विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

तारों की छाँव में विदाई का महूर्त था, सो नियमित समय पर एक बार फिर, सब सक्रिय हो गए—अंतिम चरण के रस्म-रिवाज़ निभाने के लिए। सीमा की उम्र यूँ तो इक्कीस वर्ष थी, पर शायद उसका अल्हड़ बचपन, यौवन की देहरी पर क़दम रखने के लिए एक दो बरस और माँग रहा था . . . 

ख़ैर . . . 

भारी लहँगे, ज़ेवर, और दिन भर की रस्मों से बोझिल तन लिए वह फूलों से सजी गाड़ी में जाकर बैठ गई-एक अनजान सफ़र की ओर, एक अनजान व्यक्ति के साथ . . .! 

सब कुछ ठीक वैसे ही चल रहा था जैसे उसने सिनेमा में अक़्सर देखा था। 

तभी उसने देखा उसके पिताजी भीड़ को चीरते हुए, एकदम खिड़की के पास आकर, रुआँसी आवाज़ में उसे पुचकार रहे हैं, उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा रहे हैं . . .। 

सीमा अवाक्‌ रह गई . . .

पापा रो रहे हैं? . . . मेरे पापा, रो रहे हैं? . . . मेरे पापा क्यों रो रहे हैं? . . .वो तो हमेशा हँसते हँसाते रहते हैं . . .! 

सीमा का जी चाहा वो जल्दी से उतर कर उनसे पूछे . . ., और इसी व्याकुलता में वह भी सिसक सिसक कर रो पड़ी . . . 

तभी उसकी बग़ल की सीट से एक गर्जन सी आई, “रो क्यों रही हो, क्या तुम्हें ख़ुशी नहीं कि तुम्हारा विवाह मुझसे हुआ है?” 

सीमा सिहर गई . . . इतनी शुष्क आवाज़ उसने पहले कभी नहीं सुनी थी, . . . और कैसा अटपटा सा सवाल था . . . उसे तो यह भी नहीं समझ आ रहा था कि उन आधी-अधूरी सिसकियों का वो क्या करे . . .? उसने तो सिनेमा में यही देखा था कि ऐसे में हीरो झट से आश्वासन देता है, 'प्रिय सब ठीक है, मैं हूँ न।'

उसी क्षण, न जाने कब-कब में, वो एक अल्हड़ सी लड़की से युवती बन गई और जान गई कि शायद अब वो जीवन में कभी खुल कर नहीं रो पाएगी . . .

और न . . . हँस ही पाएगी! 

अम्मा के कहने पर, भाइयों ने गाड़ी को पीछे से हाथ लगाया . . . और उसके सपने विदा हो चले . . . हमेशा हमेशा के लिए! 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कविता
पुस्तक समीक्षा
पत्र
कहानी
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
लघुकथा
कविता - हाइकु
स्मृति लेख
गीत-नवगीत
किशोर साहित्य कहानी
चिन्तन
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ