डॉ. शैलजा सक्सेना और श्री सुमन घई द्वारा संपादित कैनेडा के कवियों और कवयित्रियों का संकलन ‘सपनों का आकाश’ स्वागत योग्य है। यह संकलन एक सुखद आश्चर्य से भर देता है कि कैनेडा जैसे देश में, इतनी गुणवत्ता वाले, इतनी गहरी सोच रखने वाले, हिंदी में अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करने वाले इतनी बड़ी संख्या में मौजूद है। इन सभी कवियों, रचनाकारों का अभिनंदन है। इस सम्बन्ध में दोनों संपादकों और सह–संपादकों की कर्मठता भी प्रशंसायोग्य है जिन्होंने इतना श्रमसाध्य कार्य किया। लगभग 300 पृष्ठों की कविताओं की पुस्तक और इतने सारे कवि! एक तरीक़े से हिंदी साहित्य की दृष्टि से कैनेडा के कवि विश्व के अन्य देशों से आगे दिखाई देते हैं। संकलन के विस्तार से भ्रम होता है कि इस संकलन में शायद कुछ कविताएँ उतनी गुणवत्तापूर्ण न हों। परंतु कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कविता के इतिहास में एक नया अध्याय, एक नई परंपरा इस पुस्तक से डल रही है। इस पुस्तक के माध्यम से श्रेष्ठ रचनाकारों को अभिव्यक्ति का अवसर मिला है। इस पुस्तक से जुड़ी पूरी टीम का अभिनंदन।
इस संकलन में बहुत सी कविताएँ नॉस्टैल्जिया यानी स्मृति पर हैं! कई लोगों को इस पर आपत्ति होती है और वे कहते हैं शायद स्मृति एक ऐसा तत्व है जिस पर बहुत कविताएँ लिख देना इस बात का परिचायक है रचनाकार अपनी वर्तमान स्थितियों और चुनौतियों को समझ नहींं रहा। वह उससे दो-चार नहींं होना चाहता और उसकी कविताओं में नयी चुनौतियों की अभिव्यक्ति नहींं होती। बाल्यकाल या युवाकाल के समय में न केवल रचनाकार की भाषा का विकास होता है बल्कि उसके तर्क और तेवर उसी समय में विकसित होते हैं। उसको चीज़ों का परिप्रेक्ष्य भी उसी समय में समझ में आता है। चीज़ों की बारीक़ियाँ उसमें विकसित होने लगती हैं। जब भी कोई रचना करेगा उन स्मृतियों को, उन यादों को अवश्य याद करेगा जब उसकी दुनिया की समझ विकसित हुई थी। आप किसी भी अवस्था में रचना करें सबसे गहरे और दीर्घकालीन संस्कार उस समय के होते हैं जिस समय में आप युवावस्था में होते हैं। स्मृति की बात करते हैं तो हम देखते हैं रचनाकारों का 20-30 साल या उसके बाद भी भारत के क्षेत्र या क्षेत्र विशेष से सम्बन्ध बना हुआ है। वे चाहे कहीं भी रहते हो उनका मन वहीं रमा हुआ है, जहाँ से उसने उठान ली थी। भारत के संस्कार, त्यौहार, रीति रिवाज़ उसके चेतन, अवचेतन मन पर गहराई से प्रभाव डालते हैं। उसे क्रिसमस देखकर होली, दीपावली या विभिन्न त्यौहार याद आते हैं यह संस्कार उसकी कविताओं में विभिन्न रूपों से अभिव्यक्ति पाते हैं। एक प्रवासी मन से भारत को देखना, सुनना और अभिव्यक्त करना एक अलग क़िस्म की सुगंध देता है। ऐसी सुगंध से, सरोकार से भरी ऐसे नितांत निजी सुंदर और अभिव्यक्तिपूर्ण कविताओं के लिए कवियों और संपादक मंडल को पुनः बधाई।
इस पुस्तक में यह देखना बहुत रोचक है कि पुस्तक में केवल मुक्त छंद की कविताएँ नहीं हैं। इसमें गीत भी हैं, हिंदी ग़ज़ल भी हैं, हाइकु भी हैं, छंदबद्ध कविता भी है। यानी हिंदी कविता के विभिन्न छंदों का बहुत सशक्त इस्तेमाल इस पुस्तक में किया गया है। यह इस पुस्तक की शक्ति है। इस पुस्तक के रचनाकारों ने न केवल भाषा पर सामर्थ्य हासिल किया है बल्कि उन्होंने हिंदी साहित्य के विभिन्न छंदों पर भी अपना अधिकार बनाया। इससे संपूर्ण अभिव्यक्ति अत्यंत सहज, सरस और प्रभावी हो गई है।
मैं यहाँ हिंदी ग़ज़लों की चर्चा करना चाहूँगा। हिंदी ग़ज़लें भाषा पर गहरा अधिकार चाहती हैं। यह भी चाहती हैं कि रचनाकार का भाषा के साथ एक दीर्घकालीन संपर्क हो। यह स्थिति ज़्यादातर ग़ज़लों में दिखाई देता है। इसी प्रकार यह तथ्य बहुत आश्चर्य से भर देता है जब हम देखते हैं इस पुस्तक में बहुत बड़ी संख्या में हाइकु दिए गए हैं। वह न केवल शिल्प की दृष्टि से ठीक हैं, बल्कि सटीक भी हैं। उनकी अभिव्यक्ति भी उत्कृष्ट है। इतने सारे लोगों द्वारा हाइकु को लिखा जाना इस बात का परिचायक है की यह विधा हिंदी में स्वीकार और अंगीकार हो गई है और आने वाले समय में हिंदी ग़ज़ल की तरह ही बड़ी संख्या में हाइकु दिखाई देंगे। हाइकु के इतने उत्कृष्ट लेखन के लिए भी रचनाकारों को बधाई।
इस संकलन में जिन रचनाकारों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं उनकी शैक्षणिक योग्यता देख कर भी प्रसन्नता होती है। किसी रचनाकार की प्रौद्योगिकी की पृष्ठभूमि है, तो किसी की प्रबंध की है। बड़ी संख्या में लोगों ने अर्थशास्त्र या विधि में भी डिग्री हासिल की है। शायद कैनेडा में नौकरी पाने के लिए उस तरह की विशेषज्ञता आवश्यक भी है। इस तरह की विशेषज्ञता का एक लाभ यह होता है कि आपकी कविता विचार के स्तर पर बौनी नहींं होती बल्कि उसमें एक विजन होता है, एक दृष्टि होती है। वह न केवल अपने परिवेश का सही आकलन कर पाती है बल्कि वह अपने इतिहास को भी ठीक से देख पाती है। वह चीज़ों की तर्कसंगत व्याख्या करती हैं। वह विचारों को भावनाओं से जोड़ पाने में भी सक्षम होती है। उसकी भावुकता सतही नहींं होती। वह जयशंकर प्रसाद के उन पंक्तियों को ध्यान में रखती है: ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा कैसे पूरी हो मन की॥
उसने पश्चिमी देशों को, वहाँ की व्यवस्था को, वहाँ के व्यवस्था तंत्र की बारीक़ियों को ठीक से समझा है। उसका अपने इतिहास के प्रति कोई दुराग्रह नहींं है बल्कि वह एक समन्वय शैली की तरफ़ बढ़ती है और दुनिया के दो भागों का श्रेष्ठ लेकर रचना की ओर प्रवृत्त होती है। इतने विद्वान विशेषज्ञ, कैनेडा में कविता के रचनाकार इस संग्रह से जुड़े हुए हैं, यह बहुत प्रसन्नता की बात है।
क्या यह रचनाकार अपने परिवेश से जुड़े हुए नहींं हैं? क्या इनकी कविताएँ कैनेडा के जीवन का विश्लेषण प्रस्तुत नहींं करतीं? क्या इसमें कैनेडा की प्रकृति नहींं है? क्या इसमें वह तर्कसंगत दृष्टिकोण नहींं है जिसके लिए पश्चिम मशहूर है? इसका उत्तर ना में है।
इन कविताओं में कैनेडा का जीवन बड़ी ख़ूबी से दिखाई देगा। मैं सुमन जी की कविताएँ देखता हूँ जिसमें हिमपात केंद्र में है। भारत के कुछ क्षेत्रों को छोड़ दें तो पूरे देश में हिमपात जैसे बिंबों की कल्पना करना बड़ा कठिन है। उसी प्रकार कैनेडा के फूल भारतीयों को उसी तरह से आकर्षित करते हैं जैसे किसी भी स्थान पर रहने वाले कवि का अपने स्थान की प्रकृति से लगाव होता है। यहाँ की व्यवस्था में कुछ अच्छा दिखा और उन्हें ऐसा लगा कि काश यह व्यवस्था भारत में भी होती तो उन्होंने बड़ी सहजता के साथ और कभी-कभी व्यंग्य के साथ उस बात का उल्लेख किया है। इस दृष्टि से धर्मपाल महेंद्र जैन की लिखी कविताएँ ध्यान आकृष्ट करती हैं जिसमें लगता है किसी व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं से जुड़े बहुत से काम जहाँ कैनेडा में सामान्य रूप से हो जाते हैं वहीं भारत की ब्यूरोक्रेसी और तंत्र की कल्पना मात्र से व्यक्ति घबराता है। यह कविता न केवल दो व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करती है बल्कि रचनाकार की दृष्टि को भी प्रस्तुत करते हैं। शैलजा जी की कविताएँ न केवल कैनेडा के जीवन का मर्म बख़ूबी प्रस्तुत करती हैं और साथ ही तुलनात्मक संदर्भ प्रस्तुत करती हैं। ऐसा ही अन्य रचनाकारों की कविताओं के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। आइए इन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की प्रमुख पंक्तियों, रचना शैली, अभिव्यक्ति के प्रकार पर चर्चा करें:
जिसे ख़ुद आज तक देखा नहीं था
उसी मंज़िल का रस्ता हो गए हैं (पृ. 12, जहाँ में इक तमाशा हो गए हैं: अखिल भंडारी)
एक पत्ता शाख़ से गिरता हुआ इक
एक परिंदा आस्माँ छूता हुआ (पृ. 13, मुसाफ़िर राह से भटका हुआ: अखिल भंडारी
उदासी इस क़दर बढ़ने लगी थी
सिवा हँसने के कुछ चारा न था (पृ. 14, हुई मुद्दत कोई आया नहींं था: अखिल भंडारी)
अखिल भंडारी जी की कविताएँ एक नए परिवेश, नई स्थितियों और नई चुनौतियों से मुठभेड़ करती हैं। यह रचनाएँ सभ्यताओं के संकट की बात करती हैं। यह रचनात्मक मुठभेड़ केवल भौतिक जगत तक सीमित नहींं है बल्कि यह आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करती हैं और नई परिस्थितियों, उन से दो-चार होने के लिए स्वयं को संकल्पबद्ध करती हैं। नए समाज और नए लोगों के बीच यह कविताएँ एक रोचक द्वंद्व को प्रस्तुत करती हैं।
“टेक कर घुटने, झुका सर,
प्रेम का जो दान माँगे,
हो किसी का प्यार लेकिन,
प्यार वह मेरा नहींं है।” (पृ. 20, मेरा प्यार:अचला दीप्ति कुमार)
अचला दीप्ति कुमार की कविताएँ स्वाभिमान से ओतप्रोत हैं। वह प्रेम को नए तरीक़े से परिभाषित करती हैं। इस प्रेम में आत्मबोध जीवित रहता है। यह कविताएँ स्वाभिमान और प्रेम का संगम हैं। हृदय किसी का अनुकरण नहींं करता बल्कि स्वयं अपने अस्तित्व और अस्मिता की घोषणा करता है। वह बराबर के शर्तों पर ही सम्बन्ध बनाता है।
“पंख बन, परवाज़ बन
तू ज़िंदगी का ताज बन
सुन गुनगुना रही है जो ज़िंदगी
इस मौसीकी का साज़ बन।” (पृ. 33, पंख बन: अंबिका शर्मा)
अंबिका शर्मा की कविताएँ नए परिस्थितियों और प्रवेश के लिए स्वयं को तैयार करती हैं। वे जानती हैं कि नया ‘आज’ और प्रयत्न माँगता है। जीवन के इन चुनौतियों के लिए और संघर्ष करना पड़ेगा। स्वयं को तैयार करना पड़ेगा। यह एक आत्मालाप है जो प्रवासी स्वयं से करते हैं।
“जीवन में है मिला बहुत कुछ
इससे कब इंकार किया
जो भी पाया, जितना पाया
उससे मैंने प्यार किया॥
कुछ खट्टे, कुछ मीठे अनुभव
सानंद जिए मैंने इस पार
कभी नहींं सोचा क्या होगा
जब जाऊँगी, मैंं उस पार।” (पृ. 35, मेरा सर्वस्व:आशा बर्मन)
आशा बर्मन की कविताएँ कुछ नया पाने का प्रयत्न नहींं है अपितु जो मिला है, जो प्राप्त हुआ है उस को सँजोने, ग्रहण करने और एक आनंद के साथ जीवन को व्यतीत करने का सबक़ देती हैं। उनकी कविताएँ कहीं क्षणवादी तो लगती हैं परंतु उनमें एक फक्कड़पन है, फ़क़ीरी है और जो है उसे मस्ती के साथ जीने का उत्साह है।
“अब मैंं उस कोने वाले मकान में
नहींं रहती हूँ॥
जाने वाले फिर
कभी न आने के लिए चले गए॥
अब वहाँ कोई और रहता है।”(पृ. 40, वह कोने वाला मकान: इंदिरा वर्मा)
इंदिरा वर्मा की कविताओं में बदलते हुए समय को समझने और पकड़ने का प्रयास है। पीढ़ियों का द्वंद्व है। यह प्रयास जो घटित हो रहा है, उससे इतर क्या छूट गया है, क्या टूट गया है, क्या रह गया है? यह रचनाएँ उसकी भी तस्वीर दिखाती हैं।
“जो बेख़ुदी मेंं ख़ुदा को खोजे,
उस सूफ़ी की नज़्म होना चाहती हूँ
जो शब्दों में रहस्य को ढूँढ़े,
उसकी वो गहरी कविता होना चाहती हूँ
जो मौन की बेख़्याली के ख़्याल में
लीन हो जाए
उस बुद्ध का ध्यान होना चाहती हूँ।” (पृ49, हाँ, मैं अमृता हूँ: डॉ. कनिका वर्मा)
डॉक्टर कनिका अग्रवाल की कविताओं में स्वयं को बदलने और अपनी संभावनाओं को पाने का प्रयत्न है। यह कविताएँ कभी सूफ़ीवादी लगती हैं तो कभी रहस्यवादी परंतु इसका मूल स्वयं को जानने, समझने और गहरे जीवन से साक्षात्कार करने के लिए स्वयं को तैयार करने से है।
“मैं कलंक नहींं लगाऊँगी
“न ही कुछ बताऊँगी
कभी लौट कर भी न आऊँगी
लेकिन–आकाश तो मेरा है
कभी तो उड़ना चाहूँगी।” (पृ. 57, आसमान तो मेरा है: कुलदीप)
कुलदीप की कविताएँ भारत की एक प्रमुख समस्या दहेज़ प्रथा के विरोध में आवाज़ उठाती हैं। यह संवाद एक माँ और बेटी के बीच में है। बेटी की दुनिया सीमित कर दी गई है। उसे कह दिया गया है कि अब वे वापस लौट नहींं सकेगी। परंतु उसकी उड़ान की इच्छा में कमी नहींं है। वह घोषणा करती हैं कि आकाश तो मेरा है, मैं कभी तो उड़ना चाहूँगी। मानो वह एक संकल्प ले रही हो जिसमें नारी वर्ग के सभी सदस्य भागीदार हैं।
“चुहल मरा, भटकी अठखेली
गुमसुम एक अकेली
हँसता, खिलता जीवन में
बन गया एक पहेली,” (पृ. 64, तेरा जाना: कृष्णा वर्मा)
"तुमने मुझे
जब–जब नकारा
और सँवारा " (पृ. 69, हाइकु: कृष्णा वर्मा)
कृष्णा वर्मा की कविताएँ वर्तमान समय को समझने का एक प्रयास है। यह कविताएँ जानती है कि स्थितियाँ दुरूह हैं, कठिन हैं, चुनौतीपूर्ण हैं। परंतु इस कविता को विश्वास है और उसे यह अभिव्यक्त भी करती है कि जब भी मुझे नकारा जाएगा मैं दृढ़ से दृढ़तर हो जाऊँगी।
“वक़्त तो सिर्फ़ चलता है
बदलना तो इंसान को पड़ता है॥”
“ना बेबस होकर हालात से,
हमें सर झुकाने पड़ते
ना परदेस में बैठकर ऐसे
हमें दुख उठाने पड़ते” (पृ 75, वक़्त: डॉ. जगमोहन संघा)
“गीत ये निष्प्राण हैं
शब्द का केवल चयन
इस परायी भीड़ में अस्त्तित्व मेरा क्या हुआ
है अनेकों पर अकेला मैं भ़टकता ही रहा
आज कोई घर ने मेरा
न मेरा कोई वतन . . .
इस पराये देस में एक ढूँढ़ता हूँ मीत मैं
हृदय सारे शुष्क हैं उनमें कहाँ पर प्रीत है
फूल माँगे, शूल की मुझको
मिली केवल चुभन
गीत ये निष्प्राण है
शब्द का केवल चयन।” (पृ. 83, गीत ये निष्प्राण हैं: जगमोहन हूमर)
जगमोहन हूमर की कविताएँ एक प्रवासी के द्वंद्व को प्रस्तुत करती हैं। एक समय ऐसा होता है कि उसे लगता है कि मेरा कोई घर नहींं है। एक वह जो वह छोड़ आया, दूसरा वह जो उसका हो नहींं पा रहा है। इन देशों में प्रेम की तलाश करना, भावनाओं की तलाश करना और उस के माध्यम से गीतों की तलाश करना जैसे व्यर्थ है। यह गीत अपनी जड़ों को ढूँढ़ने का प्रयत्न सा लगता है।
“जब औ कैनेडा गाते हुए
नेपथ्य में तिरंगा झाँकता है।
यहाँ ज़मीन से जुड़ता हूँ
मेंपल तरू के साथ
तो हिमालय तक की धरती
नाप आती है आत्मा
नमस्ते सदा वत्सले धारणी धरा।” (पृ, 90-91, मेपल तरु के साक: धर्मपाल महेंद्र जैन)
“अब कुछ दूर चलकर
मुझे भारत के दूतावास जाना है
मेरी टाँगें काँपने लगती हैं
छ़ड़ी छूटने लगती है।” (पृ. 94, आत्मीय लोग: धर्मपाल महेंद्र जैन)
धर्मपाल महेंद्र जैन की कविताएँ अपने समय के ज्वलंत सवाल उठाती हैं। उन्हें कैनेडा के प्रतीकों में तिरंगा दिखाई देता है और हिमालय की परछाईं सदा उसके साथ चलती है। कई दशक भी उसके इस गर्भनाल सम्बन्ध पर आघात नहींं कर पाए। परंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में व्याप्त ब्यूरोक्रेसी उसे डराती है और कवि इस लालफीताशाही को बदलने की बात इस कविता में करता है। उस तरह से यह कहा जा सकता है कि यह कविताएँ प्रगतिशील हैं और बदलते समाजों की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
“मिटाना होगा एक दिन
नक़्शों से लकीरों को
और धरती को
उसका घर लौटाना होगा
परिंदों को वृक्ष
वृक्षों को ज़मीन
ज़मीन को नदियाँ
नदियों को पानी
पर्वतों को ख़ामोशी
जंगलवासियों को उसका घर लौटाना होगा।” (पृ 98, आसमान का घर: डॉ. नरेंद्र ग्रोवर, आनंद ‘मुसाफ़िर‘)
आज पारिस्थिति की परिवर्तन के समय में यह रचना एक ज़रूरी आवाज़ है कि जिसका जो है उसे हम लौटा दें। मनुष्य और प्रकृति को विरोधी बताने के बजाय सहअस्तित्व की बात करें। कवि नरेंद्र ग्रोवर मानव का प्रतिनिधि बनकर समाज से आह्वान करता है कि वह प्रकृति में संतुलन और समन्वय को समझें और ज़मीन, वृक्ष, नदी, पर्वत सब को उसका हक़ दे।
“उलझने जो सर उठाएँ, मुश्किलें बढ़ जाएँ गर
हम चलें, चलते रहेंगे, हमने सीखा है हुनर।” (पृ. 101, मेरा देश: निर्मल सिद्धू)
“सोच बदलो
ज़माना बदलेगा
मैं क्या? आप क्या?” (पृ. 103, सोच, निर्मल सिद्धू)
निर्मल सिद्धू कैनेडा के जीवन की चुनौतियों को समझते हैं। उनका सोचना है कि उनके पास वह हुनर है जो वर्तमान परिस्थितियों का सामना कर सकता है। उनके जीवन में सोच इतनी महत्त्वपूर्ण है कि वह ‘सोच’ पर ही एक हाइकु लिख देते हैं। दृष्टिकोण उनके विचार का मूल है और वास्तव में ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए सकारात्मक, रचनात्मक और सशक्त ‘सोच’ ही चाहिए।
“काशी काबा क्या है, है दैरो हरम में क्या
क़िसमें कहाँ ख़ुदा है, मिट्टी जानती है
ख़्वाब है यह दुनिया, तेरे जागने तलक
तेरी है क्या हक़ीक़त, मिट्टी जानती है।” (पृ. 108, कौन कहाँ है: पंकज शर्मा)
पंकज शर्मा का स्वर आध्यात्मिकता का स्वर है। वह जानते हैं कि मनुष्य का शरीर पंच तत्वों का बना है। यही वास्तविकता है। वे उसे यह याद दिलाते हैं और कहते हैं कि इस धर्म युद्ध में क्या रखा है। वह भौतिक वस्तुओं को पाने की इस दौड़ को समझते हैं और बताते हैं कि हम सबक़ा गंतव्य वही मिट्टी यानी पृथ्वी है। जीवन को दूर तक जानने, समझने और अभिव्यक्त करने की क्षमता उनकी कविता को एक गहरी दक्षता और पकड़ प्रदान करती है।
“माँ हिंदी तुम वो हो
तुम मात्र
मेरी अभिव्यक्ति की आवाज़़ नहींं हो
तुम वो हो जिसे सुनने के बाद
दुनिया मुझे पहचान जाती है
मैं कौन हूँ? कहाँ से हूँ? यह जान जाती है।” (पृ. 116, माँ हिंदी तुम वो हो: पूनम चन्द्रा ‘मनु’)
एक संवेदनशील कवियित्री पूनम चंद्रा ‘मनु’ की कविता का रंग कुछ अलग है। वह संवेदना के साथ भावनाओं को चित्रित करती हैं। वह अपनी भाषा के प्रति विशेष रूप से सचेत हैं। यही उनकी अस्मिता की अभिव्यक्ति है। उनकी भाषा ही उनके व्यक्तित्व को जानने की चाबी है। उनकी कविताओं के विषयों का चयन सामान्य से हटकर और बहुत अच्छा है।
“सुहृदयता संदेश लाए,
शान्ति का पैग़ाम लाए,
आध्यात्मिकता गहन लाए,
भारतीयता महक़ से है,
महकाकर कैनेडा को,
अपना कर स्वदेश जैसा,
बनाया निज देश है,
हम कामयाब हैं।” (पृ. 125, हम कामयाब हैं: परमिल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव)
“लगता है
मैं हूँ ख़ुशबू का एक झोंका
जो धरा पर आकर अनन्त आकाश में
समाहित हो रहा है
रह जाएगा
पल भर को मेरा एहसास
फिर वह भी समय की तहों में
सिमिट जाएगा” (पृ. 130, एक क्षितिज: परमिल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव)
परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव मानती हैं कि कैनेडा में भारतीय क़ामयाब हैं। उनकी क़ामयाबी केवल यह नहींं है कि उन्होंने कैनेडा के समाज में अपनी जगह बनाई है बल्कि यह है कि उन्होंने इस समाज को इतने स्तरों पर इतना कुछ दिया है की कैनेडा को दो समाजों का श्रेष्ठ प्राप्त हो गया है। वे स्वयं को एक विराट का अंग समझती हैं और अपने अस्तित्व को उस विराट में तिरोहित होता पाती हैं। कविता में उसमें विराटता से एक्य का एहसास तो है ही साथ ही अपनी सार्थकता का भी गर्व है।
“कई दिनों बाद
अपने आपको आज
आइने में देखा।
X X X
आँखों में संवेदना
शालीनता की नरमी।
X X X
ख़ुद पर
बहुत प्यार आया,
आज, मुझे मैं
अपनी माँ सी लगी!!” (पृ. 138, आईना: प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा‘)
“सितारों जड़ी
रात की चुनरिया
चाँद सा पिया” (पृ. 140 हाइकु: प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा‘)
“मीठी थी यादें
पर न जाने क्यूँ
अश्रु थे खारे।” (पृ. 140 हाइकु: प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा‘)
प्रीति अग्रवाल अपने आप से प्रश्न करती हैं। अपने से बातचीत करती हैं यानी कि आत्म अन्वेषण करते हुए बेहतर होने की प्रक्रिया से जुड़ती हैं। वह अपनी कविता ‘आईना’ के माध्यम से पीढ़ियों की दूरी को दूर करती हैं और पाती हैं की उनकी और उनकी माँ की संवेदनाएँ, प्राथमिकताएँ, चिंताएँ और भंगिमाएँ शायद एक ही थीं। उनके हाइकु भी संवेदनापूर्ण हैं।
“कंकरीली रातों में
पड़ता सेंकना अलाव
काम कोयलों का जलना
बनना अंगारे
हो
चिखा का सेंक
लेकिन सेंका न जाए जो।” (पृ. 142, सेंक: बमलजीत ‘मान’)
चिखा यानी चिता।
जब कहीं अमूर्तन में मूर्तन का आरोप होता है तो वह कविता एक अलग पहचान बनाती है। बमलजीत ‘मान’ की कविताएँ केवल मानव समाज या मनुष्यों की चिंताएँ ही नहींं करतीं अपितु वह धूप में झुलस रही ईंट के प्रति भी अपनी संवेदना को अभिव्यक्त करती हैं। उन्हें कोयले से बने अंगारे की चिंता नहींं है अपितु वह उस कोयले की चिंता में भी गंभीर हैं जो अंगारा न बन सका। उस अधजले कोयले का क्या होगा? कवि की यह अलग सोच उसे विशिष्ट और कविताओं को अर्थपूर्ण बनाती है।
“रोचक सबसे अधिक विभाजन उसको भाया
करता रहा विभाजन कभी नहींं अलसाया
सभी चराचर निधियों का
धन धन्य धरा का
देश काल का
जन्मदायिनी वसुंधरा का
पृथ्वी पर सब कुछ विभक्त
उसने कर डाला
फिर ईश्वर के बँटवारे का कार्य सँभाला।” (पृ. 146, मानव और गणित: स्व. डॉ.ब्रजराज किशोर कश्यप)
गणित में से भी जीवन सत्यों का आविष्कार रचनाकार की उपलब्धि है। गणित के सरल सूत्रों से भी विभाजन जैसे जीवन सत्य की पहचान उनकी कविताओं की एक विशेषता है। वह इस दुनिया में अस्तित्व के प्रश्न से भी जुड़ते हैं। क्या इस दुनिया में वह एक पर्यटक हैं जो विजिटर वीज़ा पर आए हुए हैं अथवा उनमें जगत पर एक अधिकार भावना वाला भाव होना चाहिए। जीवन की इस सांध्य बेला में ऐसे प्रश्न स्वाभाविक होते हैं और कवि कविता की संवेदना के साथ दर्शन को गूँथकर जीवन के बड़े सवालों में अपना रास्ता ढूँढ़ता है।
“अब भी तो चर्चा है घावों की
रूठे को मना तो सकते हैं हम
पर झूठे कैसे जानें जाएँ
यह प्रश्न बड़ा ही दुष्कर है
आहट भी न सुन सके पाँवों की।” (पृ. 155, मन की मंदाकिनी: भगवत शरण श्रीवास्तव)
भगवत शरण श्रीवास्तव जीवन के गंभीर प्रश्नों का अन्वेषण करते हैं। व्यक्तियों और स्थितियों के बीच वे जीवन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी कविताओं में कल्पना का पुट बहुत है। संवेदनशीलता के साथ कल्पना का जोड़ना कविता की एक विशेषता है। इसी सोच से हम अपेक्षित स्थितियों की कल्पना कर सकते हैं और कवि एक सुखमय समाज का निर्माण कर सकता है।
“हैं कौन कृषक जो कपास की खेती अंबर में करता है?
नाना प्रकार के खिलौने
प्रतिदिन रूई के रचता है
जाने कैसे बिन डोरी के मेघ नभ में लटकाता है?” (पृ. 162, कृषक: डॉक्टर भारतेंदु श्रीवास्तव)
भारतेंदु श्रीवास्तव का आध्यात्मिक रुझान स्पष्ट है। उनकी कविता उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा का प्रतिफल है। यह कविता जीवन की आध्यात्मिक पहेली को समझने का एक प्रयास है। रामायण, महाभारत, गीता अंततः एक काव्य ही तो हैं और साथ ही यह जीवन को समझने का विराट और गहन प्रयास है। भारतेंदु श्रीवास्तव की कविताएँ भी उसी रहस्यमय को खोजने का एक प्रयास हैं।
“तुम्हारी नन्ही नन्ही आँखें
मेंरे चेहरे पर लिखी हैं
मेरी हँसी तुम्हारे लिए बनी सरगम
तुम्हारे बोल मुझे ऋचाओं से लगे
मैं उन्हीं में खो गई
और मुझे पता ही न चला मैं कब
भूमि से वृक्ष में रूपांतरित हो गई।” (पृ. 165, भायी थी तुम्हें: भुवनेश्वरी पांडे)
“कैसा नगर
कोई ना पहचाने
हम घूमते”
“केवल मकाँ
बीच कोई सड़क
बैठोगे कहाँ”
“आ मेरे बच्चे
अंक में भर लूँ
पूरी हो लूँ!” (पृ. 168-169, हाइकु, भुवनेश्वरी पांडे)
भुवनेश्वरी पांडे की कविताओं में संवाद, समन्वय और संयोजन बड़ी कुशलतापूर्व पिरोया गया है। वे दो पीढ़ियों में विवाद, विरोध और संघर्ष की बात नहींं करती बल्कि एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी के विकास का दायित्व अपने पर लेती हैं और यही भूमि से वृक्ष में स्थानांतरित होने की प्रक्रिया है। उनके हाइकु भी जीवन की विविध स्थितियों को अपनी विडंबना और विरोधाभासों के साथ बड़े रोचक तरीक़े से प्रस्तुत करते हैं।
“दिखते हम्मिंगबर्ड आते ही बसंत
मोनार्क तितली को लाते संग-संग
स्नोड्राप, क्राकस, डैफ़ोडिल स्वागत में आएँ
दिल खोल मेंंगनोलिया,
ट्यूलिप, हायसिंथ खिल जाएँ।” (पृ. 173, मेरी स्ट्रीट: मधु भार्गव)
“सरसराती पवन मुझे घेरे
पाइन, जूनीपर, स्प्रूस, सीडर, फर सुगंधि उँडेलें
चौंधियाती स्नो जैसे डाल-डाल पर हँसी बिखेरे।” (पृ. 171, क्षणिकाएँ: मधु भार्गव)
मधु भार्गव को प्रकृति से प्रेम है। कैनेडा के पौधों, वृक्षों, मौसम ने उनका मन मोह लिया है। उनके प्रकृति प्रेम के माध्यम से हमें कैनेडा के विभिन्न फूलों-फलों, वृक्षों की प्रजातियों की जानकारी मिलती है और एक समन्वय की सुगंध भी। उनकी अभिव्यक्ति सरल, सहज और सरस है।
“पागल मन यूँ ही उदास है
X X X
काली मावस भी सज जाती
दीपों के गहनों से दुलहन,
सुख-दु:ख के छोटे पल मिलकर
बन जाता इक पूरा जीवन
X X X
बिना कहे ही मीत समझ ले
अर्थ हृदय में छुपे भाव का,
हृदयों का बंधन ऐसा हो
जाड़े में जलते अलाव सा,
अपने ही अंदर सुख होता,
दु:ख इच्छाओं का लिबास है।
पागल मन यूँ ही उदास है . . .” (पृ. 182, पागल मन यूँ ही उदास है: मानोशी चटर्जी)
उनकी सोच बड़ी ही सक्रिय सकारात्मक और रचनात्मक है। उनकी कविताएँ उनकी इसी सोच की अभिव्यक्ति हैं। वह होने से ज़्यादा, क्या हो सकता है उस पर विश्वास करती हैं। यह विश्वास उन्हें सदा सकारात्मक बनाए रखता है। वह मन की उदासी, अबोधता या भावी की आशंका को भी सकारात्मक रूप से उर्जित कर देती हैं और घटनाओं को एक सकारात्मक भाव से भर देती हैं। कविता एक प्रकार से यही रचनात्मक कल्पनाशीलता है।
“लालसा तुमसे मिलन की
पर नहींं है पास मेरे प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी
भेंट में कैसे जुटाऊँ
मैं तुम्हें उपहार लाऊँ या न लाऊँ
नव दुलहन सी सज मेरा सत्कार करना
मैं प्रणय के गीत गाऊँ या न गाऊँ . . .” (पृ. 185, प्रणय गीत, राज माहेश्वरी)
राज महेश्वरी की कविताओं में भी विश्वास गुँथे हुए हैं। वह एक ऐसे समाज, एक ऐसे देश की कल्पना करते हैं जहाँ समता स्वतंत्रता और न्याय है। जहाँ किसी प्रकार का शोषण नहींं है। नवधा भक्ति का एक प्रकार है—आत्म निवेदन। उनका प्रेम भी जैसे आत्म निवेदन है जिसमें अपेक्षा सदा प्रेम करने की है। यहाँ भौतिक विषय गौण हैं। एक दूसरे को जानना, समझना और प्रेम करना प्रमुख है। यह कविता ऐसे ही निःस्वार्थ और अमर प्रेम की तरफ़ ले जाती है।
“जीवन की संध्या में, जीवन का बसंत
‘कब आया और चला गया‘,
सोच भर, न बन कर रह जाए।
यही बताने, हर साल बसंत आता है,
और . . . चुपचाप चला जाता है!” (पृ. 194, बसंत आया था: रेणुका शर्मा)
रेणुका शर्मा व्यक्ति की शक्ति का उत्साह का ऊर्जा का स्रोत जानती हैं। वह जानती हैं कि प्रकृति व्यक्ति को सदा ऊर्जावान बनाए रख सकती है। संशय, आशंका, संदेह और भय के वातावरण में व्यक्ति अंतत: कहाँ से शक्ति पा सकता है! वह जानती हैं और कहती हैं कि प्रकृति के साथ जुड़ें। वे कहती हैं कि बसंत शायद यही संदेश देने हमें आता है कि अगर हम प्रकृति से एकाकार होंगे तो यह उत्साह और ऊर्जा हमें विराटता की तरफ़ ले चलेगी और उसी भाव से व्यक्ति उत्साही और ऊर्जावान बनेगा।
“हम तुम चाहे नहींं मिले पर
मिलते हैं यादों के दीप
एक उमर से एक उमर तक जलते हैं
यादों के दीप
भूली बिसरी यादों में
एक पल ख़ास तुम्हारा भी है
मेरे दीपों की माला में
एक दीप तुम्हारा भी है।” (पृ. 203, दीपमाला: वंदिता वन्दिनी)
वंदिता वन्दिनी की कविताएँ स्मृति केंद्रित हैं। कई दशकों बाद भी जलने वाला दीप ‘उसी’ नाम का है। वह बातें, वह यादें, वह स्मृतियाँ खोई नहींं हैं। चाहे आसमान में तारे हैं, एहसास या दीपमाला वह उन्हीं क्षणों को जी रही हैं। प्रवासी का भारत के साथ गहरा सम्बन्ध है। जीवन के भारत में बिताए गए वर्षों से उसकी सोच, समझ और लगाव विकसित हुए हैं। आज भी सुख के और दुख के क्षणों में वह कविता के माध्यम से भारत और भारत के उन सम्बन्धों को याद करती हैं।
“उस भयानक रात को,
मैं शामिल था उन हज़ारों विचलित आत्माओं में
जिन्हें घर से बेघर करने का
षड्यंत्र रचा गया था या सरहद पार
धधकती आग से, उस धौंस भरे माहौल में
मैं मेरा अस्तित्व, मेरी आत्मा मेरा रोम-रोम
सिहरा रहा था, एक नहींं कई बार।” (पृ. 209, 19 जनवरी 1990, विस्थापन दिवस: विद्या भूषण धर)
विद्याभूषण घर की कविताएँ एक बड़ा सवाल उठाती हैं। वह कश्मीर में हुए विस्थापन की बात करती हैं। वहाँ पर हुए अत्याचार की बात करती हैं जिसे एथेनिक क्लींजिंग कहा जाता है। उसे कोई और भूल सकता है परंतु वह नहींं जिसने उस दर्दनाक रात को, उन हादसों को प्रथम दृष्टया के रूप में देखा था और मौत, आतंक और निष्कासन को जिया था।
“तुम किसी भी विवशता-वश
मीत मुझको मत बनाओ!
मैं तुम्हारी ‘भावना का अंग-
कैसे बन सकूँगा?’ यह बताओ!” (पृ. 214, तुम किसी भी विवशता-वश: स्व. डॉ. शिवनंदन यादव)
यह कविताएँ प्रेम की, आध्यात्म की और वर्तमान में जीने की हैं। कवि वर्तमान की आलोचना नहींं करता बल्कि जीने का रास्ता निकालता है। वह प्रेम को लेनदेन की वस्तु नहींं मानता बल्कि मन का एक भाव मानता है। इसलिए उसका प्रेम किसी भौतिक विषय पर आश्रित नहींं है वह दीर्घ है, अमर है और उनमें भावनाओं का परिष्कार और प्रस्फुटन है।
“यह नहींं कि जो भाषा यहाँ बोलते हैं,
मुझे अच्छी नहींं लगती।
X X X
पर कहीं अंदर एक बेचैनी रहती है,
बोलने को अपनी भाषा,
X X X
उसमें अपनापन है,
आत्मीयता है,
और सहजता है।” (पृ. 222, माटी की सुगंध: शैल शर्मा)
शैल शर्मा इतिहास और स्मृति को अपनी कविताओं में आधार बनाती हैं। वह बीते हुए कल को वर्तमान की नींव मानती हैं। उसके प्रति उनके मन में एक अवमानना, एक उपेक्षा नहींं अपितु एक आभार का भाव है जिसकी नींव पर आज खड़ा है। उन्हें अपने देश, मिट्टी और रंग से प्यार है। भाषा उनके लिए उस मिट्टी का महत्त्वपूर्ण अवदान है। अन्य भाषाओं के प्रति आदर होते हुए भी अपनी भाषा के प्रति आत्मीयता, अपनापन ही उन्हें वह सुगंध देता है, जो जीवन का आधार है।
“मढ़िया की भीत पे
सगुन थाप प्रीत से
सीने से लगाय लाई थोड़ी सी कविता।
मैंया ने अक्षर दिए
बापू ने भाषा दी
भैया के जोश से उठान लाई कविता।” (पृ. 232, गाँठ में बाँध लाई थोड़ी सी कविता: डॉ. शैलजा सक्सेना)
शैलजा सक्सेना हिंदी राइटर्स गिल्ड की सबसे सक्रिय सदस्यों में है। या यूँ कहें वे इसका नेतृत्व कर रही हैं। वे समर्थ कवि है। उनकी विषयवस्तु विविध है। उन्हें कैनेडा में पल-बढ़ रहे बच्चों की भाषा को लेकर चिंता है। यह संशय और भ्रम बच्चों को उसकी अभिव्यक्ति से रोकता है और तोतला बना देता है। यह अन्य देशों में भी भाषा और बालमन को लेकर उसकी वास्तविकता पर एक बड़ा सवाल है। अफगानिस्तान का प्रश्न अमेंरिका की वापसी के बाद एक बार फिर ज्वलंत हो गया है। दुनिया की बदलती परिस्थितियों में दशकों पहले लिखी यह कविता जीवंत हो उठी है। यह कविता अफगानिस्तान की त्रासदी उसके दुख, उसकी नियति के बारे में सवाल उठाती है। कई दशकों पहले लिखी यह कविता विश्व की परिस्थितियों और उसके भविष्य को समझने और दिखाने का एक गंभीर प्रयास है। ‘सुबह हो गई’ कविता कैनेडा की एकरस ज़िन्दगी के बारे में बताती है। वर्तमान जीवन की चुनौतियों ने और प्रौद्योगिकी ने व्यक्ति को रोबोट बना दिया है। यह कविता कहीं गहरे में भारत के इंद्रधनुषी जीवन से उसकी तुलना करती है और गहरा प्रश्न उठाती है। ‘थोड़ी सी कविता’ वह धरोहर है जो कवयित्री भारत से लाई है। यह लाई हुई कविता ही रचनाकार के व्यक्तित्व का मूल तत्व है और उनके रचनात्मक और सर्जनात्मक जीवन का आधार है।
“जो पतंगों की तरह कभी उड़ते रहे आकाश में।
धूल से लिपटे हुए है औ हँस रही गुमनामियाँ॥
बोलियाँ लगती है देखो हर ग़ज़ल व गीत पर।
अब क़ीमतें समझा रही है दुधमुही बंजारियाँ॥” (पृ. 238, परछाइयाँ: श्रीनाथ द्विवेदी)
श्रीनाथ द्विवेदी की शिल्प और कथ्य पर पकड़ है। उनकी कविताएँ जीवन की विभिन्न परतों का विश्वेषण करती हैं और उसकी दिशाओं की और इशारा करती हैं। यह कविताएँ जीवन के विविध रंगों को, व्यक्ति के उत्थान-पतन को जानती हैं और उसकी त्रासदी, विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को समझती है। जीवन के विविध सरोकारों और अंतर्विरोधों को समझना श्रीनाथ द्विवेदी जी की कविताओं की शक्ति है।
“कल जिस गली भाईचारे के क़िस्से चलते थे
वही आज कितने मासूमों के घर जलते थे
अग्नि की लपटों में शान्ति की चादर ख़ाक हुई
दोस्त पड़ोस की परिभाषा क्षण में राख हुई।” (पृ. 243, दंगों वाली रात: संदीप कुमार सिंह)
संदीप कुमार सिंह की कविताएँ अगली पीढ़ी से जुड़ाव की कविताएँ हैं। यह कविताएँ उसमें भविष्य के सकारात्मक संकेत खोजती हैं। उन्हें जब भारत याद आता है तो उनके सामने घटित वीभत्स दंगा भी सामने आकर खड़ा हो जाता है। उनकी क़लम उस दर्दनाक हादसे का उल्लेख करती हैं जब भाईचारा तार-तार हो गया था। यह कविता प्रेम, भाईचारे और सौहार्द की दिशा दिखाती हैं।
“क्यों ज़ख़ीरा जंग का करता जमाँ
जिस्म को औज़ार करके देख तो।
X X X
जुड़ जड़ो से ख़ुद की ख़ुद ख़ुद्दार बन
ख़ुद का ख़ुद उद्धार करके देख तो॥” (पृ. 247, ज़िन्दगी से प्यार करके देख तो: संदीप त्यागी ‘दीप’)
संदीप त्यागी की कविताओं का मूल स्वर उत्साह ऊर्जा और चुनौतियों का सामना करने का है। वह ज़िन्दगी से प्यार का आह्वान करते हैं और चुनौतियों से दो-चार करने का उत्साह दिखाते हैं। उनकी कविताओं में आध्यात्मिक प्रेम और विचार की गंभीरता भी है।
“मर्यादाओं का आश्रय न लेकर
तट की सीमा में रह-रहक़र।
तूफ़ानों की उथुल-पुथल में
और भँवर में सँभल सँभल कर
असहनीय झंझावातों को सहक़र
अपनी राहें ख़ुद चुनती हैं।
प्यासी सरिता इक बूँद को तरसे
किससे, क्या और कब कहती है
और निरंतर बहती रहती है।” (पृ. 255, प्यारी सरिता (अनाथ बेटी):सरोजिनी जौहर)
सरोजिनी जौहर की कविताओं में मानवता के प्रति प्रेम है। वह उपेक्षित सरिता के प्रति सबक़ा ध्यान खींचती हैं और आह्वान करती हैं कि ऐसे व्यक्तित्व को स्नेह-प्यार-दुलार चाहिए जो उन्हें स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में विकसित होने का अवसर दे सकें।
“सूर्य ने टाँकी
श्वेत बदरी पर
स्वर्ण किरणें।”
“चंदा मुस्काया
लहरों का दर्पण
स्पर्श जो पाया।”
“पगली स्मृति
इत उत डोलती
पकड़े हाथ।” (पृ. 262-263, हाइकु: सविता अग्रवाल ’सवि’)
उनके कविताओं में जीवन का स्वीकार है, नकार नहींं। सविता अग्रवाल के हाइकु महत्त्वपूर्ण है। प्रकृति के विविध स्वरूपों और आयामों का चिंतन, विश्लेषण और प्रस्तुति उनकी कविता को धार देती है। उनकी कविता स्मृति और प्रमुख प्राकृतिक प्रतीकों के साथ अठखेलियाँ करती हैं।
“नया बसंत पाने के लिए
इसलिए करता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा हिमपात . . .
तुम्हारा स्वागत है
तुम्हारे ओढाए
कफ़न का स्वागत है।” (पृ. 268, हिमपात और मैं: सुमन कुमार घई)
सुमन कुमार घई कि कविता में विचार और हृदय साथ चलते हैं। उनकी कविता में अपने आसपास फैली प्राकृतिक शब्दावली का वर्णन हृदय को छूनेवाला है। कैनेडा में व्याप्त हिमपात को देखना और उसके सुंदर चित्रण की प्रस्तुति कवि के रूप में उनकी क्षमताओं का परिचायक हैं। उनकी कविताएँ इस अंतहीन हिमपात के अँधेरों को भेदने के लिए अपनी उर्जा का संचयन करती है। उनमें हार, निराशा, अवसाद नहींं है बल्कि अपनी समस्त ऊर्जा के साथ प्रकृति के इस स्वरूप को जानने, समझने और दिशा खोजने का प्रयत्न है। इतनी सुंदर रचनाओं के लिए उन्हें बहुत बधाई।
“लताओं ने कहा
हम भी रानी हैं!
घास के तिनके-तिनकेने कहा
हम रानी हैं
हम रानी हैं!
अब मिट्टी के कण कण से
आवाज़़ आने लगी–
हम भी रानी हैं!
रूहपोश रानी को लगा जैसे
धरती से आकाश तक फैल चुकी थी।” (पृ. 274-275, विराट: सुरजीत)
सुरजीत प्रकृति की कुशल चितेरी है। इस कविता के माध्यम से वे व्यष्टि से समष्टि की यात्रा करती है और प्रकृति से तादात्मय करते हुए स्व से विराट तक पहुँचती है। यहाँ प्रकृति का पोर-पोर स्वयं को रानी सिद्ध कर देता है। वह एकात्मता के सूत्र को जानती हैं और प्रकृति के भेद में भी विभेद को समझती है यह एकात्मता का सूत्र उनकी कविता को शक्ति और पहचान देता है।
“ऊँचे ऊँचे वृक्ष खड़े थे
बीच बीच से लाल
पत्तियाँ झाँक रही थी
मानो किसी ने कुमकुम के
छींटे लगा
वृक्षों की पूजा की हो
तभी सूर्यदेव ने
अपनी अलसाई
आँखें खोली
और अपनी लाली से
पत्तियों को धो दिया
रंग गहरे लगने लगे
लगता था किसी ने
पत्तियों को फिर से रंग दिया।” (पृ. 284, सूर्योदय: स्नेह सिंघवी)
सूर्य और चंद्रमा सदा से रचनाकारों को प्रेरित करते हैं। सूर्य की शक्ति है कि वह रंगों मेंं भी रंग भरता है। सूर्य की उसी ऊर्जा, उत्साह को उनकी कविता ‘सूर्योदय’ नमन करती है। यह कविता प्रकृति को देखने का परिप्रेक्ष्य प्रदान करती हैं और हरियाली और उजास में स्वयं को डुबो कर जीवन को देखने की इन्द्रधनुषी दृष्टि प्रदान करती हैं।
“हर किसान का हल ठहरा है
निष्क्रियता का ही पहरा है
छाती है जड़ता हर मन पर
पुनि प्रमाद की बाँट धरोहर।” (पृ. 291, लौट चलो घर: स्व. हरिशंकर आदेश)
“जीवन को सक्षम कर देगी
वर्तमान मधुरिम कर देगी।
एक सुखद अतीत दे हमको,
भविष्य भी स्वर्णिम कर देगी।
नगर-नगर घर ग्राम ग्राम में,
हम हिदी का अलख जगाएँ।” (पृ. 288, नया उजाला देगी हिंदी: स्व. हरिशंकर आदेश)
हरिशंकर आदेश जी भाषा के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता रखने वालों के लिए एक आदर्श है। त्रिनिदाद व टौबेगो में उनका किया गया काम सदा जीवित रहेगा। हरिशंकर जी को किसी क्षेत्र, देश में बाँट पाना सम्भव नहीं। वे जितने भारत के हैं उतने ही त्रिनिदाद और टौबेगो के भी हैं। वही स्नेह उन्होंने कैनेडा में भी बाँटा। उदासी, अवसाद से भरी उनकी कविता भी किसी बड़े परिवर्तन के लिए प्रेरित करती हैं। कविता गंभीर परिस्थितियों का आकलन करती है और बदलाव के लिए औज़ार तैयार करती है।
हिंदी उनके क्रिया-कलापों का केंद्र बिंदु था। ‘कल आज और कल’ के संदर्भ में वे सबक़ा हिदी की अलख जगाने के लिए आह्वान करते हैं। वे हिदी के अगुआ हैं। सहज, सरल और उत्साह से भरी उनकी कविता सबक़ो साथ लेकर चलती है।
ये कविताएँ ही नहींं है। यह कैनेडा के हिंदी साहित्य का पिटारा है। इतने कवियों की प्रतिनिधि रचनाओं को एक साथ समेंटना और उन्हें अभिव्यक्ति का अवसर देना महत्त्वपूर्ण है। यह एक भागीरथी प्रयास है। इस अवसर पर सभी रचनाकारों का श्रेष्ठ रचनाओं के लिए और संपादक मंडल का उनकी प्रतिभा और निष्ठा के लिए अभिनंदन। इस महत्त्वपूर्ण प्रयास के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
अनिल जोशी
उपाध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल,
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार