विशेषांक: कैनेडा का हिंदी साहित्य

05 Feb, 2022

यहाँ विदेश में 
मेपल दरख़्त पत्तों की खड़खड़ाहट
लदे फूल खिलखिलाती क़ुदरत
घरों के अन्दर खिले फूल
हरियाली से भरी कायनात थी। 
 
मैं देखती रही आसमाँ
भरा भरा बादलों का ग़ुबार 
टप् टप् पिघलती बूँदें 
लोगों का ग़ायब हुजूम 
 
मँडरा रहा सूनी सड़कों में
वायरस का साया था 
क़रीने से पार्क की हुई कारें
पहले जैसा जो था 
वैसा ही हरा भरा था
 
कहीं कहीं इक्का-दुक्का लोग 
बदहवास से सायों से डरते
बर्फ़ से ढकी वादियों में
साँ-साँ पत्ते लड़खड़ाते l
गिरते बिखरते ख़ौफ़ से जूझते 
धीमे से दर बन्द कर 
अन्दर दुबक जाते 
यह विदेशी लोग। 
 
कल मेरे देश में बन्द था
शाम होते होते 
शंख नाद, मन्दिर की घंटियों
का संगीत 
थाली चम्मच कटोरी
की आवाज़ से करोना 
से महा जंग था 
 
आओ जो कल था
आज भी वही सुकून लाएँ
घर परिवार संग बैठे
और बतियाएँ . . .
‘कहा जो सखी ने 
कुछ टूटे रिश्ते समेटे
गिले शिकवों के पौधे उखाड़ 
मन की क्यारी में प्यार के 
बीज उपजाएँ-‘ धीमी स्वर लहरी 
से मन को थपथपाएँ 
 
जो कल रोपा था 
हरियावल और झरनों के 
बहते पानी का आनन्द लेते 
आज से बूँद बूँद 
वही सुकून लाएँ 
पक्षियों का कलरव सुने
क़ुदरत बचाएँ 
और मुस्कुराएँ!!! 

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