार दे  कोई भी क्षण। आगे पढ़ें
“शम्बूक मारा गया। उसकी हत्या हो गई। अपने समय की सर्वोच्च सत्ता से वो टकरा गया था।“ अख़बार वाला सड़कों पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला चिल्लाकर अख़बार बेच रहा था। सहमी हुई आँखें, उफनती हुई साँसें, मुस्कुराते होंठ और फुसफुसाती आवाज़ें विभिन्न दिशाओं से आकर उन अख़बारों पर टूट पड़ी थीं। शम्बूक कब गया सर्वोच्च सत्ता को चुनौती देने? वह तो गया था... कार्ल सगान सा विज्ञान लेखक बनने। प्रकृति, सागर, धरती और आकाश से प्रेम करने, पता नहीं कब वह सागर की गहराई और आकाश की ऊँचाई नापता धरती पर आ पहुँचा और... और फिर उसे इंसानों से प्रेम हो गया। “इंसानों से प्रेम करना कोई अपराध तो नहीं।” उफनती हुई साँसों ने हवा में मुट्ठी हिलाते हुए कहा।   इंसान होकर इंसान से प्रेम करना, यह गुनाह ही तो है। केवल भगवान होकर ही इंसानों से प्रेम किया जा सकता है उनपर दया की जा सकती है… आगे पढ़ें
आज़ाद लबों से डर है उनको खुले ख़्यालों से डर है उनको रीत बदलने से डर है उनको बन्द दिमाग़ों से नहीं खुली किताबों से डर है उनको झुकी सहमीं नज़रें वो चाहते उठती नज़रों से डर है उनको सवालिया ज़ुबान से डर है उनको बस पोथी पतरे वो चाहते सोच समझ से डर है उनको बस रटा रटाया उगल दो उड़ता परिन्दा दौड़ता घोड़ा वो नहीं चाहते पिंजरे और कनटाप वो बेचते सेवा में बन गलीचा बिछ जाये ऐसी औरत उन्हें चाहिये जिसे रौंद उनमें ओज जगे बात काटने कहने वाली दृढ़ औरत से डर है उनको नये दौर से डर है उनको जनता नहीं वो प्रजा चाहते साधक नहीं वो भक्त चाहते मनुष्य नहीं वो जीव चाहते वो सवालों से डरते हैं शब्दकोश से विस्म्यादिबोधक व प्रश्नचिन्हों को हटा देना चाहते हैं भाषा के ज़िन्दापन से शब्दों की मारकता से डर है उनको जारी कर रहे… आगे पढ़ें
यूँ तो दोस्त सहेलियाँ घर कुनबे गाँव के सदा निशाने पर रहते आए हैं बिगाड़ने वाले  दिमाग़ ख़राब करने वाले माने जाते रहे हैं मगर प्रेम में घर से भागी लड़की की सहेली होना जैसे तलवार पर चलना जैसे तीर की नोक दिल के पार गाँव भर की नज़रों में जैसे तोप के मुँह पर अड़ा होना तमाम नैतिकताओं  मर्यादाओं रिवाज़ों के लिये ज़िम्मेदार होना और खोजा जाना अंग अंग में सुराग़ भेद राज़ मार मुलक के अते पते दब जाना सवालों तोहमतों हिदायतों के तले सबसे मुश्किल काम है प्रेम में घर से भागी लड़की की सहेली या दोस्त होना आगे पढ़ें
नदियों का देश हमारा सर्वाधिक बरसात का भी यूँ बाढ़ भी आई ही रहती है मगर औरतें रात भर जागती हैं मीलों चलती हैं  गहरे कुओं में उतरती हैं टैंकरों पर  जान की बाज़ी लगाती हैं  पानी के लिये... पानी मर गया है संसद की आँखों का आगे पढ़ें
सुख-दुख हर्ष विषाद  न्याय अन्याय वाद-विवाद। विचार संवेदना। सहते सब हैं, कहते सब हैं,  दर्द अपना-अपना, कितने हैं जो औरों का दर्द,   अपना बना कर रचते हैं?  अपना बनकर लिखते हैं? सब संघर्ष सब द्वन्द्व,  लिखते कहते जी गए प्रेमचंद! दुखियों के साथी को कम हैं,     हज़ार लाख शब्द! हम जियें आजकल, परसों,  या दिन और चंद! भूख और मेहनत है जब तक,  जगत में रहेंगे प्रेमचंद! रहेंगे प्रेमचंद आगे पढ़ें
सोसाइटी में मरम्मत कार्य चल रहा है  मिस्त्री मजदूर आ गए हैं  लग्ज़री कार से आया ठेकेदार आदेश दे रहा है    मसाला तैयार है  पैड भी बँध चुकी है थर्ड फोर्थ फ़्लोर की  जर्जर किनारियों को छूते तीस चालीस फुट के बाँसों से बनाई गई है पैड   मटमैले धूसर सूखे  बूढ़ी रीढ़ से टेढ़े मेढ़े बाँसों में  एक बाँस ताजा हरा कच्चा है सीधा तन कर खड़ा दृढ़  जैसे बाँस का अलवाया बच्चा है    ऊपर से क़लमदार कटा है जैसे आसमान छू लेता  नीचे मोटी गाँठें  झाँक रही हैं जड़ें जहाँ से अभी तो इसको और विकसना था जवान होकर बाँस-वन -बन घास वंश का नाम रोशन करना था    जाने बाँसों के किस हरे-भरे झुरमुट से  उखाड़ काटकर लाया गया है बालक सा काम पर  डाँटकर लगाया गया है  मगर काम पर लगा हुआ है हम सोए थे निंदड़क जब  यह मुस्तैदी से जगा… आगे पढ़ें
जनेऊ-तोड़ लेखक   लेखक महोदय बामन हैं और हो गये हैं बहत्तर के विप्र कुल में जन्म लेने में कोई कुसूर नहीं है उनका वे ख़ुद कहते हैं और हम भी लेखक ने अपने विप्रपना को इस बड़ी उम्र में आकर धोने की एक बड़ी कर्रवाई की है तोड़ दिया है अपने जनेऊ को और पोंछ डाला है अपने द्विजपन को अपने लेखे कहिये कि जग के लेखे  बल्कि जग के लेखे ही बावजूद लोग उन्हें मान बख़्शते हैं सतत विप्र का ही सतत घटती इस घटना में भी  उनका क्या रोल वे किसको किसको कहाँ कहाँ  अपने जनेऊ तोड़ लेने का वास्ता देते फिरे   हर एक्सक्ल्यूसिव सवर्ण मंच पर बदस्तूर अब भी मिल रहा है उन्हें बुलावा और उनके जनेऊ-तोड़  डी-कास्ट होने के करतब को रखते हैं ठेंगे पर सब अपने पराये सवर्ण-मान पर ही रखकर उन्हें हर हमेशा वे गुरेज़ करें भी तो करें कैसे… आगे पढ़ें
बहुत चली मुहब्बत की बातें उनकी ओर से  नफ़रतें उगाते रहे ज़मीं पर जबकि  वे भीतर बाहर लगातार   नफ़रतें पालीं उन ने एकतरफ़ा हमारी तो पहुँच ही नहीं रही उन तक कि उनके प्रति हम नफ़रत रखें अथवा प्रेम सब कुछ तय होता रहा उनकी तरफ़ से हमारी ओर से कुछ भी नहीं तो!  वे ही जज रहे हमारे मुजरिम भी जबकि वे ही हममें नफ़रत करने का माद्दा कहाँ हम तो बस, कर्तव्य भर  उनकी नफ़रतों के जवाब पर होते हैं!   अंग्रेज़ी अनुवाद में 'कर्तव्य भर नफरत' : Just a duty-bound Hatred (Translated by Mridula Nath Chakraborty)  Ran the gamut of love talk from their side Even as they kept sowing hatred in the soil Inside Outside Ceaseless They nurtured hatreds one-sidedly We could not reach them one bit Whether we extend love towards them or hate? It was all always already decided by them… आगे पढ़ें
कहते हो – बदल रहा है गाँव। तो बतलाओ तो – गाँवों में बदला कितना वर्ण-दबंग? कौन सुख-अघाया, कौन सामंत? कौन बलवाई, कौन बलवंत?   सेहत पाया पा हरियाया कौन हाशिया?  कौन हलंत? आगे पढ़ें
मैं गह्वर में उतरना चाहता हूँ  ब्राह्मणवाद की गहराई नापने  पाना चाहता हूँ उसकी विष-नाभि का पता  और तोड़ना चाहता हूँ  उसकी घृणा के आँत के मनु-दाँत तुम साथ हो तो सुझाओ मुझे  लक्ष्य संधान के सर्वोत्तम उपाय  बताओ क्या क्या हो  प्रत्याक्रमण में सुरक्षा के सरंजाम  लखाओ मुझे वह दृष्टि कि  गुप्त-सुप्त ब्रह्म-बिछुओं की शिनाख़्त कर सकूँ मेरा हाथ पूरते कोई मुझे अनंत डोर दो  जिसके नाप सकूँ नाथ सकूँ  इस शैतान की अंतहीन आँत को  बाँधो मेरी अंटी में अक्षय रेडीमेड ड्यूरेबल खाना दाना  दो ऐसी तेज़ शफ़्फ़ाफ़ रोशनी वाली टॉर्च मुझे  तहक़ीक़ात काल के अंत तलक निभा सके जो  मेरे अनथक अनंत हौसले का अविकल साथ! आगे पढ़ें
सुनो द्रोणाचार्य!   अब लदने को हैं दिन तुम्हारे छल के  बल के  छल बल के   लंगड़ा ही सही लोकतंत्र आ गया है अब जिसमें एकलव्यों के लिए भी पर्याप्त ‘स्पेस’ होगा  मिल सकेगा अब जैसा को तैसा अँगूठा के बदले अँगूठा और हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का न कदापि अब आसान होगा    तब के दैव राज में पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा  था छल स्वार्थ सना तुम्हरा गुरु धर्म पर अब गया लद दिन-दहाड़े हक़मारी का  वो पुरा ख़्याल वो पुराना ज़माना    अब के लोकतंत्र में तर्कयुग में उघड़ रहा है तेरा छलत्कारों हत्कर्मों हरमज़दगियों का  वो कच्चा चिट्ठा जो साफ़ शफ़्फ़ाफ़ बेदाग़ बनकर अब तक अक्षुण्ण खड़ा था  तुम्हारे द्वारा सताए गयों के अधिकार अचेतन होने की बावत   डरो चेतो या कुछ करो द्रोण कि बाबा साहेब के सूत्र संदेश- पढ़ो संगठित बनो संघर्ष… आगे पढ़ें
बहुत अर्से पहले प्राइमरी कक्षा में मैंने लाइब्रेरी से ली हुई किताब गुमा दी फिर टीचर को डरते डरते बताया उन्होंने कहा, 'अब तुमको ही लाइब्रेरी में बंद कर दूँगी' मैं सोचती रही कैसी लगूँगी अलमारी में बंदी होकर सब खुली हवा में मुझे देखा करेंगे  और मैं बन्द पसीजी रहूँगी भीतर उमस से तब कहाँ जानती थी बंदी जीवन का इतिहास जहाँ गहरे साँस लेने पर भी साँस ठहरा दी जाती थी  और वर्तमान से भी कोई साबका नहीं था तब तो, साँसें अब भी नियंत्रित हैं, जल्द ही ज्ञात हुआ मुझको।   घर मे कॉमिक्स पढ़ने की मनाही थी सो मैंने संगी साथियों से माँग कर कभी छीन कर, छुप-छुप कर पढ़ीं चाचा चौधरी, मोटू पतलू की हरकतें तेनाली रामा और बीरबल के क़िस्से,   एक दिन घर में हाथ लग गई बुद्धचरित  जिसको पढ़ कर मन करुणा से भर गया मगर यशोधरा कहीं नहीं थी… आगे पढ़ें
स्त्रियाँ उलझनों में अपना सवेरा बुन रही हैं रुलाई की सिलाइयों को मज़बूती से पकड़े हुए चढ़ाती हैं संघर्ष के फन्दों को बड़ी तैयारी से  नाउम्मीदी के दौर में भी डालती हैं  उम्मीदों से भरा एक नया डिज़ाइन उनकी उँगलियों  पर कितने ही घाव हैं दुखते हाथों से वो कोई सपना बुन रही हैं पहनाकर किसी को तैयार स्वेटर  वो किसी का जाड़ा चुन रही हैं वो ख़ुश होती हैं देकर नींद  सुबह का उजाला बुन रही हैं।   उनके चारों तरफ़ गहराने लगी है रात  वो भरी आँखों से कोई आस बुन रही हैं आग पर पका रही हैं आदिम भूख वो डाल रही हैं उफनते दूध से पौरुष पर अपने सपनों का पानी चक्की में पीस देना चाहती हैं दुख सुख के आटे की रोटियाँ बेल रही हैं वो प्यासी ही कोसों चलकर ला रही हैं पानी और पानी है कि रिस रहा है उनके पैरों के… आगे पढ़ें
तुम मारी नहीं जा सकीं फूलन हत्यारों की तमाम कोशिशों के बावजूद   चंबल के उबड़ खाबड़ पठारों से लेकर  कठुआ के हरे भरे पहाड़ों तक मणिपुर के सघन गहन वनों से लेकर  मरूभूमि के तपते गाँव भटेरी तक असमानता की उर्वर भूमि खैरलांजी से लेकर  धान के कटोरे छत्तीसगढ़ तक तुम जीवित हो हर स्त्री के सम्मान में।   तुम्हारे मान-मर्दन की तमाम कोशिशों के बावजूद वह अट्टहासी क्रूर हिंसा तुम्हें तोड़ नहीं पाई तुम टूट भी नहीं सकती थीं फूलन तुमने जान लिया था स्त्री जीवन के डर का सच जान लिया था कि स्त्री का मान योनि में नहीं बसता वह बसता है स्त्री के जीवित रहने की उत्कट इच्छा में यह जान लेना ही तुम्हारा साहस था जिसे तुमने नहीं छोड़ा जीवन की आख़िरी साँस तक।   तुम एक भभके की तरह उठीं जंगलों की बीहड़ता को चीरती हुई भुरभुरे ढूहों को गिराती हुई तुम एक बवंडर की… आगे पढ़ें
एक स्त्री लगातार चल रही है,   अपने हिस्से की ज़मीन तलाशती बीहड़ के बीच ढूँढ़ते हुए पानी के स्रोत, रेत से पानी निचोड़ती समुद्र में मछलियाँ बचाती जोहड़ में घोंघे छोड़ती  रास्तों और जंगलों के बियाबान में जलावन चुनती आग को बचाने की जद्दोजेहद में लगातार जल रही है। एक स्त्री लगातार चल रही है   इतिहास और भविष्य के बीच होते हुए उसकी कमर पुल बनाते लगातार झुक रही है वो एक हाथ से बच्चों को थामे दूसरे से लगातार श्रम कर रही है, समय के चाक पर लगातार प्रहार करती दोनों पाटों पर अंकित हो रही है और पत्थरों के बीच आटे सी झर रही है।   एक स्त्री लगातार चल रही है   समय के दिए कितने ही खुदने शरीर पर लिए सभ्यता के खंडहरों को उलाँघती नदी सी एक स्त्री लगातार यात्रा कर रही है उसके मन में अब नहीं रही कोई गाँठ उसने खोल दी हैं गिरहें… आगे पढ़ें
माँ ने बड़े मन से मँगवाई थी खुर्जा से एक बड़ी और मज़बूत चूड़ीदार ढक्कन वाली बरनी जिसमें डाला करती थी वो ख़ूब सारा आम का अचार जबकि ख़ुद उसे पसन्द नहीं थीं खटास वाली चीज़ें खट्टा चूख कहते ही उसके दाँत खटास से भर जाते थे खट्टी छाछ तक नहीं पीती थी माँ तो खट्टी कढ़ी तो बन ही नहीं सकती थी क़लमी आमों की बनाती थी मीठी चटनी और आमों की हल्की खट्टी-मीठी रसेदार सब्ज़ी जिसमें रहता था सौंफ का सौंधियाता ज़ायका  जिसकी मिठियाती गुठली को ख़ूब देर तक चूसती रहती थी जैसे बूँद बूँद रस समेट लेना चाहती हो अपने भीतर।   आम के अचार के लिए आम आते दाब से कटते, मींग अलग, फाँक अलग फाँकों में लगता नमक रात भर  चारपाई पर बिछी चादर पर दिन की उजली धूप में  एक एक फाँक को पलट पलट कर धूप से भर दिया जाता  जैसे… आगे पढ़ें
1. बुद्ध अगर तुम औरत होते तो इतना आसान नहीं होता गृहत्याग शाम के ढलते ही तुम्हें हो जाना पड़ता नज़रबंद अपने ही घर और अपने ही भीतर हज़ारों की अवांछित नज़रों से बचने के लिए, और वैसे भी माँ होते अगर तुम   राहुल का मासूम चेहरा तुम्हें रोक लेता तुम्हारे स्तनों से चुआने लगता दूध फिर कैसे कर पाते तुम   पार कोई भी वीथी समाज की। 2. घने जंगलों में प्रवेश करने और तपस्या में तुम्हारे बैठने से पहले ही शीलवान तुम्हें देखते ही स्खलित होने लगते जंगली पशुओं से ज़्यादा सभ्यों से भय खाते तुम ब्राह्मण तुम्हारी ही योनि में करते अनुष्ठान और क्षत्रिय शस्त्रास्त्र को भी वहीं मिलता स्थान वैश्यों ने पण्य की तरह बेच कर बना दिया होता वेश्या तुम्हें और और ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है मुझे कि शूद्रों का भी होते तुम आसान शिकार औरत के मामले में… आगे पढ़ें
तुम्हारे कोट को छुआ तो यूँ लगा कि जैसे तुम हो उसके भीतर उसके रोम- रोम में समाये तुम्हारी ही गंध व्यापी थी उसमें जो उसे छूते ही समा गई मुझमें यूँ लगा कि जैसे तुमने छुआ हो मुझे अचानक कहीं से आकर।   मैं तो समझी थी कि तुम भूल गए हो मुझको दिखा जब अंदर की जेब में लगा हरा पेन एक मीठा सा अहसास हुआ ये वही हरा पेन था जो लिया था तुमने पहले मुझसे कभी   मगर अब वो पेन महज़ पेन नहीं था वहाँ उग आया था एक हरा पत्ता जो सीधे तुम्हारे दिल से जाके जुड़ता था तुम्हारा दिल अभी भी मुझसे जुड़ा है मैं अब भी हरे पत्ते सी हरियाती हूँ तुम्हारे मन में ये जानकर अच्छा लगा।   ये जानकर अच्छा लगा कि तुमने लगा के रखा है मुझको अभी भी सीने से मैं अब भी वहाँ बसती हूँ… आगे पढ़ें
तुम कविता पर होकर सवार लिखते हो कविता और हमारी कविता रोटी बनाते समय जल जाती है अक़्सर कपड़े धोते हुए  पानी में बह जाती है कितनी ही बार   झाड़ू लगाते हुए साफ़ हो जाती है मन से पौंछा लगाते हुए गँदले पानी में निचुड़ जाती है   साफ़ करते हुए घर के जाले कहीं उलझ जाती है अपने ही भीतर और जाले बना लेती है अनगिनत धूल झाड़ते हुए दीवार से सूखी पपड़ी सी उतर जाती है टॉवल टाँगते समय टँग जाती है खूँटी पर   सूई में धागा पिरोते-पिरोते हो जाती है आँख से ओझल   छेद- छेद हो जाती है तुम्हारी कमीज़ में बटन टाँकते बच्चों की चिल्ल-पों में खो जाती है मिट्टी हो जाती है गमलों में खाद देते हुए खाद   घर-बाहर सँभालते सहेजते तुम्हारे दंभ में दब जाती है और निकलती है किसी आह सी जैसे घरों की चिमनियों से निकलता… आगे पढ़ें
कुशल गृहणी  ताउम्र जोड़ती है  एक-एक पाई  गाँव की महिलाओं या पुरुषों द्वारा  चलाई जाने वाली  कमेटी सोसायटी में डालती है पैसा जोड़ तोड़ कर! संकट की घड़ी में  काम आ सके  उसकी छोटी-सी बचत    यह मड़ी-सी पूँजी  उसका आधार होती  जिससे वह घर बनाने के  सपने भी देखती... बच्चों का भविष्य  और हारी-बीमारी में  काम आने वाला साधन भी..    दूसरों के सामने  हाथ फैलाए...  उससे बढ़िया  अपना देखकर ख़र्चा करें! अपने पुराने कपड़ों को काँट छाँट कर बना देती थी बेटियों के लायक़.. गृहणी कुशल थी  इसलिए मेहनत और  उसकी क़ीमत को  बख़ूबी समझती थी...    पति की आदतों से परेशान,  कुशल ग्रहणी...  बेटा शायद समझे माँ को  उसकी मेहनत को  पिता की लत से  पूरा घर परेशान,  रात भर का जागना,  रोना- पीटना,  मारपीट से तंग सब  न तनखा का पता,  न ख़ुद का! बेटे को उम्मीद से  देखती माँ...  बड़ी दुवाओं, मन्नतों से,… आगे पढ़ें
मैं स्त्री, तुम पुरुष तुम लड़के, मैं लड़की मैं पत्नी, तुम पति ज़रा बताओ तो तुम्हारे और मेरे बीच केवल 'इंसान' होने का भाव मौजूद क्यों नहीं?   मोर मुझे 'मोर' से ज़्यादा चिड़िया, कोयल कव्वे और कबूतर भाते हैं। इन्हें आप कहीं भी कभी भी, चलते फिरते डाल सकते हैं, दाना। 'मोर 'अभिजात्य हैं और मैं साधारण। ना  मँहगी पोशाक ना मँहगा खाना। आगे पढ़ें
प्रसव नहीं था, रण था क्या जानो तुम, कितना मुश्किल क्षण था। नहीं समझ पाएँगे वो जो मखमल पर सोते हैं। कैसे ज़िंदा रहते हैं वे शिशु जो पैदा सड़कों पर होते हैं। भूख, धूप से झुलसी देह मीलों सड़कों पर चलती जाती है। नहीं फ़र्क पड़ता उनको जिनके जुमलों की दिन दिन बढ़ती ख्याति है। यूँ तो हर स्त्री का प्रसव ही रण होता है। पर हम जैसी मज़दूर स्त्रियों का जीवन ही 'मरण' होता है। आगे पढ़ें
सभ्यताएँ मिटती नहीं मिटाई जाती हैं। इतिहास मिटता नहीं मिटाता जाता है। जनता डरती नहीं डराई जाती है । गोली चलती नहीं चलाई जाती है। जागो! और पहचानो वो कौन है? जो सब कुछ जानकर भी मौन है।   माँएँ अक़्सर कहा करती हैं। पुरानी कहावतें, परियों के क़िस्से और उनमें बसी चुड़ैलों की कथाएँ। माँएँ भी तो कभी बेटियाँ ही थीं। जब मान लिया था उसने ख़ुशी-ख़ुशी कि औरतें होती हैं परी और चुड़ैल भी माँएँ सवाल नहीं करती थीं। अगर कर सकतीं ..तो पूछतीं! ज़रूर अपनी माँ या सास या फिर, उसकी सास से सुलगती भट्टी की चिंगारी को क्यो ढाँप देना चाहती हो राख से? आख़िर! आँच पर राख कब तक डलती रहेगी? कभी तो टूटेगा  बाँध सब्र का और परंपरा,समझौते की । आगे पढ़ें
वामन और बलि की गाथा सुनी आपने बारम्बार उसी कथा को ज़रा समझकर आज सुनाऊँ पहली बार।   बलि था राजा असुर क्षेत्र का महिमा जिसकी अपरम्पार  बलिराजा का बलि हृदय था प्रेम, अहिंसा का आगार।   जहाँ तलक था उसका शासन न्याय वहाँ तक होता था ख़ुशहाली थी चारों ओर दुखी न कोई शोषित था।   राज्य में उसके सभी नागरिक ऊँचे और सुजान थे जाँत-पाँत का नाम नहीं था सारे एक समान थे।   नाम उसी का गूँज रहा था दूर-दूर तक दिक्‌-दिगन्त उसकी दिव्य कीर्ति ऐसी कहीं नहीं था जिसका अंत।   उत्तर में था ब्राह्मण क्षेत्र ब्राह्मण थे जिसमें भगवान मगर बलि की बली पताका करती थी उनको हैरान।   चाहते थे झुक जाए दक्षिण हों ख़त्म सभी उसके गुण-मूल्य डूब जाए ये आदि सभ्यता रह जाए बस ख़ाली शून्य।   मूल्य सभी जो पनप रहे थे बलि के काम-काज से बिल्कुल मेल न… आगे पढ़ें
सदियों सदियों यही हुआ है मौन मुखर सबकुछ सहता हूँ आज भी प्रचलित यही प्रथा है दफ़्तर में दब कर रहता हूँ।   मुझसे ऊपर बैठा अफ़सर यत्न-प्रयत्न ही बाधा डालें आगे बढ़ने के अवसर पर मुझको सब के बाद पुकारें।   मेरे आगे बढ़ जाने से तुम कैसे पीछे हो जाओ बात समझ से परे है मेरी मुझको थोड़ा तुम बतलाओ।   जो भी लाभ हमें मिलता है आधा तो तुम खा जाते हो बचा कुछा जो मिलता है तो ताने देने लग जाते हो।   इंटरनेट की इस दुनिया में हमसे अब भी हेय धरे हो फ़ेसबुक और व्हाट्सप्प पर भी उलटे सीधे व्यंग्य कसे हो।   माना अब वो दौर नहीं हैं लेकिन फिर भी सत्य यही है बुद्धि अब भी विकृत कुंठित दिल में अब भी द्वेष वही है।   क्योंकि मैं अनुसूचित ठहरा! आगे पढ़ें
वह बहुत ख़ुश थी उसे यहाँ पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई थी। उत्साह से वह बताने लगी, जब थी पाँच की तभी से  दादा ही सुनाते थे मानस बिठाकर पास प्यार से। और जब हुई दस की तो नानी ने ही कह सुनाई कथा कामायनी की, एक-एक पन्ना बाँचकर बताया था माँ ने जब वह हुई पन्द्रह की पिता के घर अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं अलमारियों में किताबें ही किताबें जो पकड़कर हाथ बिठा लेती थी उसे अपने पास खेल ही खेल में  किताबों की सीढ़ियाँ बनाकर जब वह  चढ़ बैठी उन अलमारियों के ऊपर तो सरक गई छत आप ही आप घर के ऊपर एक दूसरा घर था एक घर से दूसरे घर में आते-आते वह पच्चीस की हो गई थी।  यहाँ भी किताबों से भरी अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं जिन्हें सीढ़ियों सी लाँघती वह अचानक मेरे सामने थी, हँसती- खिलखिलाती मासूस सी बतियाती “अरे यहाँ… आगे पढ़ें
गाँव में क़स्बे वही थे, पृथक स्कूल नये थे ठाकुर, पंडित के हम पर प्रभाव बड़े थे, उनकी घृणित अधिकार दृष्टि से झुलस कर उनके खेत में श्रम दे, भिक्षा भर खाते थे। मैं उन अनपढ़ आँखों का अक्षर बन अपने वर्ग के आत्मसम्मान के लिए सरकारी विद्यालय में तत्पर व आशान्वित ज्ञान का स्वप्न, पीयूष-पौध मन में लिए! शिक्षा-दीप हाथ में, मशाल मन में दौड़ से पहले चलना सीखना था, संस्कार में थीं, दासता की बेड़ियाँ सदियों का अदृश्य मूक भेद था। अध्यापक ने कक्षा में साथ दिया अवर्ण-सवर्ण का नया मेल दिखाया, मैं तुम्हारे पास ही बैठ, बंधु बना तुम संग, संशय अपना पिघलता पाया। मैं दीर्घ यात्रा का पूर्वाभास लेकर लिख रहा था नव-कथा धाराओं पर सौम्य, अडिग, बिना हताशा के धैर्य नदी बन कठोर चट्टानों पर! शिक्षा मुकुट शीश पर सजा एक दिन लगन, नगर तक ले चला नयी थी आबो-हवा, बहने लगा उचित,… आगे पढ़ें
प्रभु ने कहा- तुम नीच हो, अछूत हो, जन्मे हो, मेरे पैरों से; सबकी सेवा, तुम्हारा धर्म है। मैं तुम्हें दासत्व देता हूँ, सिर्फ़ कर्म होंगे तुम्हारे, तुम्हारे अधिकारों का भोग, कदाचित ऊँचे लोग करेंगे। प्रभु ने कहा- तुम्हारी परछाई भी अभिशाप है, तुम थूक नहीं सकते ज़मीन पर, तुम्हारी स्त्री ढँक नहीं सकती स्तन अपने, तुम्हारे पद चिह्न, अपवित्र करते धरती को, तुम्हारा कुँआ; पोखर, घाट भिन्न होंगे, तुम्हारे मार्ग और घर परे रहेंगे गाँवों से, तुम रहोगे अलग-थलग।  प्रभु ने कहा- तुम्हें वही करना है, जो मैंने निर्धारित किया, अपने-अपने कर्म में लगे रहो, किसी दूसरे के कर्मों का अतिक्रमण नहीं, जन्मजात कर्मों को त्यागने की अनुमति नहीं तुम्हें। प्रभु ने कहा- सेवा करो, उच्च तीन वर्णों की, उनकी आज्ञा को ढोना नियति है, वे स्वामी हैं तुम्हारे, उनके ज़मीन जोतो पालकी उठाओ, चरण रज पियो, यही धर्म हैं, तुम्हारे। प्रभु! आप इतने निष्ठुर नहीं हो… आगे पढ़ें