बस रहने दें, अब बस भी करें,
धम्म से पसरें धरती पर,
हाथों पर हाथ धरे,
कुछ न करें . . .!
घूरें–उस दूर उड़ती चिड़िया की
चहचहाट कानों में भरें,
उसकी बोली, उसकी बातें—समझें तो ठीक
वरना मौन धरें . . .!
एक बार, बस एक बार
ख़ाली बर्तन सा आँगन में लुढ़कें,
तेज़ बूँदों, बारिश में जिसे
अम्मा भूल गयी थी ढँकना
भीगते चूल्हे की राख और
मिट्टी में पैरों को भीजते छोड़ दें . . .!
ऊपर से झाँकते चाँद से आँखें
चार कर
झप्प से टूटते तारे को
लपक लें गोदी में
अँधेरे में लरजते झींगुर की झिक-झिक
मच्छर की बाँसुरी को गुनें . . .!
या कभी,
नवम्बर की दुपहरी
गुनगुनी चाय और धूप
अलसती शाम को ताकें
ऊन के गोलों, सलाइयों के
फंदों के बीच उलझती, उधड़ती
पड़ोसिनों की बातों को बुनें . . .!
धूप में सूखते पापड़-चिप्स
तेल घुटनों पर रगड़ती
अम्मा के पोपले गालों की हँसी
सिकुड़ती झुर्रियों को गिनें . . .!
रज़ाई में बैठे,
दोने में लिपटी मूँगफली
सी कड़क,
सोंधी सिंकती पकोड़ियों के संग
खौलते अदरक की चाय
की महक साँसों में भरें
कभी-कभी तो कुछ न करें . . .
बस हाथ हाथों पर धरें . . .!!