दीपक पाण्डेय—
धर्म जी आप कैनेडा में रहकर हिंदी सृजन कर रहे हैं, झाबुआ से अमेरिका और कैनेडा तक आपका हिंदी सफ़र कैसा रहा। विश्व-गाथा में प्रकाशित व्यंग्य 'गंगा गूंगी है' पढ़ा जो रोचक और वास्तविकता की बयानी करता है। हिंदी-लेखन में आपकी रुचि कैसे बनी?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
लेखन में रुचि स्कूल के दिनों में ही विकसित होना शुरू हुई और पहली कविता जल्दी ही स्वदेश (इंदौर) के मार्च 1966 के होली विशेषांक में छप गई। मेघनगर (झाबुआ) से अमेरिका और कैनेडा तक की यात्रा की कोई पूर्वयोजना नहीं थी। जो मिला वही मुकद्दर समझ लिया की तर्ज़ पर घर से निकला तो ठौर-ठौर दूर होता गया। 1972 में दैनिक स्वदेश के संपादक मंडल में शामिल हुआ, कुछ महीने काम किया और एम.एससी. करने उज्जैन चला गया। 1974 से बैंक ऑफ़ इंडिया की उज्जैन शाखा में काम करते हुए बैंक की मुंबई से प्रकाशित गृह पत्रिका 'द टेलर' के हिंदी खंड में 1975-76 में संपादन सहयोगी रहा। 1976-79 के मध्य शाश्वत धर्म मासिक (उज्जैन, अब मुंबई से) का प्रबंध संपादक रहा। ये कैरियर के प्रारंभिक मज़ेदार दिन थे। सहधर्मिणी डॉ. हँसा दीप ने कहानियाँ और नाटिकायें लिखना चुना तो हम एक-दूसरे के काम के स्थायी पाठक, संपादक और आलोचक भी बन गये। अस्सी-नब्बे के दिनों में भारत में रहते हुए कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं—पहल, लहर, रविवार, माधुरी, कादम्बिनी, साक्षात्कार, आजकल, रंग चकल्लस, सरिता, मुक्ता आदि में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थीं। मेरा पहला व्यंग्य संकलन “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” 1984 में आया।
अमेरिका और कैनेडा के सेवाकाल में रचनात्मक लेखन जारी तो रहा पर निरंतरता और प्रकाशन की सीमायें थीं। काम के लिए ही बहुत लिखना होता था। कैनेडा में सेवानिवृत्त होने के बाद से नियमित लिख रहा हूँ और प्रकाशित भी हो रहा हूँ। मेरी रचनाएँ मुख्यतः भावी पीढ़ियों को बेहतर दुनिया देने की कोशिश में उठती आवाज़ है। शिक्षा व अवसरों की बेहतरी तथा सामाजिक न्याय के लिए लिखी ये रचनाएँ आज के स्तर को ऊपर उठाना चाहती हैं। 'गंगा गूंगी है' मेरा ऐसा ही व्यंग्य है जो हमारे सामाजिक सोच में व्याप्त विद्रूपताओं और विसंगतियों पर प्रहार करता है।
मैं मानता हूँ कि कोई भी व्यक्ति अपनी श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही कर सकता है। हिंदी मेरी मातृभाषा है और लेखन पारिवारिक विरासत। मेरे दादाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। झाबुआ ज़िले (म. प्र.) में क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन के लिए उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिल कर गुप्त प्रिंटिंग प्रेसों की स्थापना की। उनके संपादन में कई क्रांतिकारी प्रकाशन हुए। Whither Jhabua नामक पुस्तक 1930 में मध्यभारत में पदस्थ अँग्रेज़ अधिकारियों के ध्यानार्थ प्रकाशित की गई, वे ज़िलाबदर किये गये और जेल भी गये। बचपन में कई सेनानियों से मुझे दुलार और पाठ मिला, उद्देश्यपूर्ण लेखन का बीज इसी तरह पल्लवित हुआ।
दीपक पाण्डेय—
धर्मपाल महेंद्र जैन जी आपने इंदौर से प्रकाशित 'स्वदेश दैनिक' के सम्पादन मंडल से कार्य प्रारंभ किया और आज कैनेडा में आपकी व्यस्तता कहाँ और कैसी है।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
स्वदेश के बाद, बैंक ऑफ़ इंडिया की कईं भारतीय शाखाओं में प्रबंधक एवं न्यूयॉर्क शाखा में सहायक उपाध्यक्ष रहा। तद्न्तर, कैनेडा में दीपट्रांस समूह में उपाध्यक्ष व कार्यपालक रहा। स्वयंसेवा के रूप में सामाजिक संस्थाओं यथा फेडरेशन ऑफ़ जैन एसोसिएशंस इन नॉर्थ अमेरिका (जैना), जैन सोसायटी ऑफ़ टोरोंटो व कैनेडा की मिनिस्ट्री ऑफ़ करेक्शंस के तहत आयएफ़सी में निदेशक के रूप में जुड़ा। अब सेवानिवृत्त हूँ और लिखता हूँ। छंद मुक्त कविता एवं व्यंग्य निबंध मेरी प्रिय विधाएँ हैं। व्यंग्यकर्मी होने के कारण सतत सार्थक विपक्ष में बने रहना मेरी नियति है। ये दोनों विधाएँ मुझे अपने उद्देश्य-परक लेखन के लिए सलीक़े से अपनी बात कहने का सामर्थ्य देती हैं। ‘इस समय तक’ कविता संकलन (शिवना-2019), व्यंग्य संकलन“सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (2019-नॉटनल) तथा“दिमाग़ वालो सावधान” (किताबगंज-2020) ताज़े प्रकाशन हैं। अगले कविता संकलन पर धीरे-धीरे काम कर रहा हूँ।
दीपक पाण्डेय—
'इस समय तक' काव्य संग्रह की रचनाओं में प्रजातंत्र की दुर्दशा और मानवीय मूल्यों के ह्रास का चित्रण है। सामाजिक सजगता के लिए इस वैचारिक दृष्टिकोण का क्या उद्देश्य है। आपने कहीं स्वीकारा है कि कविता में विद्रोह का स्वर होना चाहिए। कृपया इस पर विस्तार से टिप्पणी दीजिए।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
वंचित लोगों के बीच काम करते हुए अवसरों की असमानता से उपजे परिणामों से बार-बार मेरा सामना होता रहा है। किसी निर्धन परिवार में जन्मा बच्चा ताउम्र ग़रीबी में जीता है और अमीर परिवार में जन्मा बच्चा ताउम्र तमाम सुविधाएँ पाता है। निर्धनता को पूर्व कर्म और भाग्य से जोड़कर हमारा समाज (और अंततः सरकार) अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता है। मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि बच्चों और किशोरों को श्रेष्ठतम अवसर उपलब्ध कराने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी सरकार की हो ताकि युवा होकर हर किसी नागरिक को अपनी क्षमताओं को सिद्ध करने के श्रेष्ठ मौक़े मिलें। ऐसे राज्य की कल्पना प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ही सम्भव है। भारतीय गाँवों, विशेषकर झाबुआ ज़िले में रहते हुए किशोरावस्था से ही सभी के लिए अवसरों की समानता का सोच मुझमें दृढ़ होता रहा है। अमेरिका और कैनेडा जैसे सम्पन्न देशों में भी यहाँ के आदिवासियों (नेटिव, एबओरिजनल्स) की स्थिति देखते हुए मुझे प्रजातंत्रों और इनकी प्रशासन व्यवस्था से बेहतर परिणामों की अपेक्षा रहती है। पर प्रजातंत्रीय व्यवस्थाओं को जी-हजूरिये बर्बाद करते रहते हैं। इनके प्रति स्वाभाविक ही विरोध और आक्रोश उभरता है, मैं इसे शब्द देने की कोशिश करता हूँ तो यह स्थापितसत्ता के प्रति विद्रोह के रूप में आता है।
'कविता में विद्रोह का स्वर होना चाहिए' यह अपेक्षा मेरी ख़ुद से अधिक है और यह विद्रोह हर स्थापितसत्ता के प्रति है। कोर्ट परिसर में बच्चों की चोंच में चुग्गा डालती मेरी चिड़िया सोचती है 'परिंदे उठ सकें घोसलों से ऊपर /वह सिखा सके उन्हें उड़ना और घुग्घु की नियत पहचानना' (परेशान है चिड़िया)। संविधानमें उकरे अधिकार आम आदमी को कहाँ मिल पाते हैं, काश आम आदमी को उसके संवैधानिक अधिकार पता होते, यह इच्छा लिये कविता अंत में कहती है 'मैंने सुना है, जो लोग सुन-पढ़ गए संविधान /सात पुश्तें तिर गईं उनकी' (संविधान)। अ–अधिकार कविता ऐसी वर्णमाला की पक्षधर है-काश, ख़ुद के लिए लड़ना सिखाती कोई वर्णमाला। अ–अधिकार का। आ आग़ का। इ–इंसाफ़ का। ई–ईंट का।
'प्रजातंत्र की दुर्दशा और मनुष्यता के क्षय तथा व्यापक विध्वंस के प्रति चिंता' (कविताओं पर गोयनका जी की टिप्पणी) का यह भाव आगामी कविता संकलन में और प्रखरता से उभरता है। 'जंगल का काठ। कुर्सी बनकर। जंगल हथिया लेता है' (तटस्थ समय)।
अपनी कविताओं से मुझे नहीं लगता कि मैं कविता लिख रहा हूँ, हर स्थापितसत्ता के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए अक़्सर व्यंजना सक्रिय हो जाती है, भाव आवेग में बदल जाते हैं और वर्तमान स्थितियों से विद्रोह करने लगते हैं, जो कहना चाह रहा था वह फिर कभी कहने के लिए शेष रह जाता है। इसलिए कोई कविता कभी पूरी नहीं होती।
दीपक पाण्डेय—
वर्तमान समय इंटरनेट और डिजिटाइजेशन का है, इस युग में पुस्तकों की पठनीयता के सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
इसका सरल उत्तर है-पुस्तकें हमेशा रहेंगी, वे मुद्रित रूप में पठनीय, श्रव्य रूप में श्रवणीय और दृश्य रूप में दर्शनीय बनी रहेंगी। डिजिटाइजेशन पुस्तकों की प्रस्तुति के नए, सरल और सुविधाजनक विकल्प दे रहा है। पर मैं पुस्तकों के उद्भव और विकास पर कुछ कहना चाहूँगा। साहित्य की प्रस्तुति लगभग हर पाँच सौसालों में एक नया ही फ़ॉर्म लेती रही है। अपने सोच को व्यक्त करने के लिए आदिम पूर्वजों ने गुफाओं में भित्ति संकेतों को चुना। फिर लंबी श्रुत परंपरा के साथ-साथ शिलालेख और ताम्रपत्र भी आकृत हुए। रचनाओं को गेय रूप (गाथा) में कंठस्थ कर पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाने की कशिश आगे बढ़ी तो केल पत्रों पर गोलाकार चिह्नों से लिपि विकसित होने लगी। रचनाओं को पठनीय बनाये रखने के ये आरंभिक फ़ॉर्म रहे। निश्चित ही पढ़ने की अधिक चाह के कारण कालांतर में हाथ से बने काग़ज़ों पर हस्तलेख सँवरन्े लगे। पंद्रहवीं सदी में मुद्रण की तकनीक बनी तो 1950 के आसपास डैटा की अवधारणा कंप्यूटर में विकसित होने लगी। साहित्य की प्रस्तुति और पुस्तकों की पठनीयता का यह अंतर्सम्बन्ध मैं इसलिए बता रहा हूँ कि हज़ारों वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए वेद श्रुत परंपरा के अलावा आज मुद्रण, दृश्य और डैटा रूप में भी हैं। इसलिए पढ़ने के लिए भविष्य में पुस्तकें मुद्रण के अलावा कई अन्य प्रारूपों में भी रहेंगी। भविष्य में चेतना ग्रहण के और भी विकल्प मिलेंगे जैसे कि किसी मनुष्य की ज्ञानेंद्रिय से चिप जोड़ दी जाए और विचार मात्र से कोई कमांड सक्रिय हो सके (जैसा हम गूगल पर अभी बोल कर जानकारी पा सकते हैं), शायद हमारे दिमाग़़ में ज्ञान और जानकारियाँ सीधी ही आ जायें।
दीपक पाण्डेय—
आप लंबे समय से भारत से बाहर रह रहे हैं, हिंदी के प्रचार-प्रसार में भारतीय फ़िल्मों की क्या भूमिका मानते हैं।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
जी, मैं 1993 में भारत से अमेरिका आया एवं वहाँ से 1998 में कैनेडा। उत्तर जीवन के लिए यहीं बस गया हूँ। कहीं भी रहूँ, हिंदी, भारतीय संस्कृति और भारतीय संगीत और फ़िल्में जीवन के अभिन्न अंग हैं। विश्वभर में भारतीय फ़िल्मों की पहुँच रोमांचित करती है। भारत के अहिंदी प्रदेशों के छोटे-छोटे गाँवों के कच्चे सिनेमाघरों से लगाकर शहरों के मल्टीप्लेक्स में हिंदी फ़िल्में सहज ही दर्शकों तक पहुँच जाती हैं। भारतीय फ़िल्में दक्षिणी एशियाई देशों में ही नहीं वरन् विश्व के सभी देशों में मल्टीप्लेक्स, नेटफ्लिक्स और वेब माध्यमों के द्वारा अपने भारतवंशी और विदेशी दर्शकों के लिए सहजता से उपलब्ध हैं। यूरोप एवं अमेरिकी देशों के फिल्मोत्सव में कई भारतीय फ़िल्में प्रीमियर शो एवं प्रदर्शन के लिए स्थान पाती हैं। भारतीय फ़िल्मों ने एक ऐसा और बहुत बड़ा विदेशी दर्शक वर्ग तैयार किया है जहाँ लोग हिंदी पढ़-लिख नहीं पाते पर समझ और अटक-अटक कर बोल सकते हैं। मुझे लगता है, हिंदी को जीवंत भाषा बनाए रखने और दुनियाभर में इसके प्रचार-प्रसार में भारतीय फ़िल्मों का योगदान अभूतपूर्व और सर्वाधिक है।
दीपक पाण्डेय—
धर्म जी, ख़ुशी की बात है कि आजकल आपकी व्यंग्य रचनायें निरंतर प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं या सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म पर पढ़ने को मिल रही हैं। क्या आप अपने सृजनात्मक कर्म में व्यंग्य लेखन को अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा अधिक युग-सापेक्ष मानते हैं?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
हिंदी की कई साहित्यिक पत्रिकाओं ने अब ई-मेल से रचनायें प्राप्त करना और अपनी पत्रिकाओं के ई-संस्करण निकालना प्रारंभ कर दिया है, इसलिए कैनेडा से अपनी रचनायें उन्हें भेजने की सुविधा हो गई है। रचनायें पाठकों तक पहुँचती हैं तो और लिखने की ऊर्जा मिलती है। लेखन में निरंतरता बनाए रखने के लिए ये दो बड़े कारक हैं।
दीपक जी, व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं की अपेक्षा क्या अधिक युग-सापेक्ष है, आपका यह प्रश्न वैचारिक विशेषज्ञता की माँग करता है। बहुत से रचनाकार कई विधाओं में लिखते हैं, कौन सी विधा अधिक युग-सापेक्ष होगी इसके उत्तर हर बार भिन्न होंगे। कविता और व्यंग्य दोनों ही विधा में लिखते समय मैंने यह नहीं सोचा कि अपनी बात कहने के लिए कौन सी विधा अधिक युग-सापेक्ष होगी। यह उस समय का भाव (मूड) और विचार तय करता है कि मेरी अभिव्यक्ति किस फ़ॉर्म में सटीक और बेहतर होगी। उदाहरण के लिए, अमेरिकी अभिनायकवाद पर अपनी असहमति और प्रहार दर्ज करने के लिए लिखने का मन हुआ तो मैंने व्यंग्य आलेख लिखने से शुरूआत की, परिणति संक्षिप्त और तीखी कविताओं में हुई और वे पाठकों के द्वारा अधिक सराही गयीं।
मेरे कई पाठक बताते हैं कि उन्हें व्यंग्य अच्छे लगे तो बहुत से अन्य पाठक हैं जिन्हें कविताओं की मुख्य पंक्तियाँ याद रह गईं। मेरे लिए, जो रचना अपने लक्ष्य तक अपनी संपूर्णता से पहुँचने का सामर्थ्य रखती हो वह अधिक युग-सापेक्ष है। कभी-कभी ऐसे स्थल भी लक्ष्य होते हैं जहाँ वायुयान नहीं जाते और वहाँ पैदल चलकर आसानी से पहुँचा जा सकता है। लेखन की यात्रा में किसी विधा को प्रधानता देने की बजाय मैं रचना की पहुँच बनाने की सामर्थ्य को अधिक युग-सापेक्ष मानता हूँ। दीपक जी, अंततः पाठक ही तय करता है कि आप कुछ ढंग का कह पाये या बेकार ही उसे सिरदर्द दे गये।
दीपक पाण्डेय—
'सर क्यों दाँत फाड़ रहा है? ' संकलन में आपकी रचनाओं के कथ्य समाज के विविध पक्षों पर केंद्रित हैं, चाहे मुद्दा राष्ट्रीय हो या अंतरराष्ट्रीय, सांप्रदायिक हो या राजनीतिक, सामाजिक हो या धार्मिक। आपके लेखन में समकालीन परिवेश और पूर्ववर्ती परिस्थितियाँ कितना योगदान देती हैं?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
'सर क्यों दाँत फाड़ रहा है? ' के व्यंग्य 1978-1983 की अवधि में लिखे गये हैं। मनुष्य स्वभावतः अनुचित को सहन नहीं करता, व्यंग्यकार इस अनुचित को विसंगति, विद्रूपता, विडंबना आदि मानता है। वह इस अनुचित से केवल असहमत ही नहीं होता, उसका प्रतिकार भी करता है। यही कारण है कि हमारे परिवेश में जो अनुचित, अन्याय, अनाचार आदि देखने में आता है उस पर शाब्दिक विरोध और आक्रोश लेखन में आता है। व्यंग्य में यह अधिक तीक्ष्णता और स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त करना सम्भव हो पाता है। 'सर क्यों दाँत फाड़ रहा है? ' की रचनायें सत्ता और व्यवस्था से यही पूछना चाहती हैं कि इतनी विषमताओं और विद्रूपताओं के होते हुए भी 'सर' आप आनंद मग्न क्यों हैं? आप खोखली हँसी हँस कर समस्याओं को क्यों टाल रहे हैं, समाज इन सबका संज्ञान लेकर भी मौन क्यों है। व्यंग्यकार, सत्ता, व्यवस्था व समाज में पनप रहे 'क्रेक्स' उद्घाटित कर सकता है, बड़े छेदों में घुसकर उन्हें तीखे शब्दों में बता सकता है, जनता को अपने विचारों से आंदोलित कर सकता है पर उन्हें ठीक करने के लिए क़दम उठाना सत्ता और व्यवस्था पर है फिर चाहे वह सत्ता राजनीतिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक।
समकालीन परिवेश व्यंग्य लेखन का आधार है, आलम्बन है। तात्कालिक स्थितियों से लेकर दीर्घकालीन परिस्थितियाँ व्यंग्य के आवश्यक औज़ार होते हैं जिन्हें लेकर व्यंग्यकार अपने प्रहारों को सुदृढ़ और तीक्ष्ण बनाता है। साहब के दस्तख़त, जा तुझको जमी दुकान मिले, ब्रीफकेस प्रसंग, फाइल इतनी दीजिए, जैसे व्यंग्य दफ़्तर संस्कृति के विद्रूप को उजागर करते हैं। हवाई अड्डा लाना है, चलो साफा भी मिलेगा, नदी लाओ समिति, सत्ता का समीकरण, अच्छी सरकार जैसे व्यंग्य राजनीतिज्ञों के स्वार्थगत सोच को बेनकाब करते हैं। मेरे विचार बोध व मेरी केंद्रीय धारणायें बनाने में पूर्ववर्ती परिस्थितियों की भूमिका अहम है। झाबुआ ज़िले में जन्म लेकर और वहीं से महाविद्यालयीन स्तर तक पढ़ते हुए सामाजिक और आर्थिक विषमताओं, क्रूर और अक्षम प्रशासन तंत्र तथा खोखले प्रजातंत्र का स्वरूप जो मैंने युवा होने तक देखा और भोगा है वह आक्रोश तिलमिलाता आता है और मुझे सामर्थ्य देता है कि मैं अपनी पूरी ताक़त से उस अनुचित पर शाब्दिक प्रहार करूँ। यदि मैं किसी महानगर के सुविधाभोगी परिवार में पला-बढ़ा होता तो शायद ही व्यंग्य लिख पाता।
दीपक पाण्डेय—
जैसा माना जाता है कि व्यंग्य का लक्ष्य मात्र विसंगतियों का उद्घाटन करना ही नहीं है अपितु उस पर करारा प्रहार करना आवश्यक होता है। इस संदर्भ में व्यंग्य लेखन में कौन-कौन सी सावधानियाँ अपेक्षित होती हैं?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
विसंगतियों, विद्रूपताओं, दुर्भावनाओं, अनियमितताओं और अनुचितताओं का उद्घाटन पत्रकार भी करते हैं। हेडलाइंस की ख़बरें और सुर्खियाँ बना कर वे प्रहार भी करते हैं। जनमानस उन्हें पढ़-सुन कर उद्वेलित होता है, प्रतिक्रिया करता है और भूल जाता है। जो तात्कालिक व्यंग्य रोज़़ प्रकाशित होते हैं वे भी यह सब उद्घाटित करते हैं पर वे दीर्घकालीन नहीं हो पाते। व्यंग्य का लक्ष्य बड़ा होना चाहिए, उसे गंभीर होना चाहिए और दीर्घकालिक भी। इसलिए पहली और अनिवार्य बात है कि व्यंग्यकार विदूषक नहीं है, हास्य उसका लक्ष्य और उद्देश्य नहीं है। हल्के-फुल्के व्यंग्य हँसा सकते हैं पर प्रहार नहीं कर सकते। पैनेपन और करारे प्रहार से सार्थक व्यंग्य उपजता है जो किसी को कचोटता है तो किसी को अपनी शक्ति से प्रसन्न कर देता है।
व्यंग्य लेखन में अपेक्षित सावधानियों के जरिये अपने महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है दीपक जी। व्यंग्य ख़ुद को नैतिक या पवित्र सिद्ध करने का कर्म नहीं है, यह कुछ नहीं कर पाने की असमर्थता भी नहीं है पर यह प्रतिबद्ध मूल्यों के साथ खड़ा होना है। व्यंग्यकार की प्रतिबद्धता समय और समाज के प्रति होनी चाहिए न कि किसी लाभदायी सत्ता या उन्मादी विचार के प्रति। सामाजिक प्रतिबद्धता का निरपेक्ष और निष्पक्ष साधारणीकरण कर विसंगतियों, विद्रूपताओं, वर्जनाओं और विडंबनाओं का सशक्त विरोध कर सके, व्यंग्य को ऐसा होना चाहिए। इसलिये ये सावधानियाँ अपेक्षित हैं कि व्यंग्य फूहड़, द्विअर्थी, गाली-गलौच, कुंठा, व्यक्तिगत निंदा या आलोचना, या वाद-विवाद नहीं हो। इसे अपनी पूरी रचनात्मक सामर्थ्य के साथ विसंगतियों पर करारा प्रहार होना चाहिए।
दीपक पाण्डेय—
'सर क्यों दाँत फाड़ रहा है? ' रचना में आपने पुलिस विभाग की कुरीतियों का भंडाफोड़ किया है। क्या इस महकमे की 'अच्छाइयों' से साक्षात्कार कराने में आपको कोई भय महसूस नहीं होता?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
'सर क्यों दाँत फाड़ रहा है? ' लिखने तक अच्छी पुलिस से मेरा मिलना नहीं हुआ था। उन दिनों भारत की पुलिस जनता की रक्षा के लिए बनी पुलिस नहीं थी। अब वहाँ की पुलिस कैसी है इस बारे में मेरे पास जीवंत अनुभव नहीं हैं। कैनेडा में पुलिस की छवि एकदम भिन्न है, यहाँ पुलिस बदमाशों के लिए यमदूत और सामान्य जनता के लिए मित्रवत है। यह रचना उन्नीस सौ अस्सी के आसपास मध्यप्रदेश के बहुप्रसारित दैनिक नई दुनिया के रविवारीय संस्करण में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। प्रख्यात पत्रकार श्री राजेंद्र माथुर इसके संपादक थे। इन दिनों मैं राजगढ़ (ब्यावरा) ज़िले के ग्राम जीरापुर में पदस्थ था। सवेरे ग्यारहबजे के क़रीब एकसिपाही घर आया और बोला थानेदार साहब ने आपको याद किया है, आप थाने आ जायें। थाने पहुँचा तो थानेदार साहब ने जय हिंद कहा, चाय बुलवाई और बोले, सर जी, पुलिस पर मज़ेदार लिखा है। एसपी साहब का फ़ोन आया था, आपसे बात करना चाहते थे। एसपी साहब हमारे कुछ कवि सम्मेलन में अध्यक्षता कर चुके थे, मुझे सुन चुके थे, उन्होंने बधाई दी और मैं थाने से खुश-खुश निकल आया। पुलिस में मेरी इज्ज़त बढ़ गई थी।
दीपक जी, भय तब होता है जब आपके पास खोने के लिए कुछ हो या छुपाने के लिए कुछ हो। भारत में लगभग हर दोसाल में मेरा तबादला हो जाता था। नये कर्तव्यस्थल पर यथाशीघ्र ही प्रमुख अधिकारियों और गणमान्यों से परिचय हो जाता था और अख़बारों में लगातार लिखते रहने के कारण लोग जानते थे। इसलिये भय वाली स्थिति बनी नहीं। अच्छी पुलिस के पास बहुत अच्छाइयाँ हैं, वे व्यंग्य के पात्र नहीं है, जनता सब देखती है और सच जानती है तथा पात्र लोगों का सम्मान करती है। यदि व्यंग्य में प्रवृत्तियों और पात्रों का साधारणीकरण हो तो कोई उसे व्यक्तिगत नहीं लेता।
दीपक पाण्डेय—
'टेलीफ़ोन लीला' में आपने विभाग की यथार्थ स्थिति से पाठकों को अवगत कराया है और इस विभाग के भविष्य को ले कर आपकी लेखनी पर सरस्वती की कृपा बरसती है कि 'टेलीफ़ोन की शवयात्रा निकालने का महाआयोजन हमारे शहर में होने वाला है' यह भविष्यवाणी फलीभूत हो रही है। इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगे?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
अस्सी-नब्बेके दशकों में टेलीफ़ोन विभाग और कई टेलीफ़ोन ऑपरेटर वरली-मटके से सम्बन्धों के कारण कुख्यात रहे हैं। उन दिनों मैं नगरों में कम, गाँवों और क़स्बों में ज़्यादा रहा। मेरे माता-पिता मेघनगर (जिला झाबुआ) में रहते थे। एक गाँव से किसी दूरस्थ गाँव में फ़ोन पर बात करना भगवत कृपा से भी सम्भव नहीं था। भविष्यवाणी तो नहीं कहूँगा, पर जब भी समस्याओं की अति हो जाती है प्रबंधन-तंत्र आमूल परिवर्तन के बारे में सोचता है। उपभोक्ताओं की निरंतर बढ़ोतरी और उनकी माँग के कारण टेक्नोलॉजी में अभूतपूर्व परिवर्तन आये। इन परिवर्तनों ने टेलीफ़ोन सुविधा को ऑन डिमांड और धीर-धीरे किफ़ायती बना दिया।
दीपक पाण्डेय—
धर्म जी, आप व्यंग्य की भाषा में कलात्मकता एवं संप्रेषणीयता को कितना महत्त्वपूर्ण मानते हैं?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
दीपक जी, भाषा में कलात्मकता मेरे लिए व्यंग्य की अनिवार्य शर्त नहीं है। कलात्मकता यदि व्यंग्य को और प्रखर बनाती है तो वह दीर्घजीवी बनता है। किसी शब्द की व्यंजना, अमिधा या लक्षणा शक्ति को जागृत करते हुए व्यंग्यकार जब उसका सटीक प्रयोग करता है तो निश्चित ही ऐसे वाक्य पाठक के दिमाग़ पर छा जाते हैं। अपनी एक रचना ‘आते हो क्या व्यंग्यकार बनने’ (दिमाग़ वालो सावधान में संकलित) में मैंने कहा है कि“व्यंग्यकार आत्मा को निचोड़ कर लिखता है तो व्यंग्य उपजता है। शब्दों में क्या रखा है, आप शब्दों को कैसे रखते हो उसमें सब रखा है, व्यंग्य रखा है, कविता रखी है। आप तो शब्दों का पराक्रम परखो, व्यंग्य स्वतः पैना हो जाएगा।”
व्यंग्य, काव्य भाषा या कलात्मक भाषा की अनिवार्य माँग नहीं करता पर सहज संप्रेषित होने की आवश्यक माँग करता है। किसी भी बौद्धिक स्तर का पाठक हो, व्यंग्य की मार यदि वह अनुभव कर सकता है तो ही व्यंग्य अपने उद्देश्य में सफल हो पाता है। मैंने अख़बारों के लिए तात्कालिकता से ऊपर उठकर व्यंग्य लिखने की कोशिश की तो मैं ख़ुद से अख़बारी भाषा में सरल पर गहरे कटाक्ष करने की अपेक्षा करता रहा हूँ। हर व्यंग्यकार अपनी टेकनीक और भाषा बनाने के लिए स्वतंत्र है पर उसकी बात पाठक तक अपेक्षित अर्थ में पहुँचे ऐसी संप्रेषणीयता हर व्यंग्यकार के लिए आवश्यक है।
आपका आभार इसलिये भी कि मेरे व्यंग्य-कर्म पर अपना वैचारिक पक्ष रखने का आपने दुर्लभ मौक़ा दिया।
दीपक पाण्डेय—
आपके व्यंग्य लेखन की प्रक्रिया क्या है? कथ्य मिलने के बाद उसे सार्थक रचना में ढालने तक मन में क्या उठापटक होती है?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
दीपक जी, अपनी रचना प्रक्रिया पर मैं सही-सही किन्तु विनोद पूर्वक कहना चाहूँगा। कुछ भी लिखने से पहले मैं ऐसे तीन-चार संपादकों का ध्यान लगाता हूँ जिन्होंने मुझे कभी छापा नहीं। मैं सोचता हूँ कि वे संपादक सामिष हैं या शाकाहारी। रात में पढ़ते हैं या दिन में और नीचे से पढ़ते हैं या ऊपर से। जो संपादक ऊपर से पढ़ते हैं वे लेखक के नाम के आगे नहीं बढ़ पाते। इसलिए मैं नीचे से पढ़ने वाले संपादकों के बारे में संज्ञान लेकर लिखता हूँ। लिखने के लिए पेपर पर इधर-उधर वक्र रेखाएँ, उनके ऊपर छोटे-बड़े शून्य और थोड़ा-बहुत अ-कलापूर्ण रेखांकन होने लगे तो धीरे-धीरे शब्द निकलते लगते हैं। नगर निगम के जल प्रदाय विभाग की तरह पहले तो शब्द धीमी गति से टप-टप करते हैं पर थोड़ी ही देर में शब्द धाराप्रवाह आने लगते हैं। एक-दो शब्द लिख पाता हूँ तब तक चार-पाँच शब्द लाइन में लग जाते हैं। मैं कभी संकेत रूप में लिखता हूँ तो कभी शब्द रूप में। उपमायें, विशेषण और प्रतीक तो पूरे-पूरे लिखने पढ़ते हैं, बाद में ये फिर याद आयें इसकी सम्भावना कम रहती है। हाँ, मैं इनका वाक्यों में सही-सही प्रयोग इत्मीनान से करता हूँ। आधा वाक्य लिखकर आधा गोल कर जाता हूँ ताकि बाद में मैं रिक्त स्थान भर सकूँ। विज्ञ पाठक पकड़ लेते हैं कि लिखते-लिखते लेखक यहाँ कुछ विस्मृत कर गया। सभी नामी व्यंग्यकार ऐसा ही करते हैं, जहाँ अटक जाते हैं वहाँ बात घुमा देते हैं।
मेरी रचना प्रक्रिया के दो हिस्से हैं, पहला भाव लेखन और दूसरा बुद्धि लेखन। कथा या निबंध लिखने में बहुत बुद्धि चाहिए, सीमित बुद्धि से लेखन करने के लिए व्यंग्य विधा सर्वश्रेष्ठ है। लिखते समय मैं ख़ुद को डरा-डरा कर रखता हूँ। ऐसे सोचता हूँ कि मैं कोई नामुराद मुख्यमंत्री हूँ, जोड़-तोड़ की राजनीति कर सरकार चला रहा हूँ और जनता चौराहे पर खड़ी हाय-हाय कर रही है। ऐसा सोचने से लिखने में जोड़-तोड़ कर रचने का साहस नहीं होता, बस तब रचना पूर्ण हो जाती है।
दीपक पाण्डेय—
हिंदी के किस व्यंग्यकार की साहित्य साधना ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है और क्यों?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
आपने किसी एक व्यंग्यकार पर अपना उत्तर केंद्रित करने का संकेत देकर इस प्रश्न को बहुत कठिन बना दिया है। सृष्टि की बात हो तो कम से कम ब्रह्मा, विष्णु और महेश को केंद्र में रखना ही होता है। अलग-अलग कारणों से मैं व्यंग्य को प्रतिष्ठित करने वाले तीन दिग्गज व्यंग्यकारों से बहुत प्रभावित हुआ। अपने व्यंग्य लेखन के कई सालों पहले से मैंने परसाई जी, शरद जोशी जी और रवींद्रनाथ त्यागी जी को ख़ूब पढ़ा। पत्रिकाओं और किताबों से कम, पर नईदुनिया में अधिक। फिर मैंने नईदुनिया के लिए अपने आरंभिक व्यंग्य लिखे। मनुष्यता के संरक्षण, सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों की रक्षा के लिए विवेकपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिए मैं परसाई जी का प्रशंसक हूँ। वे अपने लेखन में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ समाज के व्यापक प्रश्नों को उठाते हुए विद्रूपों पर खुलकर प्रहार करते थे। उनके व्यंग्य उत्तरोत्तर गंभीर और चिंतन प्रधान होते गए। वैचारिक प्रतिबद्धता के स्तर पर मेरा झुकाव परसाई जी की ओर अधिक है। उनका संघर्ष मैंने देखा है, उनसे मिला भी हूँ और मेरा पहला व्यंग्य संकलन ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” उनकी संक्षिप्त-सी सार्थक भूमिका के साथ आया है।
कथ्य, शिल्प और कटाक्ष के धनी शरद जोशी जी ने भी आम आदमी से प्रतिबद्ध होकर राजनीतिक चालाकियों, भ्रष्टप्रथाओं, पाखंडों आदि पर निरंतर प्रयोगधर्मी होकर तीखे प्रहार किए हैं। उनका व्यंग्य सहज, मारक, व्यापक एवं विस्तृत है। उन्होंने पत्रकारिता से लेकर टीवी और सिनेमा के माध्यम से आधुनिक व्यंग्य का दायरा बहुत विस्तृत किया है। शैली और व्यंजना के रचाव के मामले में शरदजी अपने अंदाज़े बयां के कारणमुझ पर छाये रहते हैं। हालाँकि मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया पर उनके साढ़ू भाई प्रख्यात कवि प्रो। नईम हमारे बहुत अच्छे मित्र रहे और शरदजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर हमारी लंबी चर्चायें होती रहीं। श्री रवींद्रनाथ त्यागी को उनके चिंतन, अध्ययन और कथ्य के नयेपन और कठिन विषयों पर व्यंग्य के लिए मैं पसंद करता रहा हूँ। अब आपके इस प्रश्न का उत्तर कि किस व्यंग्यकार की साहित्य साधना ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया। व्यंग्य की सार्थकता उसके अवदान, उसके आत्मा तक को कुरेद देने की क्षमता और पैनेपन में है। इसलिए मेरे लिए सर्वकालिक एवं सर्वोपरि व्यंग्यकार कबीर हैं, वे अपने धारदार सोच से समाज को सचेत करते हैं, अपने समय में क्रांतिकारी हस्तक्षेप करते हैं, उनके जैसा कहना मेरे लिए व्यंग्य का आदर्श है।
दीपक पाण्डेय—
आप अपने व्यंग्य लेखन में ऐसा क्या विलक्षण मानते हैं, जो आपको व्यंग्य क्षेत्र में अलग पहचान देता है?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
दीपक जी, अपनी विलक्षणता सिद्ध करने में मुझे विशेषज्ञता हासिल है। एम। एससी। से लेकर बैंक की विदेश सेवा तक की अपनी पेशेवर कोशिशों में अपनी दावेदारी मज़बूत करने के लिए मैं अपना उजला और सशक्त पक्ष हमेशा प्रभावी तौर पर रखता रहा हूँ। बस, व्यंग्य लेखन में मैं अपनी पहचान के लिए उत्सुक नहीं हूँ, न यहाँ प्रतिस्पर्धा की भावना है। अपने समय के प्रति जागरूक रहते औरसमाज को सचेत करते हुए लिखने का आनंद मुझे अपने सार्थक बन सकने की दिशा देता है। मेरे समकालीन और युवतर सौसे अधिक व्यंग्यकार हैं जिन्होंने न केवल आधुनिक व्यंग्य लेखन को समृद्ध किया है बल्कि हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के सापेक्ष व्यंग्य को अधिक समाजोन्मुखी बनाकर प्रतिष्ठित बनाये रखने का महत्तर कार्य किया है।
अपने व्यंग्य लेखन के प्रति वैचारिक पक्ष रखते हुए मैंने कहा है कि व्यंग्यकार को अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का निरपेक्ष और निष्पक्ष साधारणीकरण कर विसंगतियों, विद्रूपताओं और वर्जनाओं आदि का सशक्त विरोध करना चाहिए। कई व्यंग्यकार साथियों के रचनाकर्म में यह भाव केंद्र में है। उनका लेखन निरंतर और व्यापक है और वे असहिष्णु व्यवस्था में रहकर व्यंग्य लेखन करते हैं। इसलिए उनके जुझारूपन को मैं सलाम करता हूँ। कनेडियन नागरिक होते हुए मेरा लेखन वैश्विक मनुष्यता और वैश्विक नागरिकता को लेकर है, भारतीय संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हुए मैं वैश्विक राजनीति और वैश्विक समाज को केंद्र में रखने की कोशिश करता हूँ।
दीपक पाण्डेय—
हिंदी की व्यंग्य विधा की अब तक की यात्रा और उसके भविष्य के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
व्यंग्य में लोकप्रियता का आकर्षण है। हमारे लोक में जो हास-परिहास है जब वह व्यंग्य बन कर कुरेदता आता है तो लक्ष्य भेद कर किसी को चुभता है और शेष को हँसाता है। इसलिए व्यंग्य की सामाजिक माँग और मान्यता साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में बहुत अधिक है। इस यात्रा में कबीर पूर्व भी कई यात्री रहे होंगे पर व्यंग्य के आरंभ का सुस्थापित बिंदु मैं कबीर को मानना चाहूँगा। स्वतंत्रता पूर्व के व्यंग्य में भारतेंदु और बालमुकुंद गुप्त अपनी पैनी धार के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। रामचंद्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय के निबंधों ने भी इस धार को निरंतरता दी है। व्यंग्य को विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का महत् कार्य हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने किया। रवींद्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, नरेंद्र कोहली, के। पी। सक्सेना, शंकर पुणतांबेकर, राधाकृष्ण, लतीफ घोंघी और सुशील सिद्धार्थ ने इसे और समृद्ध किया। इस यात्रा को निरंतर गतिमान बनाए रखने में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि का योगदान अहम है। सौ से अधिक रचनाकार यहाँ ससम्मान जोड़े जा सकते हैं, जिन्हें पढ़कर मुझे जलन होती है, ये अच्छे व्यंग्य लिखते हैं। कुछ नाम जो तेज़ी से याद आ रहे हैं, अनूप श्रीवास्तव, गिरीश पंकज, सुभाषचंदर, सुरेशकांत, रमेश तिवारी, हरि जोशी, आलोक पुराणिक, रामकिशोर उपाध्याय, अरविंद कुमार, अरविंद तिवारी, लालित्य ललित, निर्मल गुप्त, रमेश जोशी, शांतिलाल जैन, पंकज सुबीर, यशवंत कोठारी, जवाहर चौधरी, कैलाश मंडलेकर, अनूपमणि त्रिपाठी, शशिकांत सिंह शशि, मलय जैन, संजीव जायसवाल संजय, गुरमीत बेदी, अनूप शुक्ल, ईश्वर शर्मा, अरुण अर्णव खरे, ब्रजेश कानूनगो, पिलकेंद्र अरोड़ा, कुमार सुरेश, अलंकार रस्तोगी, कमलेश पांडे, श्रवणकुमार उर्मलिया, प्रभाशंकर उपाध्याय, आशीष दशोत्तर, शशांक दुबे, सुधीर कुमार चौधरी, अतुल चतुर्वेदी, जवाहर कर्नावट, बी। एल। आच्छा, दीपक गिरकर, अशोक गौतम, हरिशंकर सिंह, विजी श्रीवास्तव, प्रदीप उपाध्याय, विनोद कुमार विक्की और, और। व्यंग्य का भविष्य कविता, कहानी और उपन्यास की तरह ही शाश्वत है।
दीपक पाण्डेय—
युवा व्यंग्य-लेखक मित्रों को लेखन के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
इस सदी में व्यंग्य की व्यापक माँग और पठनीयता के कारण व्यंग्यकारों की माँग बढ़ी है और व्यंग्य लेखन भी। आमतौर पर, अख़बारों में भेजे गए व्यंग्य एकसप्ताह में प्रकाशित हो जाते हैं, उन पर तात्कालिकता और राजनीति अधिक हावी होती है। व्यंग्य किसी संपादकीय या आलेख से भिन्न होकर प्रवृत्तियों पर लगातार प्रहार करें, दोहराव से बचें और सपाट रिपोर्टिंग बनकर न रह जायें नये व्यंग्य लेखकों को इन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। तुरंत छपास की भावना प्रबल न हो तो व्यंग्य की गुणवत्ता और क्षमता निश्चित ही बेहतर और प्रभावी होगी। कई स्थितियाँ ऐसी बनती हैं जब व्यंग्यकार को लगता है कि उसे तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। शरद जी ‘प्रतिदिन’ लिखते थे और उसके अलावा भी अन्य माध्यमों के लिए हास्य-व्यंग्य। व्यंग्य की धार के प्रति उनका सचेत रहना ही उनके रचनाकर्म को सार्थक बनाता है।
दीपक पाण्डेय—
आजकल क्या नया लिख रहे हैं और उनकी विषय-वस्तु क्या है?
धर्मपाल महेंद्र जैन—
नया लिखने की कोशिश तो रोज़ ही होती है पर कुछ बड़ा जैसे व्यंग्य उपन्यास या महाकाव्य रचने का कौशल और धैर्य मुझ में नहीं है। दिल्ली की चाणक्य वार्ता एवं पिट्सबर्ग की सेतु पत्रिकाओं में व्यंग्य स्तंभ लिखता हूँ, ये नियमित लिखता रहूँ यही प्राथमिकता रहती है। कविता संकलन ‘इस समय तक’ के आने के बाद मेरी काफ़ी नई कवितायें प्रकाशित हुई हैं, इन दिनों में आगामी कविता संकलन पर काम कर रहा हूँ।
दीपक पाण्डेय—
आपने संवाद के लिए अपना समय दिया इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी क़लम से निरंतर पढ़ने को नया मिलते रहे, शुभकामनाएँ।
धर्मपाल महेंद्र जैन—
लेखन और सोच को लेकर आपने जो प्रश्न उठाए उन्होंने मेरे रचना कर्म के सापेक्ष ख़ुद को टटोलने के लिए बाध्य किया। इस प्रक्रिया ने मुझे यह भी तय करने में मदद की कि मेरी प्रतिबद्धतायें क्या हैं और क्यों है और उसमें किस तरह के बदलाव या विचलन आते हैं जिनका मैं अन्यथा नोटिस नहीं ले पाता। इस संवाद को रोचक व चुनौतीपूर्ण बनाए रखने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।