1962 में मैं उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत मण्डल के इलाहबाद सब-डिविज़न में एस। डी। ओ। लगा हुआ था। हमारे विवाह के कुछ महीने बाद श्रीमती जी के बड़े भैया का मॉन्ट्रियाल कैनेडा से पत्र आया। इसमें उन्होंने कैनेडा की कई इंजिनियरिंग कम्पनियों के नाम और पते लिखे थे, और साथ साथ मुझे एप्लाई करने का सुझाव भी दिया था। पत्र पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि मेरा बाहर जाने का जो स्वप्न था, उसके पूरा होने का समय आ गया है। बस, एक सप्ताह के अन्दर ही मैं ने सब कम्पनियों में जॉब के लिये पत्र डाल दिये। चाहे मुझे ’मुकद्दर का सिकन्दर’ कहिये या कुछ और, छह सप्ताह में ही मॉन्ट्रियाल की एक इंजिनियरिंग कम्पनी का नियुक्ति पत्र ’अपॉइन्टमैण्ट लैटर’ आ गया और मुझे चार महीने के अन्दर जॉइन करने को कहा। मेरा अगला क़दम कैनेडा की इमिग्रेशन लेने का था और इसके लिये मैं ने दिल्ली स्थित कनेडियन हाई कमीशन से सम्पर्क किया और इंटरव्यू की तिथि और समय निश्चित करली।
नियुक्त तिथि पर, इमिग्रेशन इंटरव्यू के लिये, हम दिल्ली में कनेडियन हाई कमीशन के दफ़्तर में बैठे हुए थे। थोड़ी देर बाद एक आदमी आया और हमें अन्दर आने को कहा। अन्दर जाकर उसने हमारी कुर्सियाँ ठीक करके हमें बैठने का इशारा किया। अब तक मैं यही समझ रहा था कि यह कोई चपरासी होगा, लेकिन घूम के जब वो इंटरव्यू वाली कुर्सी पर बैठ कर हमारा इंटरव्यू लेने लगा तब मुझे बहुत अजीब तो लगा लेकिन इस बात पर बहुत गर्व भी हुआ कि मैं अपना नया घर जिस देश में बसाने जा रहा हूँ, वहाँ ’श्रम की गारिमा’ (डिग्निटी ऑफ़ लेबर) की मान्यता है। इंटरव्यू के बाद हम वापस इलाहाबाद आ गये। कुछ सप्ताह बाद हाई कमीशन द्वारा भेजे हुए इमिग्रेशन के सारे काग़ज़ात भी मिल गये। कैनेडा जाने की तैयारी अब पूरे ज़ोर पर थी।
बृहस्पतिवार 25 फरवरी 1965 को हम मॉन्ट्रियाल पहुँचे जहाँ डोरवाल एयरपोर्ट पर भैया और भाभी हमें लेने आये थे। घर पहुँचने कर और भोजन करने के थोड़ी देर बाद प्रेम भैया ने बताया कि मुझे कल से ही काम शुरू करना है। अगले दिन बस द्वारा हम दोनों कम्पनी के दफ़्तर पहुँचे। वहाँ एच.आर. के फ़ार्म भरने और स्टाफ़ से मुलाक़ात करते करते शाम हो गई और हम दोनों घर वापस आ गये। उस दिन ठण्ड बहुत ज़ोर की पड़ रही थी। अगले दिन शनिवार को मेरा बदन फ़्लु के तेज़ बुख़ार से तप रहा था। सोमवार आया तब भी बाहर निकलने लायक़ नहीं था। इसी बीच भैया ने दफ़्तर में फ़ोन कर दिया था। मँगलवार तक तबियत काफ़ी ठीक हो गई और बुधवार को मैं दफ़्तर पहुँचा। मेरे पहुँचते ही हमारे चीफ़, मेरा बॉस और कई लोग, जो मेरे लिये बिल्कुल नये थे, मेरे पास आये, हालचाल पूछा और ठण्ड से सावधान रहने को कहा। यही नहीं, कोई दो बजे एच.आर. की बैटी क्लार्क मुझे मिलने आई और एक लिफ़ाफ़ा मुझे थमा दिया। बैटी के सामने ही मैं ने जब लिफ़ाफ़ा खोला और उसमें फरवरी महीने की एक सप्ताह की तनख़्वाह का चैक देखा तो भौंचक्का रह गया॥
ऊपर के इन दो घटनाओं से कैनेडा के लोग, उनकी इन्सानियत उनकी शराफ़त का मेरे मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। जन्म भूमि भारत छोड़ने का दुख तो बहुत था लेकिन इस नये देश को अपनी कर्म भूमि बनाने में और अपनाने में दुबारा सोचने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। उस दिन से कैनेडा ही मेरा देश है और यही मेरा घर है।
पहले ही दिन से मैं ने भारत के और कैनेडा के दफ़्तरों में काम करने के माहौल में बहुत अन्तर पाया। भारत के जिस माहौल से मैं आया था वहाँ साहबगिरी बहुत ज़्यादा थी। साहब के लिये अपने हाथ से एक फ़ाइल भी उठाना शान के ख़िलाफ़ समझा जाता था। उन्हें तो इस काम के लिये भी चपरासी चाहिये। लेकिन यहाँ आकर जब देखा कि पोज़ीशन में चाहे कोई छोटा हो या बड़ा, हर कोई अपना छोटा-मोटा काम स्वयं करता है। यही नहीं, यहाँ हर कोई हर किसी को उसके पहले नाम से ही पुकारते थे। शुरू-शुरू में यह बड़ा अजीब तो लगा, लेकिन बहुत जल्दी ही मैं ने अपने को इस साँचे में पूरी तरह से ढाल लिया।
पुरुषों के लिये यहाँ पर दफ़्तर की रोज़ की ड्रैस सूट और टाई होते थे और महिलाओं के लिये स्कर्ट सूट। यही दफ़्तर का स्टेण्डर्ड बहुत लम्बे समय तक रहा। हमारे देखते देखते महिलाओं के पैण्टसूट का चलन हुआ। समय के साथ साथ पहले महीने के पहले शुक्रवार को केज़ुयल फ़्राइडे नाम देकर फ़ॉर्मल ड्रैस से थोड़ी छूट मिलनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे फ़ॉर्मल ड्रैस के दिन कम होते गये और केज़्युल ड्रैस का चलन बढ़ने लगा। यहाँ सब से यह उम्मीद की जाती थी कि ड्रैस केज़्युल के साथ-साथ प्रोफ़ेश्नल भी होनी चाहिये। वैसे देखा जाये तो दफ़्तर में केज़्युल ड्रैस के पहनावे को कैलेफ़ोर्निया की सिलिकॉन वैली स्थित माइक्रोसॉफ़्ट के बिल गेट्स, एप्पल कंप्यूटर के स्टीव जॉब्स इत्यादि के आने के बाद तो और भी बढ़ावा मिला। रोज़मर्रा के इस्तेमाल में तो अब फ़ॉर्मल ड्रैस एक तरह से बहुत ही कम हो गई है और केज़्युल ड्रैस का पहनावा आम होता जा रहा है।
दफ़्तर के समय बँधे हुए होते थे। सुबह साढ़े आठ से दफ़्तर शुरू, बारह से एक तक लंच, पाँच बजे छुट्टी। एक लम्बे समय बाद थोड़ा सा बदलाव आया और अनियमित समय का सिलसिला शुरू होने लगा। पर शर्त यह थी कि सारे स्टाफ़ को पहले से निर्धारित “निश्चित घंटों” में अवश्य होना है। एक लम्बे अर्से बाद तो आज के वातावरण में अनियमित समय और घर से काम करने के चलन ने तो काम करने वालों की एक नई नस्ल पैदा कर दी है। कोविड-19 के आने के बाद तो घर से काम करना ज़रूरी हो गया है। कोविड-19 के ख़त्म होने के बाद दफ़्तरों के काम करने का माहौल और हालात क्या होंगे यह तो वक़्त ही बतायेगा।
भारत में इंजिनियरिंग के विद्यार्थी जीवनकाल में कैल्कुलेटर बहुत नायाब होते थे और वो अपनी पहुँच के भी बाहर थे। 50 के दशक में और उस से भी काफ़ी देर बाद तक भारत में सारी की सारी इंजिनियरिंग की शिक्षा में स्लाइडरूल का इस्तेमाल होता था। कैनेडा में आने के बाद में यहाँ कैल्कुलेटर और उसके बाद कंप्यूटर जीवन का एक अभिन्न अँग बन गये। इन्टरनेट के माध्यम से तो लोगों की सोच, समझ और दृष्टि में एक हलचल मच गई थी। हमारे इस जीवन काल में ही तकनीकी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है और जिस तेज़ी से आगे जा रही है उस से तो लगता है कि असम्भव शव्द केवल शव्दकोश के लिये ही रह गया है। एक समय जो साई फ़ाई scifi की किताबों में पढ़ा था वो सब आँखों के सामने सच नज़र होता देखकर लगता है कि आज की तकनीकी में सब कुछ सम्भव है।
उस ज़माने में आज की सी बातें सोची भी नहीं जा सकती थीं। रविवार, जुलाई 20, 1969 को परिवार सहित हम कुछ मित्र मिलकर, मॉन्ट्रियाल से कोई 100 किलोमीटर दूर, ओन्टेरियो के ग्लैनगेरी पार्क में पिकनिक मना रहे थे। यह दिन बहुत ही विशेष था क्योंकि इस दिन “नासा” के अपॉलो 11 ने शाम को साढ़े चार बजे मून लैंडिंग करने के बाद रात को ग्यारह बजे के आसपास अपने दो अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग और बज़ ओल्ड्रिन को चाँद पर उतारना था। मून लैंडिंग के समाचार तो हमें साथ लाये हुए रेडियो पर मिल रहे थे। ठीक चार बजकर सतरह मिन्ट पर इस बात की पुष्टि हो गई कि अपॉलो 11 ने मून लैंडिंग कर ली है। थोड़ी देर बाद हम अपने अपने घर वापस आ गये। रात को खाने इत्यादि से निवृत होने के बाद जो ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी पर दोनों अंतरिक्ष यात्रियों को चाँद पर उतरते देखा वो दृश्य अभी भी आँखों के सामने है। 1969 से अंतरिक्ष टैक्नोलोजी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है आप स्वयं देख रहे हैं।
1965 के मॉन्ट्रियाल में बहुत थोड़े भारतीय होते थे। रोज़मर्रा की हिन्दुस्तानी ग्रोसरी भी केवल मॉन्ट्रियाल के ’सेंट लॉरैंस’ बुलिवार्ड पर केवल एक जमेकन दुकान“एस.ऐंकिन” पर मिलती थी और उस में भी सीमित विकल्प होते थे। इस दुकान पर ग्रोसरी के लिये अधिकतर भारतीयों का शनिवार का दिन निश्चित होता था। उस दिन ग्रोसरी के साथ साथ नये-नये लोगों से परिचय और मिलना-जुलना भी हो जाता था। यही वो जगह है जहाँ पर बने मित्रों से अभी तक वही पहले जैसा स्नेह है। कैनेडा के अलग-अलग शहरों में भी इसी प्रकार के साधन जुटाकर आपसी नये सम्बन्ध बनाये जाते थे।
शुरू-शुरू में बासमती चावल बिल्कुल नहीं मिलता था। पटना राईस यहाँ का मशहूर चावल था और वो किसी भी चाइनीज़ स्टोर में आम मिलता था। उन दिनों “ए एण्ड पी” स्टोर पर जो आटा मिलता था उसका रंग कुछ लाल रंग पर होता था। बनी रोटी देखने में और खाने में अजीब-सी ही लगती थी। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे भारतीयों की संख्या बढ़नी शुरू हो गई, नई-नई दुकानें भी खुलने लगीं। अब तो हिन्दुस्तानी ग्रोसरी का सारा सामान बहुत आसानी से मिलने लगा है और किसी भी चीज़ की कभी भी कमी महसूस नहीं होती।
पहले-पहल अधिकतर सिनेमाघरों में हिन्दी फ़िल्म देखने को नहीं मिलती थी, इसीलिये किसी भी मित्र के घर में इकट्ठे हो जाना आम बात थी। ऐसी बैठकें भी नये लोगों से मिलने का बहुत बड़ा साधन थी। जिन शहरों के सिनेमाघरों में हिन्दी फ़िल्म दिखाई जाती थीं, वहाँ पर हमेशा हाऊसफ़ुल जाता था। वीसीआर और डीवीडी प्लेयर आने के बाद तो हॉल में फ़िल्म देखने के चलन में काफ़ी बदलाव आ गया था।
उन दिनों कैनेडा में मन्दिर भी आम नहीं होते थे। क्युबेक के “वॉल मौरिन” शहर में स्वामी विष्णुदेवानन्द के शिवानन्द आश्रम योग कैम्प की स्थापना 1965 में हुई थी और उस दिन वहाँ पर भारतीयों का उत्साह और संख्या देखने योग्य थी। समय के साथ धीरे-धीरे कैनेडा के हर प्रान्त में और हर शहर में मन्दिर बनने शुरू हो गये।
टोरोंटो, मॉन्ट्रियाल या कैनेडा के किसी भी छोटे–बड़े शहर के डाउनटाउन में या कहीं और भी, अगर कोई भारतीय, अकेला या परिवार सहित, चलता-फिरता नज़र आता था तो दोनों परिवार एक दूसरे को मिलने के लिये ठहर जाते थे। पास आने पर बातचीत करते थे, एक-दूसरे का टेलीफोन नम्बर लेते थे और जल्दी ही आपस में मिलने का प्रोग्राम भी बन जाता था। अगर किसी को भी कभी भी ’राइड’ की ज़रूरत पड़ती थी तो कोई न कोई आगे आकर ’राइड’ दे देता था।
जब कभी भी किसी मित्र को अपार्टमैण्ट बदलना होता था, उसे बस अपने दोस्तों को बताना ही काफ़ी था। फिर उसके बाद निश्चित सप्ताहांत पर एक छोटा ट्रक किराये पर लिया जाता था। हम ही में से एक ड्राइवर बन जाता था। हम सब मिलकर ट्रक में सामान भरते और दूसरी जगह पर उतार कर, सामान को नई जगह पर ठिकाने से रखकर ट्रक को वापस करने के बाद ही अपने घर वापस पहुँचते थे। आपसी स्नेह ऐसा था कि हर किसी को एक दूसरे का ध्यान और भावनाएँ थीं।
घरों में मनोरंजन का मुख्य साधन टीवी ही था। टीवी ब्लैक एण्ड व्हाइट, काफ़ी भारी और देखने में कभी-कभी फ़र्नीचर का हिस्सा लगते थे। रैबिट ईयर एन्टेना से केवल दो चैनल सीबीसी और सीटीवी ही उपलब्ध थीं। बाद में केबल आने से अमरीकन चैनलें एबीसी, एनबीसी तथा सीबीएस भी उपलब्ध होने लगीं। शनिवार और रविवार तो बच्चों के लिये विशेष दिन होते थे। इस दिन कार्टून के साथ-साथ और दूसरे बच्चों से संबन्धित कार्यक्रम भी प्रसारित होते थे। बच्चों के साथ-साथ माता–पिता भी कार्टून और दूसरे बच्चों के कार्यक्रमों का पूरा आनन्द लेते थे। अधिकतर कार्यक्रम पारिवारिक होते थे। कॉमेडी साफ़-सुथरी होती थी। दिन में प्रसारित कार्यक्रमों में हिंसा का प्रदर्शन या अश्लील शब्दों का उपयोग नहीं होता था। संयुक्त परिवार पर प्रसारित “वाल्टन्ज़” उन दिनों सब का लोकप्रिय शो था। कॉमेडी में “लूसी शो” सभी देखते थे। इनके इलावा और भी बहुत से शो होते थे। इन सब सुविधाओं के होते हुए भी बच्चे घर के बाहर हॉकी या कुछ और खेलते थे और पड़ोस के बच्चों से घुलते-मिलते थे। इस बहाने बच्चों का शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था।
टीवी में चैनल बदलने के लिये और आवाज़ कम ज़्यादा करने के लिये उठ कर जाना पड़ता था। थोड़े अर्से बाद बाज़ार में केवल आवाज़ कम ज़्यादा करने का एक लम्बी तार के साथ जुड़ा रिमोट भी मिलने लगा। बाद में नये टीवी के साथ बेतार रिमोट भी आने लगे। इन टीवी में पिक्चर ट्यूब के साथ और भी बहुत सारी ट्यूब होती थीं। कभी-कभी टीवी के ठीक से काम न करने पर उसकी ट्यूबों को निकाल कर किसी भी दवाई की दुकान पर जाकर स्वयं जाँचना आम बात थी। ख़राब ट्यूब के पता लगने पर किसी भी इलैक्ट्रॉनिक स्टोर से नई ट्यूब लाकर स्वयं लगाना और टीवी का पूरा आनन्द लेने का अपना ही मज़ा था।
60 के दशक के अन्त में रंगीन टीवी भी आने शुरू हो गये थे। काफ़ी महँगे होने के साथ यह टीवी भी बहुत भारी होते थे। धीरे-धीरे इनकी क़ीमत में काफ़ी गिरावट आने लगी। एक लम्बे समय तक राज करने के बाद अब मार्केट में फ़्लैट स्क्रीन हाई डेफ़िनीशन टीवी आ गये हैं और अब उनकी ही हकूमत है। रोज़-रोज़ नये मॉडल और नए तरीक़ों वाले टीवी ने एक तरह से धूम मचा रक्खी है। कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। ऐसी ही प्रगति कारों में भी हुई है।
अधिकतर कारें बहुत सुविधाओं वाली नहीं होती थीं। बैंच की तरह आगे की सीट होने के कारण आगे की सीट पर तीन सवारियाँ बड़े आराम से बैठ सकती थीं। कार की इग्नीशन की चाबी घर की चाबी जैसी छोटी होती थी। साइड मिरर केवल ड्राइवर साइड पर होता था। ब्रेक लाइट केवल कार की नम्बर प्लेट के पास वाली लाइट होती थी। सटार्ट करने के लिये कभी-कभी चोक की ज़रूरत पड़ जाती थी। कई बार धक्का लगाने से भी कार स्टार्ट हो जाती थी। औटोमेटिक के साथ साथ स्टेण्डर्ड शिफ़्ट कारों की भी काफ़ी मार्केट थी। डीफ़ॉगर, रेडियो या एयर कण्डिशनिंग के लिये अधिक पैसा देना पड़ता था। गैसोलीन का भाव 33 सैण्ट प्रति गैलन था। पिछले पचास साल में कारों के डिज़ाइन और फ़ीचर में नई तकनीकी के प्रयोग से बहुत बदलाव आ गये हैं। अब आप कार को नहीं चलाते, कार आपको चलाती हैं। कभी सोचा था कि बिना ड्राइवर के कार सड़क पर दौड़ेगी और सवारियों के कहने पर स्थानों पर ले जायेगी। यही नहीं आजकल की कारों में तो अपने आप पार्किंग करने की क्षमता भी है। आज की कारें इतनी ज़्यादा कंप्युट्राइज़ हो गई हैं कि आम मेकेनिक तो उनको समझ ही नहीं पाता।
एक समय था जब गोदी वाले बच्चों की कार सीटें प्लास्टिक की होती थी और बच्चा बड़े आराम से प्लास्टिक कार सीट में किसी की भी गोद में अगली सीट पर या पिछली सीट पर हो सकता था। कार चलाने से पहले बच्चे की सीट को बेल्ट आदि से बाँधने का कोई क़ानून नहीं थी। आजकल के बच्चों की कार सीटें देखकर बहुत अजीब सा लगता है। यही हाल बच्चों के स्ट्रोलरों का है। यदि पुरानी और नई पीढ़ी की कार सीट और स्ट्रोलर को साथ-साथ खड़ा कर दिया जाये तो पहले तो नई पीढ़ी अपने-आप को पुरानी पीढ़ी का वंशज मानने को तैयार ही नहीं होगी। अगर मजबूरन मानना ही पड़ जाये तो इस सच्चाई को अपनाने में बहुत ही शर्म महसूस करेगी। आजकल के बड़बोले बच्चों को देखते हुए कोई अचरज नहीं होगा अगर वो कह बैठे कि “ताऊ कौन से घिसे पिटे गाँव से आये हो तुम?”
पिछले पचास सालों में जो सब से बड़ा बदलाव मौसम में आया है, उसके लिये हर कोई ’ग्लोबल वार्मिंग’ को ही दोषी ठहराते हैं। कैनेडा एक ठण्डा देश है जहाँ पहले सर्दियों में सर्दी जमकर पड़ती थी, चारों ओर बर्फ़ ही बर्फ़ नज़र आती थी और कहीं कहीं तो तापमान शून्य से 40 डिग्री सैल्सियस नीचे तक हो जाता था। बहुत ठण्डक होती थी। यही हाल गर्मियों में गर्मी का था। समय के साथ अब हालात ऐसे हो गये हैं कि न तो सर्दियों में पूरी सर्दी ही पड़ती है और न ही गर्मियों में पूरी गर्मी। बर्फ़ीले तूफ़ान भी काफ़ी कम हो गये हैं। सर्दियों और गर्मियों में कैनेडावासी अपनी छुट्टियाँ मौसम के हिसाब से लेते थे। उन्होंने भी अब अपने आप को मौसम के लिहाज़ से अनुकूल बना लिया है। इन सब के बावजूद, चाहे सर्दी हो या गरमी, यहाँ का कोई भी काम नहीं रुकता।
पिछले 57 सालों में कैनेडा की जनसंख्या 1965 तथा 2021 के उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार 1.98 करोड़ से बढ़कर 3.8 करोड़ हो गई है। जब इतने अर्से में जनसंख्या दुगनी हो गई है तो ज़ाहिर है कि कारों की संख्या में और ट्रैफ़िक में भी उसी तरह से बढ़ोतरी हुई होगी। इसी दौरान एक से बढ़कर एक नये से नये हाइ वेज़ के जो निर्माण हुए हैं वो भी बहुत सराहनीय है। क्षेत्रफल के लिहाज़ से कैनेडा बहुत बड़ा देश है लेकिन कुछ बड़े शहरों की आबादी ही अधिक है। इन्हीं बड़े शहरों के अधिकतर उन घरों में जिन में हर सदस्य की अपनी-अपनी कारें हैं वहाँ घरों के अधिकांश ड्राइव-वे को, घास हटाकर, सीमेंट से या बिटुमिन बिछाकर और भी बड़ा कर दिया है। बहुत से स्थान तो कान्क्रीट जंगल जैसे लगने लगे हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये बड़े शहरों में तो पुराने दो या तीन मन्ज़िलों के अपार्टमेंण्टों को गिराकर ऊँची ऊँची बिल्डिंगें बन गई हैं। घास के नाम पर अब नक़ली घास भी बाज़ार में आने लगी है।
इंग्लिश और फ़्रैंच कैनेडा की दो राजकीय भाषायें हैं। फ़्रैंच का अधिकतर प्रयोग क्युबेक प्रान्त में ही रहा है। मॉन्ट्रियाल में रहते हुए शुरू में फ़्रैंच न आते हुए भी दफ़्तर में और बाहर भी अंग्रेज़ी में बड़े आराम से हमारा काम चल जाता था। हर कोई इंग्लिश समझता और बोलता था। मॉन्ट्रियाल से बाहर पूर्वी क्युबेक में तो कुछ ऐसे शहर थे जहाँ पर फ्रैंच का बोल-बाला था और केवल अंग्रेज़ी से गुज़ारा नहीं होता था। यही नहीं, कहीं-कहीं तो अंग्रेज़ी समझते हुए भी बहुत से लोग ऐसे बरताव करते थे जैसे उन्हें आपकी अंग्रेज़ी में कही बात समझ ही नहीं आई है। हमारे साथ भी एक ऐसी ही घटना घटी थी जब क्युबेक सिटी में हम को ग्रोसरी की एक छोटी सी दुकान में अंग्रेज़ी में पानी माँगने पर पानी नहीं मिला। बाद में मित्रों से पता चला कि यदि मैं एक डॉलर का नोट निकाल कर उस से अंग्रेज़ी में जो कुछ भी माँगता मुझे तुरंत मिल जाता।
60 के दशक में ही कैनेडा से अलग होने को और फ्रैंच भाषा को लेकर क्युबैक के साथ काफ़ी झगड़े भी होने शुरू हो गये थे। एफ़एलक्यु आतंकवादी ग्रुप ने 1963 और 1970 के बीच में 200 से भी अधिक बम्ब फैंके और दर्जनों डकैतियाँ डालीं। इसी ग्रुप ने 5 अक्तूबर 1970 को ब्रिटिश हाई कमिश्नर जेम्ज़ क्रॉस का अपहरण किया और उसे 59 दिन तक एक मकान में छुपा कर रक्खा। 10 अक्तूबर 1970 को क्युबेक के उप-मुख्यमन्त्री पियर लापॉर्ट का अपहरण हुआ और 17 अक्तूबर को उसकी हत्या कर दी गई। उस समय के प्रधान मन्त्री पियर ट्रुडो ने देश में इमर्जेंसी लगा दी थी। यह सब ख़बरें हम टीवी पर लाइव देख रहे थे। सब कुछ देखते हुए बड़ा अजीब सा लग रहा था कि कैनेडा जैसे शान्ति प्रिय देश में भी यह सब कुछ हो सकता है।
कैनेडा की पुलिस काफ़ी सभ्य है और बिना किसी कारण किसी को भी परेशान नहीं करती क्योंकि माना जाता है कि पुलिस का तो काम ही यही है कि आपकी समय पड़ने पर सहायता करे और रक्षा करे। पुलिस की सब सेवायें यहाँ पर पूरी तरह से उपलब्ध हैं। निम्नलिखित ऐसी ही एक घटना आप से साझी कर रहा हूँ।
हम नोवास्कोशिया में रहते थे। मॉन्ट्रियाल से मेरे एक मित्र परिवार सहित हमें मिलने आये हुए थे। पीईआई शहर जाने के लिये हमारा कार्यक्रम केप टर्मन्टाइन, न्यु ब्रन्ज़विक से आख़िरी बड़ी नाव लेने का था। किसी कारण थोड़ी सी देर हो गई। नाव निकल न जाये इसलिये मैं कार तेज़ चला रहा था। नाव के टर्मिनल से कोई दस किलोमीटर पहले मुझे कैनेडा की राष्ट्रीय पुलिस आरसीएमपी के एक पुलिस वाले ने रुकने को कहा। मेरे कहने पर कि हमें फ़ैरी छूट जाने का डर था, वो कहने लगा कि रात का समय है, तुम्हारी कार में चार बड़े और पाँच बच्चे हैं और तुम तेज़ चला रहे थे। तेज़ चलाने के लिये मैं तुम्हें कोर्ट टिकट (चालान काटूँगा) दूँगा। इस से पहले कि अपनी सफ़ाई में मैं कुछ कहूँ, पुलिसवाले ने मुझे बुलाकर अपनी कार में लगे हुए रडार पर जो मेरी गति, दिखा दी। ऐसे में मुझे अपना चुप रहना ही ठीक लगा। पुलिसवाले का अगला सवाल था कि मैं कितने दिन के लिये छुट्टी पर जा रहा हूँ। मेरे बताने पर उसने टिकट तो दिया मगर उसपर कोर्ट की पेशी की तारीख़ हमारे वापस घर पहुँचने से दो सप्ताह बाद की दी और कहा कि कार तेज़ मत भगाना। कोई पन्द्रह मिनट बाद जैसे ही हम टर्मिनल पर पहुँचे नाव हमारा इन्तज़ार कर रही थी। चालक ने बताया कि पुलिस का फ़ोन आया था और उन्होंने आपके लिये रुकने को कहा था।
नोवास्कोशिया पूर्वी कैनेडा का एक बहुत ही सुन्दर प्रान्त है। यहाँ के लोग बहुत शान्त स्वभाव के साथ-साथ सदा से बहुत ही मिलनसार रहे हैं। कैनेडा के अन्य बड़े प्रान्तों के और शहरों के मुक़ाबले में यहाँ का जीवन बहुत सरल रहा है। नोवास्कोशिया में एक समय ऐसा भी आया था जब स्कूल अध्यापकों की बहुत ज़बर्दस्त माँग होने के कारण बहुत सारे भारतीय शिक्षण में आ गये और प्रान्त के विभिन्न भागों में नियुक्त हुए। छोटे-छोटे ग्रामों में बसे इन भारतीय से मिलकर बहुत ही आनन्द का अनुभव होता था।
आजकल प्रगति के नाम पर, धीरे-धीरे, विश्व में संयुक्त परिवार का चलन कम होता जा रहा है फिर भी 60 के दशक में इसकी झलक देखने के कई अवसर मिले और वो भी एक फ़ार्म पर जाकर। ऐसा ही एक अनुभव आपसे साझा कर रहा हूँ।
स्वयं घर में ही बनाये पनीर से छैने की मिठाई बनाने के लिये हम एक बार नोवा स्कोशिया के शहर ऐण्टिगोनिश के नज़दीक एक फ़ार्म में ताज़ा दूध लेने पहुँच गये। पहले तो वहाँ के क़ायदे के मुताबिक़ मालिक बिना पेस्चराइज़ किये हुए ताज़ा दूध बेचने को तैयार नहीं हुआ। हमारे थोड़ा ज़ोर डालने पर वो मान गया। हमारे पास कार की विण्डशील्ड वाशर का प्लास्टिक की बड़ी बोतल थी। उसी को धो कर दूध ले लिया। जब पैसे देने का समय आया तो मालिक बोला कि उसके डैडी हिसाब करेंगे। यह व्यक्ति ख़ुद भी कोई साठ-पैंसठ के आसपास का होगा। थोड़ी देर में एक बुज़ुर्ग आया जो नब्बे से ऊपर का लगता था और एकदम सीधा चल रहा था। उस से दूध का हिसाब करने के बाद हम आगे बढ़े ही थे कि हमारी नज़र एक छोटे से बच्चे पर पड़ी जिसे उसकी माँ गौशाला में गउओं के पास स्ट्रोलर में लिटा कर घर के अंदर जा रही थी। हमारे पूछने पर कि छोटे बच्चे को ऐसी जगह क्यों रक्खा हुआ है, वो बोली कि हम किसान लोग हैं और हमारे जानवर ही हमारी जीविका का साधन हैं। ऐसे में अगर हमारे किसी बच्चे को जानवरों से अलर्जी हो जाये तो वो तो हमारे लिये मुसीबत खड़ी हो जायेगी। बच्चे की इम्युनिटी बढ़े, इसी लिये उसे बचपन से ही ऐसे माहौल में रखते हैं।
सैस्केच्वान कैनेडा के पश्चिमी प्रान्तों में से एक है। क़रीब एक लाख की आबादी के इस प्रान्त में अधिकतर खेती बाड़ी होती है। यहाँ का किसान बहुत मेहनती के साथ साथ एक नेकदिल इंसान भी देखा गया है। यहाँ पर सर्दियों में तापमान माइनस 40डिग्री सैल्सियस तक भी हो जाता है। यहाँ बर्फ़ बहुत कम पड़ती है लेकिन तापमान के कारण सर्दियों में सड़कें जम तो जाती हैं लेकिन कार चलाने में कोई परेशानी नहीं आती। ऐसे में तापमान यदि थोड़ा सा भी ऊपर आ जाये तो कहीं-कहीं सड़कों की बर्फ़ पिघलने लगती और वहाँ ’ब्लैक आइस’ बन जाती है। जैसे ही इस ब्लैक आइस पर कार का पहिया पड़ता है, गाड़ी आपे से बाहर और सीधी खड्ड में जाती है। अच्छी बात यह है कि थोड़ी देर में कोई न कोई किसान अपने ट्रक से गुज़रता नज़र आयेगा और आपकी ओर ट्रक से निकाल कर रस्सा फेंकेगा और आपकी कार खड्ड से निकालने में पूरी सहायता करेगा। मेरे साथ भी इस क़िस्म की घटनायें कई बार हो चुकी हैं।
एक प्रश्न जो मुझसे आम पूछा जाता है वो है 60 की दशक में ’रेसिज़्म’और ’डिस्क्रिमिनेशन’ (जातिवाद और भेदभाव) को लेकर मेरा क्या अनुभव रहा। इस बारे में मैं यही कहूँगा कि उस समय कैनेडा में अधिकतर इंग्लिश, स्कॉटिश, इटालियन, फ़्रैंच इत्यादि काफ़ी लोग थे। जहाँ तक मेरा इन लोगों से वास्ता पड़ा और वास्ता पड़ा भी काफ़ी था, मुझे या मेरे परिवार में से किसी सदस्य को कभी भी इस दौर से गुज़रना नहीं पड़ा कि हमारे साथ कोई भेदभाव हो रहा हो। हाँ, कई बार अपने ही लोगों से सुनने को मिलता था कि किसी स्टोर में या कहीं और उनके साथ या उनके किसी जानने वाले के साथ ठीक व्यवहार नहीं हुआ है। वैसे कभी कभी हमारे लोगों को देखकर कुछ सिरफिरे ’पाकी’ कह कर चिढ़ाते थे। यह दौर भी कुछ दिन रहा और बाद में बहुत ढीला पड़ गया।
जैसे जैसे कैनेडा की 1965 की जनसंख्या 2021 तक दुगनी होती गई, देश में दुनिया के हर कोने से लोग प्रवासी बन करके आने लगे और यही एक बहुत बड़ा कारण है कि नस्लवाद और भेदभाव में बहुत कमी आती गई। आज के माहौल में तो इसको लेकर बहुत जागृति आ गई है। ऐसे में कोई भी छोटी या बड़ी भेदभाव घटना घटने पर प्रैस तथा टीवी उसका काफ़ी प्रचार करते हैं और ख़ूब उछालते हैं। निजी तौर पर, जिस कम्पनी में मैंने पहली नौकरी ली थी उनके साथ मैं 25 साल तक रहा। उसी कम्पनी के द्वारा ही मुझे एल-साल्वाडोर को छोड़ कर क्युबेक, नोवास्कोशिया, ईरान, सैस्केच्वाम, नाइजिरिया और ओन्टेरियो आदि कैनेडा के अनेक प्रांतों में परिवार सहित सालों रहने का मौक़ा मिला। काम के सिलसिले में मुझे न्युफ़ाउण्डलैण्ड, एल्बर्टा में भी जाना पड़ता था। घूमने के लिये कैनेडा के बाक़ी सभी प्रान्तों में भी हमारा काफ़ी आना जाना हुआ है और इसी दौरान में तो हम ने बहुत सारे मित्र बनाये तथा कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि कोई किसी भेदभाव का शिकार हुआ है। हाँ, एकाध बार यहाँ मेरे काम पर अगर किसी ने कोशिश करने की ज़ुर्रत की भी तो ऐसा क़रारा जवाब दिया कि वो बग़लें झाँकने लगा।
पीछे मुड़कर देखता हूँ तो कैनेडा में तो पता लगता है कि सारी ज़िन्दगी ही यहाँ गुज़ार दी। 57 साल होने को आये हैं तथा यहाँ पर तरह-तरह के अनुभव भी हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद भिन्न भिन्न संस्थाओं में वॉलण्टियरी काम करके पता चलता है कि जिस देश ने हमें इतना कुछ दिया है, अब हमारी बारी है कि हम भी उस देश के लिये कुछ करें। अमरीका के राष्ट्रपति कैनेडी के शब्द “मत पूछो कि देश तुम्हारे लिये क्या कर सकता है—पूछो कि तुम देश के लिये क्या कर सकते हो” का अब समय गया है। अन्त में बस यही कहना चाहूँगा कि मुझे दो बार अमरीका में प्रवास करने का मौक़ा मिला था लेकिन मैंने उसे नकार दिया। पलट कर जब मैं देखता हूँ, अब मुझे अपना फ़ैसला सही लगता है। हालाँकि अमरीका का कैनेडा के कारोबारों और दैनिक जीवन में बहुत प्रभाव है फिर भी मेरा देश कैनेडा चाहे अमरीका से कितना ही प्रभावित हो लेकिन यहाँ पर जो सकून है, अपनापन है, यार दोस्त हैं और प्यार भरा माहौल है वो शायद और कहीं नहीं है।