इस बार का तेरा आना,
यह भी हुआ क्या आना?
न रही ठीक से,
न ठीक से पिया, न ही खाया,
न कुछ सुना,
न ही कुछ सुनाया,
तू कब आई और कब
चली भी गयी,
पता भी न चला।
इस बार का तेरा आना,
यह भी क्या हुआ आना?
क्या कहूँ, कैसे कहूँ,
मेरी अपनी मजबूरी का रोना,
माँ अब कहती कम,
दोहराती है ज़्यादा।
मुस्कराती अब टुकड़ों में,
रोती है कुछ ज़्यादा,
माँ अब बोलती कम,
भूलती है ज़्यादा।
माँ अब ज़्यादा ही भूलने लगी है,
उनकी यह व्यथा,
आँखों से टपकने लगी है।
पल्लू का सीलापन,
कोरों का गीलापन,
होठों की थरथराहट पहले से ज़्यादा।
अब फ़ोन करने से पहले,
ख़ुद को कड़ा सा लेती हूँ कर,
उनकी हर बात पर कुछ हँसती हूँ ज़्यादा,
नाराज़ सी हो जाती है अक़्सर,
मेरी शीतल जलधारा सी माँ,
अब चुनमन बच्ची सी हो गयी है ज़्यादा।
इस बार का तेरा आना,
यह भी क्या हुआ आना?