“शंकर दा नहीं रहे मुनिया।”
“ओह“
शंकरदा की उम्र हो चुकी थी। अभी-अभी मिल के आ रही थी उनसे चन्दननगर के इस बार के विज़िट के दौरान। शंकर दा मेरे पिताजी से दो-तीन साल बड़े थे। मेरे परदादा जी एक डॉक्टर थे और प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था उन्होंने। उनकी बाद में झेलम में पोस्टिंग हुई थी। बाद में जब वे चन्दननगर आ कर रहने लगे, तो शंकर दा हमारे घर काम पर लगे थे। शंकर दा अपने भाई-बहनों के साथ सामने ही एक मिट्टी की कुटिया में रहते थे। हमारे घर में उस वक़्त गायें हुआ करती थीं। गायों की देख-रेख से ले कर घर-आँगन बुहारने तक का काम शंकर दा ही करते थे। बाद में दादाजी और दादीजी और फिर आख़िरी तक हमारे घर वे काम करते रहे।
गर्मी की छुट्टियों में मैं हर साल दादा-दादी जी से मिलने चंदननगर जाया करती थी। कोरबा से हम जब चन्दननगर दादाजी के पास घूमने आते तो शंकर दा हमारी टाफ़ी लाने जैसी छोटी-छोटी फ़रमाइशें पूरी करते। शंकर दा को घर में परिवार के सदस्य जैसा ही सम्मान प्राप्त था और दादीजी उन्हें बेटे जैसा ही प्यार करतीं।
मेरे दादाजी के गुज़र जाने के बाद जब हम कोरबा से चन्दननगर रहने आ गये, तब पाया कि दादी जी शंकर दा पर शायद हमसे भी ज़्यादा निर्भर थीं। अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिये वे सबसे पहले शंकर दा को ही गुहार लगातीं। शंकर दा सुबह-सुबह आ कर घर के खिड़की दरवाज़े खोलते, आँगन बुहारते, गायों को चारा डालते, धोने वाले कपड़े भिगोते और फिर सारे दिन ही कुछ न कुछ करते रहते। दादी पुराने ज़माने की थीं, बिल्कुल वक़्त पर खाना, चाय, सोना सब ठीक समय पर। हर काम के लिये दादी जी शंकर दा को ही कहतीं। ठीक चार बजे, वे शंकर दा को हाँक लगातीं, “शंऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽकर . . . ओ शंऽऽऽऽऽऽऽऽकर . . . चाय पीने आ जा।”और शंकर दा की तत्पर आवाज़, अपनी कुटिया से, “जाऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽईईईई . . .” हम कहते, “अच्छा है जो शंकर दा का नाम शंकर है, दादीजी को काफ़ी पुण्य हो जाता है रोज़, इतने बार भगवान का नाम लेने से।”
मैं कभी भी बहुत स्वावलम्बी मानसिकता की नहीं रही, स्वभावतः। कहीं जाना हो, पास बाज़ार तक भी, तो कोई साथ रहे तो आसान लगता है। तो उस वक़्त भी, अपनी कज़िन के घर जाने के लिये (कोई १०-१५ मिनट चलने का रास्ता) मैं शंकर दा से कहती, “शंकर दा मेरे साथ चलिये, पहुँचा आइये।” शंकर दा मेरे साथ निकल चलते। पर शंकर दा अपनी चाल से और मैं अपनी तेज़ चाल से। तो होता यह कि शंकर दा मुझ से कई क़दम दूर पीछे और मैं दीदी के घर पहुँच भी जाती, एक तरह से भूल ही जाती कि शंकर दा साथ थे। और तब ५ मिनट बाद, बेल बजती, “मुनिया, तुम पहुँच गई न?”
“हाँ शंकर दा, अब आप जाइये, दो घंटे बाद आ जायेंगे क्या फिर?”
बहुत सारी यादें जुड़ी हैं शंकर दा के साथ। इस बार जा कर सुना शंकर दा बीमार हैं। अभी भी वही कुटिया है उनकी। उन्होंने तो शादी नहीं की, भाई-बहनों के परिवार में ही रहते थे। मैं उनसे मिलने गई। वे लेटे हुए थे, बिल्कुल बूढ़े हो चुके थे, अब तो काम भी नहीं करते थे कुछ सालों से। मैं उनके सिरहाने बैठी, सिर पर हाथ फेरा और उनकी तबीयत पूछी। डॉक्टर हाई ब्लड प्रेशर बता रहे थे। उनकी आँखों में पानी था।”जँवाईबाबू कैसे हैं? तुम कैसी हो?” ये सब पूछा। ज़्यादा क्या कर सकती थी मैं। यही बस कर सकते हैं हम हमेशा ही . . . बस कुछ पैसे ही दे कर आ गई। कहा, “शंकर दा, अगर आप बुरा न मानें तो आपको कुछ पैसे दे कर जा रही हूँ, आप को ज़रूरत होगी। आपको क्या खाने का मन है बताइये, मैं ला देती हूँ।” शंकर दा ने कहा, “न बेटा बुरा क्या मानना, माँ कुछ दे तो बेटा कभी इंकार करता है क्या?”
मम्मी के आज फ़ोन पर यह ख़बर सुनाते ही सारी यादें और शंकर दा का बूढ़ा चेहरा बार-बार सामने आ रहा है। यही जीवन है . . . और फिर मृत्यु . . . इसी बीच होती हैं मान-अभिमान, ऊँचे-नीचे, दोस्ती-दुश्मनी की बातें। रह जाता है वही संसार और कुछ ऐसे पल जो गढ़ जाते हैं एक युग। कथाएँ बनती हैं और हमारी स्मृति के किसी कोने में रह जाते हैं—संस्मरण।