क्यों लिखूँ, किसके लिये?
यह प्रश्न मन को बींधता है।
लेख में मेरे जगत की
कौन सी उपलब्धि संचित?
अनलिखा रह जाय तो
होगा भला कब, कौन वंचित?
कौन तपता मन मरुस्थल
काव्य मेरा सींचता है?
क्यों लिखूँ, किसके लिये?
यह प्रश्न मन को बींधता है।
भाव शिशु निर्द्वन्द्व
सोया हुआ है मन की तहों में।
क्यों जगा कर छोड़ दूँ,
खो दूँ जगत की हलचलों में?
है प्रलोभन वह कहाँ
जो इसे बाहर खींचता है?
क्यों लिखूँ, किसके लिये?
यह प्रश्न मन को बींधता है।
छू सके जग हृदय को,
कब लेखनी ने शक्ति पाई?
कब, कहाँ, इससे, किसी के
भाव ने अभिव्यक्ति पाई?
कौन इससे पा सहारा,
नयन दो पल मींचता है?
क्यों लिखूँ, किसके लिये?
यह प्रश्न मन को बींधता है।
लिखूँ, और, अपने लिए,
यह बात मन भाती नहीं है,
क्योंकि अपने लिए
जीने की कला आती नहीं है।
निज सृजन किस हेतु फिर,
हर शब्द मुझसे पूछता है।
क्यों लिखूँ, किसके लिये?
यह प्रश्न मन को बींधता है।