प्रत्येक देशवासी अपने देश, अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा आदि से बहुत प्रेम करता है। हम देखते हैं कि जीविकोपार्जन हेतु भारत से बाहर जाने वाले प्रवासियों में से ऐसे अनेक प्रवासी है जिन्होंने अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक विरासत के रूप में हिन्दी को जीवित रखते हुए साहित्य सृजन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अपने उम्दा साहित्य सृजन के द्वारा इन सर्जकों ने प्रवासी हिन्दी साहित्य को काफ़ी समृद्ध किया है।
लाख छू आएँ
चिड़ियाँ आकाश को
प्यार नीड़ से।
(कृष्णा वर्मा)
इन चंद शब्दों में मानो एक तरह से प्रत्येक प्रवासी की भावना और विशेषतः प्रवासी सर्जकों की सृजनात्मक संवेदना की बुनियादी पहचान कराने वाली कृष्णा वर्मा ने विगत एक दशक में कैनेडा के सृजनात्मक हिन्दी साहित्य में अपनी एक विशेष जगह एवं पहचान बनाई। आज प्रवासी हिन्दी सर्जकों की लम्बी सूची में कृष्णा वर्मा का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। कृष्णा जी की साहित्य यात्रा लगभग वर्ष 2008 में आरंभ हुई। तबसे लेकर अब तक उनके चार काव्य संग्रह एवं एक दर्जन से अधिक लघुकथाएँ प्रकाशित हुए। यह उल्लेखनीय है कि कृष्णा जी की प्रथम कृति ‘अम्बर बाँचे पाती’ (2014) कैनेडा का प्रथम ‘हाइकु’ संग्रह है। उसके बाद ‘देहरी पर धूप’ (सेदोका-संग्रह, 2020) एवं ‘बरसी सुगंध’ (ताँका-संग्रह, 2020) दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। ये दोनों भी क्रमशः कैनेडा के प्रथम ‘सेदोका’ एवं ‘ताँका’ काव्य शैली के संग्रह है। वर्ष 2021 में इनका दूसरा हाइकु संग्रह ‘सिंदूरी भोर’ प्रकाशित हुआ और ‘मन की उड़ान’ (हाइकु संग्रह) प्रकाशाधीन है। संयुक्त सम्पादन में ‘संभावनाओं की धरती’, ‘सपनों का आकाश’, ‘सप्तरंग’ कृष्णा जी के कुछ उल्लेखनीय प्रकाशन है। वर्ष 2019 में इनके अतिथि सम्पादन में हिन्दी चेतना का हाइकु-विशेषांक भी प्रकाशित हुआ। कृष्णा जी ‘हिन्दी राइटर्स गिल्ड’ (टोरोंटो, कैनेडा) की परिचालन निदेशिका एवं कैनेडा की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘हिन्दी चेतना’ की सह-सम्पादिका के रूप में कार्यरत है।
वैसे तो कृष्णा जी ने गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है; लेकिन उनका मन इन जापानी काव्य शैलियों में अधिक रमा है। जापानी नन्हा काव्य रूप ‘हाइकु’ 5-7-5 (3 पंक्तियों में कुल 17वर्ण), ‘ताँका’ 5-7-5-7-7 (5 पंक्तियों में कुल 31 वर्ण) एवं ‘सेदोका’ 5-7-7, 5-7-7 (6 पंक्तियों में कुल 38 वर्ण) वर्णों की काव्य रचनाएँ हैं, जिसमें कवयित्री ने सर्वाधिक सृजन किया है।
प्रकृति के बिना तो हमारे जीवन के कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रेम प्रकृति तो एक तरह से कविता के शाश्वत विषय ही कहे जा सकते हैं। हर देश, हर काल, हर भाषा की कविता में इन उभय विषयों की केंद्रीयता रही है। जीवन का अभिन्न अंग और सृजन की अद्वितीय प्रेरणा रही प्रकृति के विस्तार और वैविध्य को साहित्यकारों ने विविध रूपों में चित्रित किया है। डॉ. लालता प्रसाद सक्सैना लिखते हैं—“अपनी भाव-रस-धारा में निमग्न आत्म विभोर भावुक कवि प्रकृति को विभिन्न दृष्टियों से देखता है। कभी वह प्रकृति को मानवीय धरातल लाकर उसमें समान भाव, गुण, कार्य, आकृति, वेशभूषा आदि का दर्शन करता हुआ मानव तथा प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करता है, कभी मानव को प्रकृति धरातल पर ले जाकर उसके अंग-प्रत्यंग, रूप-लावण्य, भाव-गुण, कार्य-व्यापार आदि के आधार पर उसका प्रकृतिकरण करता हुआ दोनों का अभेद दर्शाता है, कभी प्रकृति को मानवीय सुख-संवर्धन के उपकरणों के रूप में, मानव-कार्य-व्यापारों की पृष्ठभूमि के रूप में, मानव-भावों के आलंबन के रूप में, जागृत भावों के उद्दीपन के रूप में अथवा शोक-संतप्त मानव के प्रति संवेदनात्मक रूप में अंकित-चित्रित करता है।” (उद्धृत–बृहत-साहित्यिक निबंध, डॉ. यश गुलाटी, पृ. 601)
वर्ण्य विषय की सृष्टि से हाइकु काव्य वैसे भी प्रकृति के ज़्यादा निकट रहा है। प्रकृति के प्रति विशेष आकर्षण कृष्णा जी के हाइकु एवं अन्य काव्य शैलियों से संबद्ध रचनाओं में बख़ूबी देखा जा सकता है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के बिना हमारे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। सूर्योदय और सूर्यास्त का बड़ा ही सुंदर एवं सहज चित्रण कवयित्री ने कुछ इस प्रकार किया है:
जगा पूरब/ स्वर्णिम आलोक ने/ ली अँगड़ाई।
डूबे बगैर/ सूर्य भी ना ला पाता/ नवेली धूप।
भारत में आदिकाल से बारहमासा एवं षड् ऋतु वर्णन की परंपरा चली आ रही है। आधुनिक काल में भी कई रचनाकारों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। वसंत ऋतु से भारतीय नववर्ष का आरंभ माना जाता है। इस ऋतु में प्रकृति का सौन्दर्य अद्भुत होता है। वसंत के इस अभूतपूर्व सौन्दर्य को कवयित्री के विशिष्ट शब्द चयन ने और अधिक प्रभावी बना दिया है, यथा:
फूलों की गंध/हवा के काँधों पर/सवारी करे
टेसू का छौना/नारंगी झबले में/लगे सलोना।
ऋतु शैतान/ कली की हथेली पर/ लिखे शृंगार/ भृंग टोलियाँ करें/ आ, न्यौछावर प्यार। (ताँका)
हर्षी प्रकृति/ आया बसंत कंत/ सजी दुल्हन-सी/ नव अनंता/ अंतस भरा प्यार/ किया आज शृंगार। (सेदोका)
एक ओर जहाँ प्रकृति के सौन्दर्य से मन प्रफुल्लित होता है तो दूसरी ओर उसकी भीषणता हमारे दिल को दहला देती है। वसंत ऋतु के पश्चात् ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति का रौद्र रूप कुछ इस प्रकार होता है:
टँगा सूरज/ ज़िद की खूँटी पर/ पीए अंगार।
तड़पा पानी/घड़ा ओढ़े अंगोछा/गर्मी ना मानी।
जेठ की भोर/ भट्टी-सी तपी रेत/ बीज शैशव/ ले रहा अँगड़ाई/ लू की लहर पर। (ताँका)
सिर्फ़ सावन की झड़ी ही इस भीषण गर्मी से छुटकारा दिला सकती है। वर्षा, शरद, हेमंत एवं शिशिर ऋतुओं में प्रकृति अपने रूप बदलती हुई नज़र आती है जिसका मनोहारी चित्रण कृष्णा जी ने कुछ इस प्रकार किया है:
ग्रीष्म की बेड़ी/ मौसम लुहार ने/ काटी वर्षा से।
बना के कैदी/ मेघों ने सूरज को/ बदल दिए/ दिन अंगारों के यूँ/ भीगे भिनसारों से। (ताँका)
सोया सूरज/ ओढ़ गर्म लिहाफ/ ठिठुरे पंछी।
रूठीं लताएँ/ कंगन उतारे क्यूँ/ पतझड़ ने।
पत्ते क्या गिरे/ छाने लगी उदासी/ ओस के आँसू झरे/ उन्मन पेड़/ पगडण्डी सीली-सी/ गीले हैं खेत-मेड़। (सेदोका)
कृष्णा जी की रचनाओं में भारत एवं कैनेडा दोनों ही स्थानों का प्राकृतिक सौन्दर्य दृष्टिगत होता है। भारत में सभी स्थानों पर हिमपात नहीं होता लेकिन कैनेडा में हिमपात और बेहद ठण्ड का अनुभव एक आम बात है। अत्यधिक शीत में भी प्रकृति का रूप कुछ इस तरह से लुभा रहा है:
हिम यूँ झड़ी/ शाख-शाख लिपटी/ माणिक लड़ी।
सर्दी का छोरा/ माना नहीं लाने से/ हिम का बोरा।
पतझड़ से/ तरू और लताएँ/ वस्त्रहीन हो जाएँ/ शीत ऋतु आ/ चाँदी से चमकते/ हिम वस्त्र ओढ़ाए। (सेदोका)
प्राकृतिक सौन्दर्य के सूक्ष्म निरीक्षण को अपनी रचनाओं में बख़ूबी प्रस्तुत करने में कवयित्री सफल हुई है। विद्वानों ने मानवीकरण को पाश्चात्य अलंकार माना है लेकिन भारतीय काव्य परम्परा में मानवीकरण को प्रभाव या चमत्कार उत्पन्न करने वाली एक सहज शैली के रूप में देखा गया है। कृष्णा जी के काव्य में मानवीकरण के एक से बढ़कर एक सुन्दर दृश्यों में से कुछ उदाहरणतया यहाँ प्रस्तुत है:
खेलें सितारे/ नदिया की छाती पे/ आँख-मिचौनी।
भोर के कान/ रात बीती कहता/ प्रहरी चाँद।
दूब के माथे/ रात लिखे ओस से/ भीगे से पत्र।
मोहिनी रात/नागिन-सी लहरे/रीझे है चाँद।
शरमाई-सी/ लेटी है सिरहाने/ गुलाबी धूप।
हुए नशीले/ मौसम के नयन/ ख़ुश बहार/ पत्ते बजाएँ ताली/ हवा गाए मल्हार। (ताँका)
छुआ हवा के/ हाथों ने हौले से/ नदिया के नीर को/ बज उठी हैं/ नदी की कलाई में/लहरों की चूड़ियाँ। (सेदोका)
टिमके तारे/ रात को अँधेरे में/नदी में डोल-डोल/ दें थपकियाँ/मीठी लोरियों गाएँ/ लहरों को सुलाएँ। (सेदोका)
मानवीकरण के अतिरिक्त प्रकृति के आलंबन-उद्दीपन रूप की सहज और सुन्दर अभिव्यक्ति, प्रकृति के प्रभावशाली सजीव चित्र, मनोहारी बिम्ब भी कृष्णा जी के काव्य में दिखाई देते हैं। डॉ. सुधा गुप्ता जी कहती हैं–“इनके हाइकु में ताज़गी है, ‘एहसास’ की धरती पर अंकुरित, आँखों देखे यथार्थ का अंकन प्रभावी है, प्रकृति से जुड़ाव और मौलिक उद्भावनाओं के प्रसूत बिम्ब मनोहारी हैं।”
पत्तों के कानों/ हवा फुसफुसाए/ लोक व्यथाएँ।
गूँथती धूप/ बदली के बालों में/ कुन्दनी तारें।
खोल पिटारी/ टाँके साँझ नभ में/ गोटा-किनारी।
खिसके दिन/ पल-पल घटती/ धूप की उम्र।
कालिमा लिये/ खड़ी साँझ के द्वार/ रात बेजार।
निर्भीक बहे/ नदिया सीने संग/ लिपटी कश्ती/ लहरों के काँधे पे/ चढ़के करे मस्ती। (ताँका)
बाँधे घुँघरू/ मलय पवन ने/ होठों पर राग/ मेघों ने ढोल पीटे/ बुँदियों की बारात। (ताँका)
मेघ ही नहीं/ बरसाता फुहारें/ टूटी छतों से/ छिटकाए चाँद भी/ मरमरी चाँदनी। (ताँका)
प्रकृति के विविध रूपों में रहस्यमयी रूप का चित्रण कवयित्री ने कुछ यूँ किया है:
पगला चाँद/ भटके शब भर/ ढूँढ़े क्या ख़ास।
कौन ताबीज़/ घोल पिलाए निशा/ चाँद लौलीन।
सजीव बिम्बों का प्रयोग तो काव्य को मनोहारी बना ही देता है लेकिन उसके साथ भारतीय लोक संस्कृति की झलक प्रस्तुत करने में भी कृष्णा जी सफल दिखती है। अर्घ्य देना, माथे पर बिंदी को अखंड सुहाग की मान्यता आदि प्रयोगों से उनके हाइकु और अधिक प्रभावशाली बन पड़े हैं:
नदी जल में/ नहा के हवाएँ, दे/ सूर्य को अर्घ्य।
सूर्य भू माथे/ अखंड सुहाग की/ टिकुली टाँके।
लक्षणा एवं व्यंजना शब्द शक्तियों को काव्य का उत्तम गुण माना गया है। विशेषतः हाइकु जैसे लघुकाय काव्य रूप में तो सांकेतिकता, लाक्षणिकता और व्यंजना का अधिक महत्त्व है। हम जानते हैं कि बारिश न होने के कारण सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है। देखिए ज़रा इस इस बात को कुशल कवयित्री ने सांकेतिक-लाक्षणिक शैली में कितनी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है:
शुष्क हुए हैं/ बादलों के अधर/ वन लापता।
प्रकृति हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है लेकिन मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए इसका, इसके संसाधनों का दोहन करते जा रहा है। आधुनिकता और टेक्नोलॉजी के इस दौर में तथा आगे बढ़ने की होड़ में हम पर्यावरण को दूषितकर प्रकृति को बहुत नुक़्सान पहुँचाते जा रहा है। वैसे तो काव्य में प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन मिलता ही है लेकिन प्रकृति से प्रेम करने वाली इस कवयित्री ने इस समस्या की ओर भी ध्यान दिया है। फैलते पर्यावरण प्रदूषण को देखकर कवयित्री का हृदय काँप उठता है। एक ओर वनों के कटते चले जाने से जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ ख़तरे में हैं तो दूसरी ओर वायु-जल-मृदा-ध्वनि-नभ प्रदूषण के दुष्परिणाम भी हमारे सामने है। फिर भी मनुष्य है कि अपनी मनमानी करता जा रहा है। प्रदूषण को लेकर एक जागृत प्रकृति संरक्षक के रूप में कृष्णा जी की क़लम का स्वर सुनिए:
कैसा उत्थान ?/ छीनते परिंदों से/ नीड़ व गान।
ढोर-डंगर/ ना तन पे जंगल/ बुच्चे पहाड़।
हवा विषैली/धरा भोगे पीलिया/ नभ बीमार।
काट बिरिछ/ सुहागिन धरा की/ माँग की सूनी।
रोए दहाड़/ लुटे तस्करों से/ जो नंगे पहाड़।
सूखी नदियाँ/ जाल डाले मछेरा/ किस लहर/ कट गए हैं वृक्ष/ पंछी बैठे किधर। (ताँका)
प्रदूषण ने/ कर डाला गंगा को/ हाय कितना मैला/ प्रवाहित न/ होना चाहेंगे अब/ किसी अस्थि के फूल। (सेदोका)
प्रेम मनुष्य के जीवन का आधार है। जब आप अपने प्रिय के साथ हो तो कोई चिंता नहीं रहती। मुश्किल भी आसान लगती है। लेकिन अपने प्रियतम से दूरी कौन सह सकता है और फिर यादों के दीप दिल में जल उठते हैं। प्रेम में होने वाली विविध अनुभूतियों को कवयित्री ने कुछ यूँ बयाँ किया है:
तुम्हारा साथ/ अमावसी जीवन/ लगे उजास।
मरी है नमी/ शुष्क नैन कटोरे/ दरके रिश्ते/ किया दिल पाषाण/ तुम्हारी बेरुख़ी ने। (ताँका)
हुआ बेरंग/ जीवन बिन तेरे/ टूटी है आस/ पनघट पर बैठी/ प्यासी की प्यासी प्यास। (ताँका)
यूँ दबे पाँव/ यादों के दीये जला/ उतरे शाम।
लिपटी रहीं/ स्मृति-परछाइयाँ/ कभी डँसती/ कभी सहला जातीं/ अज़ब रानाइयाँ। (ताँका)
यादों के पंछी/जब जब आ बैठे/ मन के अँगना में/ हिला जाते हैं/ अनजाने में कहीं/ वह दिल के तार। (सेदोका)
उतर आऊँ/ रात धुँधलके में/ चाँदनी बनकर/ तेरे अँगना/ लम्हों ने जो छीना था/ फिर से साथ जिएँ। (सेदोका)
हमारे जीवन में रिश्तों की बहुत अहमियत है। रिश्ते हमारे जीवन को ख़ुशियों को सरस बनाते हैं। रिश्तों के बिना जीवन नीरस लगता है।
मिटे विषाद/ मिले जो अपनों का/ भुज-बंधन/ रिश्ते महक उठें/ जैसे चंदन-वन। (ताँका)
परंतु ये रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं। एक हल्के-से झटके से बरसों पुराना रिश्ता भी तार-तार हो जाता है:
ठंडे देश में/ रिश्ते अकड़ जाएँ/ ठंडे जज़्बात।
सूखी है नमी/ प्यार की हुई जब/ रिश्तों में कमी।
हैं अनमोल/ यह ख़ून के रिश्ते/ अपना हिस्सा/ देके उन्हें रोक लो/ आँगन में दीवार। (ताँका)
वक़्त निकाल/ करलो स्वजन से/ दो मीठी बातें/ रहेगा मलाल जो/ टँग गए दीवाल। (ताँका)
मुट्ठी में बंद/ हमारी लकीरों से/ फिसल गए/ कैसे हमारे रिश्ते/ रेत के तो नहीं थे। (ताँका)
साहित्य में माँ के महत्त्व को लेकर पहले से ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, कवयित्री की मार्मिक अनुभूतियों को देखिए:
माँ याद आए/ बालों में अंगुली जो/ हवा फिराए।
लिपटी रही/ मेरे मर्म से सदा/ माँ तेरी स्निग्ध छाया/ जब भटकी/अहसास ने तेरे/ रास्ता नया दिखाया। (सेदोका)
मेरे स्वप्न की/ मुँडेर पर जब/रख देती है मेरी/ माँ एक दीया/मिल जाती है दिशा/ स्वप्न की उड़ान को। (सेदोका)
वो बचपन/ लौट आए अगर/ तो हो जीवन ख़ास/ तृप्ति से भरा फिर/ वो माँ का चुल्लू/ बने मेरा गिलास। (सेदोका)
माँ-बाप एवं अन्य रिश्तों के महत्त्व को बताने वाली कवयित्री समाज में व्याप्त खोखले आडम्बरों पर भी प्रहार करती हैं:
वृद्धावस्था में/ माँ-बाप उपेक्षित/ करे दग्ध संतान/ क्षुधा बुझे क्या/ पितृपक्ष में करें/ जो अन्न-धन दान। (सेदोका)
माना कि जीवन में बहुत कड़वे अनुभवों का सामना करना पड़ता है लेकिन इन सब के बावजूद आशावादी दृष्टिकोण हमारे जीवन के लिए बहुत ज़रूरी है। कवयित्री का आशावादी स्वर हमें हौसला प्रदान करने में और जीवन को आसान बनाने में सहायक प्रतीत होता है:
हौसला ज़िन्दा/ समंदर को लाँघे/ नन्हा परिंदा।
बुझाना नहीं/ उजास की प्यास को/ तम से घिरी/ ज़िन्दगी घुट रही/ उठ छाँट अँधेरे।
कटे बिरछ/ मरी नहीं उम्मीद/ नव स्वप्न सँजोए/ नन्ही चिड़िया/ चुन रही तिनके/ नव नीड़ के लिए। (सेदोका)
प्रीत का दीप/ जला दिल-देहरी/ रख नेक इरादे/ मिट जाएगा/ तम इस ओर भी/ और उस ओर भी। (सेदोका)
अपने देश से दूर रहकर भी अपने देश के प्रत्येक त्यौहार की अधिक याद आती है। इस बात को कृष्णा जी की रचनाओं में
देखा जा सकता है। उन्होंने बहुत से त्यौहारों का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। उदाहरण के लिए दीपावली के सुन्दर-मोहक चित्र देखिए:
नन्हे-से दीप/ कुम्हार कलाकारी/ गुम अँधेरा/ प्रदीप्त वर्तिकाएँ/ अमावस पे भारी। (ताँका)
मल के गेरू/ खड़िया के कटोरे/ थे इतराए/ घुटनों डूबे तेल/ वर्तिकाएँ नहाएँ। (ताँका)
माटी-पुत्र ने/ कपास की बेटी को/ प्यार में भीगी/ तिल-तिल दमकी/ जब गले लगाया/ उजियारा फैलाया। (सेदोका)
अपने देश से–अपनी संस्कृति से दूर परदेश में अकेले रहकर इन त्यौहारों की स्मृतियों में खोकर कवि हृदय कह उठता है:
भूले हैं होली/ सिमट गए रंग/ विदेशी झोली।
आज हम वैश्विक महामारी से जूझ रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर कोरोना के दुष्प्रभाव को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इस परिस्थिति पर एक सुन्दर हाइकु देखिए:
वक़्त की शान/ डरा सहमा आज/ हर इंसान।
कवि उपदेशक नहीं होता लेकिन कभी-कभी उपदेश अथवा नीति शिक्षा दे ही देता है:
धूप व साए/ होते नहीं अपने/ सदा पराए।
खड़ी अकेली/ जेठ दोपहरी-सी/ तपे ज़िन्दगी।
जीवन मात्र/ मृत्यु की अमानत/ उधारी साँसे/ लिखा ना मिट पाता/ फेंको जितने पासे। (ताँका)
मोहक प्रकृति एवं मनुष्य जीवन के विविध पहलुओं को रेखांकित करने वाली कृष्णा जी ने जीवन दर्शन से संबंधित अपने विचारों को कविता के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है:
बंदे की ज़ात/थैली भर अस्थियाँ/ मुट्ठी में राख।
आ सहला दूँ/ नसीब तेरे पाँव/ दुखते होंगे/ मार-मार ठोकरें/ रोज़ मेरे ख्वाबों को। (ताँका)
बड़ी कठिन/ ज़िन्दगी की किताब/ पढ़ें तो कैसे/ पल-पल बदलती/ ये अपने मिज़ाज। (ताँका)
नाच रहा है पल-पल जीवन/ नट के जैसे/ लचक सँभलता/ गज़ब संतुलन। (ताँका)
क्षण का खेल/ गुब्बारे-सी ज़िन्दगी/ जाती है फूट/ अनंतकाल तक/ कौन चला अटूट। (ताँका)
समय के महत्त्व एवं इस सृष्टि के रचयिता को लेकर लिखी गई कुछ सुन्दर काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य है–
बीता ना लौटा/ यही मेरा परिचय/ मैं हूँ समय।
उसका चाक/ है माटी भी उसी की/ जैसा जी चाहे/ रचे सृजनहार/ है कुशल कुम्हार। (ताँका)
कवयित्री का उत्कृष्ट शब्द चयन देखिए–‘सीना भी छिदवाया’ कहकर निर्जीव बाँसुरी में भी प्राण फूँक दिए:
कैसी बावरी/ साँवरे की बाँसुरी/ नेह लगाया/ होठों से लगने को/ सीना भी छिदवाया। (ताँका)
वैसे तो कृष्णा जी के काव्य में रूपक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों, प्रतीकों का प्रयोग दृष्टिगत होता है। इसके अतिरिक्त शब्द चयन में निपुण कवयित्री ने विशेषण विपर्यय के बहुत ही सुन्दर प्रयोग किए हैं। कुछ विशेषणों जैसे–धूप निगोड़ी, नदी कुँवारी, नदी मज़दूरन, अकड़ू धूप, रेत चपल, निगोड़े आकाश आदि के सटीक प्रयोगों से कवयित्री मन-वांछित प्रभाव उत्पन्न करने में सफल रही है। इन प्रयोगों के कारण काव्य में चमत्कार तो उत्पन्न हुआ ही है, साथ ही सुन्दर बिम्बों को अनुभव कर पाठक वाह कहे बिना नहीं रह पाता:
धूप निगोड़ी/ छाँव का हाथ धर/ भागती फिरे।
नदी कुँवारी/ गई प्यास बुझाने/ हो गई खारी।
काँधे ढो लाए/ नदी मज़दूरन/ शैल की गाद।
देख सूर्य को/ पसीने में नहाई/ अकड़ू धूप।
रेत चपल/ घट भर पी गई/ मेघों का जल।
हिम से भरी/ निगोड़े आकाश ने/ कलसी पलटाई/ ठिठुरी घाटी/ सूरज ओढ़ा गया/ आ धूप की रजाई। (सेदोका)
वैसे तो कथ्य और शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो कृष्णा जी का काव्य बहुत विस्तृत एवं विविधता लिए हुए है लेकिन यहाँ पर सबका समावेश सम्भव नहीं है। यहाँ तो उसकी सिर्फ़ एक झलक ही प्रस्तुत की जा सकी है। उपर्युक्त सभी सुन्दर काव्य रचनाओं के अतिरिक्त कृष्णा जी ने बेहतरीन लघुकथाएँ भी लिखी हैं, जिनमें से उनकी तेरह लघुकथाएँ–‘औकात’, ’छुटकारा’, ’बी प्रैक्टिकल’, “प्यास’, ’फ़र्क’, ’लगाम’, ’गैप’, ’शून्य का बोझ’, ’सबका मालिक एक’, ’अनोखा सुख’, ’पेंशन’, ’मजहब’ एवं ‘हैप्पी मदर्स डे’ विविध पत्र-पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं एवं संपादित पुस्तकों आदि में ये प्रकाशित हुई हैं। यह सभी कथाएँ सहज-सशक्त भाषा, सफल प्रतीकों के प्रयोग, सफल शीर्षक आदि के चलते शिल्प-संरचना की दृष्टि से सुदृढ़ बन पड़ी है। यदि इन लघुकथाओं के कथ्य पर एक विहंगम दृष्टिपात किया जाए तो इनमें विविध रिश्तों की अहमियत के साथ-साथ उनमें आए बदलाव, गिरते नैतिक मूल्यों, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक विषमता के साथ-साथ यथार्थ का बख़ूबी प्रस्तुतीकरण देखा जा सकता है। इसके साथ ये लघुकथाएँ मानवीय संवेदना के महत्त्व को ज़्यादा इंगित करती नज़र आती हैं।
अंत में हम कृष्णा जी के साहित्य के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गद्य हो अथवा पद्य, एक ओर उनकी रचनाओं में प्रकृति के प्रति विशिष्ट आकर्षण नज़र आता है तो दूसरी ओर वे अपने आसपास के परिवेश, परिस्थितियों के प्रति भी सजग एवं चिंतित हैं। उनकी रचनाओं में भावों की कोमलता तो है ही, शब्द चयन एवं विषय चयन का गांभीर्य पाठक के हृदय में सुन्दर मोहक चित्र उत्पन्न करने में सक्षम हैं।