“ड्यूमारिए लाईट देना,” स्वर में अपरिपक्वता का आभास होते ही मैंने सर उठाया तो सामने मेकअप की पर्तों की असफलता के पीछे से झाँकता बचपन दिखाई दिया। कोई पंद्रह-सोलह बरस की लड़की अपनी उम्र से बड़ी लगने का भरपूर प्रयास कर रही थी।
“तुम्हारे पास कोई प्रूफ़ ऑफ़ एज है?”
“क्या मतलब?” उसकी अनभिज्ञता भी उसके प्रयास की तरह ही झूठी थी। मैं जानता था कि वह यही प्रश्न न जाने कितनी बार सुन चुकी होगी।
“मतलब क्या? ड्राईवर लाईसेंस, बर्थ सर्टीफिकेट . . . कुछ भी . . . तुम जानती तो होगी?”
मैंने उसके चेहरे को टटोला।
उसने कन्धे से लटके बड़े पर्स में ढूँढ़ने का बहाना किया और फिर से मेरे चेहरे पर नज़रें टिका कर भोलेपन से बोली,” मिल नहीं रहा, मेरा विश्वास करो . . . कोई समस्या नहीं होगी, सब ठीक है।”
उसने मुझे झूठा आश्वासन दिया।
“कुछ भी ठीक नहीं, जानती हो तुम्हें सिगरेट बेचने से मेरा लाईसेंस जाता रहेगा,” मैंने थोड़ी दृढ़ता से कहा।
उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। विवशता और दयनीयता टपकने लगी।
“दे दो न, मुझे बहुत तलब लग रही है, कोई भी नहीं है इस समय दुकान में,” कहते-कहते उसने अपने पर्स से पैसे निकाल कर काउंटर पर मेरी ओर सरका दिए।
“नहीं, तुम अच्छी तरह से जानती हो कि मैं तुम्हें सिगरेट नहीं बेचूँगा। बेकार में मेरा समय बरबाद न करो। कुछ और ख़रीदना हो तो ठीक है वरना यहाँ पर बहाने लगाने का कोई फ़ायदा नहीं।”
उसके का चेहरा क्रोध से तमतमाया और भड़कते हुए बोली,” बुड्ढे, सिगरेट तो तेरी दुकान की पीऊँगी।”
बड़बड़ाते और गालियाँ बकते हुए वह दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई। हवा का ठण्डा झोंका मेरे चेहरे से आ टकराया। मैंने एक लम्बी साँस ली और उस ताज़ी हवा को अन्दर तक भर लिया। सुबह से लेकर रात के ग्यारह बजे तक मैं अपनी ही बनाई हुई इस जेल में क़ैद रहता हूँ।
इस झोंके की ताज़गी ने मुझमें एक स्फूर्ति भर दी। पलट कर शेल्फ़ों पर सामान की गिनती करने लगा। आधे घंटे में मेरा काम पूरा हो गया तो मैंने बाहर की ओर देखा। पतझड़ के इस मौसम में अँधेरा जल्दी होने लगता है। अभी पूरा अँधेरा नहीं था बाहर। रोज़ाना जो हलचल देखता हूँ वही उस दिन भी थी। मैंने मुस्कुराते हुए स्टॉक-रजिस्टर उठाया और लिस्ट बनाने लगा कि कौन सा माल शेल्फ़ों पर कम हो रहा है। कल ही ऑर्डर करने का दिन था। आँखें थक चुकी थीं। काउंटर पर कुहनियाँ टिका कर हथेलियों से आँखों को ढाँप कर कुछ पल के लिए रुका।
यह कॉर्नर स्टोर चलाते हुए लगभग दस बरस बीत चुके हैं। जिस उम्र में इस देश में आया उस उम्र में एक बार फिर से नए सिरे से जीवन शुरू करना कठिन होता है। पर क्या करता, बेटियों की पढ़ाई भारत में रहते हुए मेरी जेब के बस में नहीं थी। उनके हाई स्कूल के दिनों में ही कैनेडा चला आया। दोस्तों ने ऐसा ही स्टोर ख़रीदने की सलाह दी। हालाँकि जानता था और दोस्तों ने आगाह भी किया था कि यह इलाक़ा ठीक नहीं है पर क्या करता . . . वही जेब की मजबूरी। जितने पैसे थे वैसा ही स्टोर मिला। ख़ैर एक फ़ायदा था इस स्टोर में कि इसके ऊपर एक तीन कमरे का फ़्लैट भी था। बस यही बात मन को भा गई। काम करने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ेगा बस सीढ़ियाँ उतरो और काम शुरू। बेटियाँ पढ़-लिख गईं, शादी के बाद दोनों ने अपने घर बसा लिए—ख़ुश हैं . . . हम दोनों भी ख़ुश हैं। मन में सन्तोष है कि इस कीचड़ में रहते हुए भी मेरा सपना पूरा हो गया।
आँखों की जलन थोड़ी कम हो चुकी थी। बाहर देखा—सड़क के खंभों से प्रकाश झरने लगा था। मेपल के पीले-लाल होते पत्तों से रोशनी भी रंगीन होने लगती है। इस झरती रंगीन रोशनी के नीचे मांस का बाज़ार लगने लगा था। हाँ, ठीक ही तो है . . . मांस का बाज़ार . . . औरत के मांस का बाज़ार!
शहर का यह वीरान इलाक़ा पिछली सदी की बन्द पड़ी, जर्जर होती इमारतों के बीच शाम के ढलते-ढलते अपना चेहरा बदल लेता है। हर नुक्कड़ पर, इन खंडहर बनती इमारतों के छज्जों के नीचे, हर उम्र, हर रंग की औरतें अपना माल सजा देती हैं। और फिर शुरू हो जाता है धीमी गति से चलती कारों के जलूस का सिलसिला। रोज़ का एक ही नियम है। कारें रुकती हैं, मोल-भाव होता है और कुछ समय के लिए लड़कियाँ ग़ायब होती हैं और फिर से अपने ठिकाने पर तैनात हो जाती हैं . . . अगला शिकार फाँसने के लिए। दिन के समय आसपास की गलियों के पुराने, सीलन से भरे घरों में रहने वाली औरतें अपने पीले से चेहरे लिए अक़्सर बाहर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हुए या फिर वापिस लाते हुए दिखाई देती हैं। कभी रुक कर मेरे स्टोर से दैनिक आवश्यकता की चीज़ें ख़रीदती हैं। स्कूल से लौटते बच्चे भी कैंडी ख़रीदने के लिए रुकते हैं पर शाम होते-होते इस इलाक़े की शक्ल ही बदल जाती हैं। बरसों से इस इलाक़े के व्यक्तित्व का अभ्यस्त हो गया हूँ, जानने पहचानने लगा हूँ। एक ही कॉर्नर-स्टोर है इस इलाक़े में—मेरा।
साँझ होते ही कुछ समय के लिए एक वीरानी-सी छा जाती है और फिर एक अजीब-सा जीवन लिए हुए जी उठता है यह बाज़ार। इन लड़कियों को भी पहचानने लगा हूँ। सिगरेट, आईसक्रीम, कॉफ़ी या फिर रात गए सैण्डविच, सूप सभी कुछ तो बेचता हूँ इनको। यह लड़की नई थी।
अचानक दुकान का दरवाज़ा खुलने की घंटी ने मेरे विचारों की तंद्रा तोड़ी। मॉम थी . . . बाज़ार की सभी लड़कियाँ उसे इसी नाम से पुकारती हैं। सारी उम्र उसने इसी इलाक़े की दो ट्रैफ़िक लाईटों के बीच ही बिता दी है। उम्र शायद पचास के आस-पास होगी पर जीवन के निर्मम थेपेड़े और नशे ने समय का सफ़र उसकी चेहरे की झुर्रियों पर लिख दिया है। ग्राहक फँसाने के कई ढंग आते हैं उसे। अक़्सर देखता हूँ कि बड़ा हैट पहन कर उसे चेहरे पर आगे को इस तरह झुका कर खड़ी होती है कि खंभे की रोशनी में कि आने-जाने वाली कारों में चक्कर लगाते, इन लड़कियों को आँकते आदमियों को केवल उसके चेहरे की झलक मात्र ही मिले। आमतौर पर देखता हूँ कि कार रुकती है, खिड़की खुलते-खुलते यह झुकती है और अगले क्षण कार झटके से आगे बढ़ जाती है। मॉम हताश, ठगी सी फुटपाथ के किनारे खड़ी रह जाती है। उसे ग़ुस्सा नहीं आता, बस सिगरेट का एक लम्बा कश खींच, धुआँ उड़ाती फिर अपने अड्डे पर जा खड़ी होती है। बाज़ार की सभी छोटी उम्र की लड़कियों ने कब इसे मॉम कहना शुरू कर दिया . . . शायद उसे भी आभास नहीं हुआ। कहें भी क्यों न, इसने भी तो उन्हें एक माँ की तरह से सँभालना शुरू कर दिया है! उनके झगड़े निपटाने से लेकर उनके मेकअप तक का ख़्याल रहता है इसे। नियमित आने वाले ख़रीददारों की पहचान है इसे, यह जानती है किसे क्या पसंद है, क्या नहीं–लड़कियाँ भी इसीसे पूछती हैं। अगर इसे किसी ग्राहक पर शक हो तो उसकी कार का नम्बर भी इसे डायरी में लिखते देखा है। और लड़कियाँ भी इसकी देखभाल करती हैं, अक़्सर मेरे स्टोर में इसके पैसे वही देती हैं।
“जैनी आई थी क्या?” उसने पूछा।
“कौन जैनी?” मैं समझा नहीं।
“वही छोटी सी, सुन्दर सी लड़की, सिगरेट लेने आई थी और तुमने उसे बेची नहीं।”
“अरे, हाँ आई थी,” मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “बेचारी को तो झूठ बोलना भी नहीं आता।”
“हाँ, जानती हूँ,” वह भी मुस्कुरा दी। सिगरेट और कॉफ़ी से भूरे हुए दाँत उसके चेहरे को और भी अनाकर्षक बना रहे थे–“बेच देते बेचारी को सिगरेट, क्या जाता तुम्हारा?” उसने जैनी की ओर से दलील दी।
“कितने बरस की है वो, तुम तो जानती ही होगी। कैसे बेचता उसे–मुझे अपनी दुकान बन्द तो नहीं करवानी सिगरेट के एक पैकट के लिए।”
“मुझे तो सिगरेट बेचने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है न?” वह फिर से मुस्कुराई, “चलो एक ड्यूमारिए लाईट का पैकट दो।”
“जानता हूँ किसके लिए ख़रीद रही हो,” मैंने सिगरेट का पैकट उसे थमाते हुए कहा, “क्यों उस बच्ची के फेफड़े जला रही हो। ख़त्म हो जाएगी बेचारी।”
उसने पैसे काउंटर पर रख दिये, फिर खोई सी बोली, “तुम क्या जानो, उस लड़की का क्या-क्या ख़त्म हो चुका है,” कहते-कहते बाहर निकल गई।
अब इस बाज़ार की कोई बात मुझे चौंकाती नहीं है। अक़्सर ऐसी कहानियाँ सुनता हूँ। मैं फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया।
उस दिन के बाद लगभग हर रोज़ जैनी आने लगी। धीरे-धीरे वो थोड़ा खुलने लगी थी। मैं प्रायः अनुभव करता कि वह अपने कुछ ग्राहक निपटाने के बाद, बहाने से मेरे स्टोर में ही घूमती। उसका वापिस बाहर जाने को मन नहीं करता था। कभी कॉफ़ी का कप भरने में और मुझे पैसे देने के बीच स्टोर के कई चक्कर लगा देती। उसकी बातों में कुछ शालीनता भी झलकने लगी थी—जो इस माहौल में कुछ अटपटी थी। कई बार वह मेरी सहायता करने की कोशिश भी करती। मैं प्रायः उसके बारे में सोचता कि यह बाज़ार उसके लिए नहीं है–और फिर इस उम्र में! बहुत कोशिश करता कि उसके बारे में न सोचूँ। इस बाज़ार के अनुभवों ने सिखला दिया था कि इन लड़कियों और मेरे बीच एक सीमा रेखा होनी ज़रूरी है और उसके पार भावुकता की कोई गुंजाइश नहीं। इनकी किसी बात का भरोसा नहीं किया जा सकता है। हर समय एक नई कहानी इनके होंठों पर रहती है। इनके जीवन की तरह इनकी हर बात झूठी है। झूठ के साथ लगाव हमेशा पीड़ा ही देकर जाता है।
उस दिन कड़ाके की सर्दी थी। शून्य से दस डिग्री से भी कम के क़रीब तापमान था। बाहर खंभों से झरती हुई रोशनी भी ठिठुरी-सी थी। आज तो बाज़ार भी सुनसान था। कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। सोच रहा था कि मैं आज जल्दी ही काम निपटा कर ऊपर जाकर रजाई में जा दुबकूँ। अचानक दरवाज़े पर लटकी घंटी ने चौंका दिया। सामने जैनी खड़ी थी, ठिठुरती हुई। खरगोश की फ़र की छोटी सी जैकेट पहने हुए, सिर पर टोपी और कान ’इयर-मफ़’ से ढके हुए थे। अपने दस्तानों में ढँके हुए हाथों को फूँकते हुए गर्म करने का प्रयास कर रही थी।
“तुम . . . आज . . . इस ठंड में!”
“हाँ, कमाई तो करनी ही है न,” वह झूठी सी मुस्कुराई और कॉफ़ी मशीन की ओर बढ़ गई। दूर से ही चिल्ला कर बोली, “कल किराया देना है, और जेब ख़ाली है।” काउंटर पर आकर अपना पर्स टटोलने लगी।
मैंने कहा, “रहने दो, कोई ज़रूरत नहीं है। मैं तो वैसे ही हैरान हूँ। कोई भी नहीं बाहर, ऐसे में कौन मिलेगा तुम्हें?”
उसने अपने पर्स की ज़िप बन्द कर अपने कंधे पर लटका लिया। अपने दस्ताने उतारे और कप को अपने दोनों हाथों में पकड़ कर उससे उठती भाप से अपने ठंड से सफ़ेद होते गालों को गरम करने लगी। मुझे उस पर दया आ रही थी।
“सैण्डविच भी ले लो, वैसे भी आज कोई ख़रीदने वाला तो है नहीं?”
“तभी दयालु हो रहे हो,” वह शरारत से मुस्कुराते हुए मैगज़ीन-रैक से उठा कर कॉस्मोपॉलिटन पढ़ने लगी। मैं भी पलट कर चीज़ें सँभालने लगा। आज देरे तक दुकान खोल कर रखने का कोई कारण नहीं था। कुछ समय में मेरा काम निपट गया था और मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि किस समय यह लड़की बाहर जाए। ठंड इतनी थी कि ज़बरदस्ती उसे बाहर भेजने को मन भी नहीं हो रहा था।
“अब तुमने खा-पी लिया है तो घर क्यों नहीं लौट जाती, आज कोई नहीं आने वाला इधर,” मैंने उसे सलाह दी।
“नहीं, शायद कोई आ जाए,” शरारत से उसने अपनी आँख दबाते हुए कहा, “शायद कोई मेरी तरह ही मजबूर हो।”
मुझे जैनी की आशा पर हँसी आई।
“कोई ग्राहक इतनी ठंड में इतना मजबूर नहीं होगा। जाओ, घर जाओ। कोई नहीं मिलने वाला।”
“तुम तो हो यहाँ।”
“हाँ, पर मेरी तो दुकान है। मुझे तो धंधा चलाना है।”
“नहीं तुम समझे नहीं, तुम्हारे धंधे की बात नहीं कर रही। अपने धंधे की बात कर रही हूँ,” उसके होंठों पर रहस्यमयी शरारत नाच रही थी।
“मैं समझा नहीं,” सच में उसकी बात अटपटी लग रही थी।
“इसमें समझने की नहीं, करने की बात कह रही हूँ। सुनो, तुम्हारी मिसेज़ तो सो भी चुकी होगी। चलो तुम्हारे स्टोर रूम में चलते हैं; मज़े करेंगे।”
मुझे उसकी बात थोड़ी-थोड़ी समझ आने लगी थी। मैं उसकी बात सुन कर सकते में था। अचानक क्या हो गया जैनी की शालीनता को? मुझे सोचते देख कर न जाने उसने क्या अनुमान लगाया, उसने दोहराया, “चल, पिछले स्टोर-रूम में चलते हैं, मज़े करेंगे।”
मैं अचानक उफन पड़ा, “क्या बक रही हो, भागो यहाँ से! शर्म नहीं आती तुम्हें! तुम्हारे बाप की उम्र का हूँ।”
मेरे इस ग़ुस्से की शायद उसे आशा नहीं थी। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। शायद मुझे ग़ुस्से में काँपते हुए देखकर वह भी घबरा गई थी। उसने अपनी कॉफ़ी का कप फ़्रीजर पर रख दिया। उसकी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे।
“मुझे तो मेरे बाप ने नहीं छोड़ा तो तुम क्यों चिंता करते हो?”
“बकवास बन्द करो,” कहते-कहते मैंने उसे कोहनी से पकड़ा और दुकान से बाहर धकेल दिया। ठंड में वह काँपने लगी। दो क़दम चलने के बाद पलटी। वह फफक कर रो रही थी, “मेरी बात कोई भी नहीं मानता। मेरी माँ ने भी नहीं मानी थी।” और वह पैर पटकती हुई रात के अँधेरे में गुम हो गई।
ग़ुस्से में मैं उबल रहा था। यह सब लड़कियाँ दया के लायक़ हैं ही नहीं! अपने धंधे से समझौता करने के लिए क्या-क्या कहानियाँ गढ़ लेती हैं! इन कहानियों में सदा दोष किसी और का होता है इनका नहीं। जैनी भी ऐसी ही निकली। इसे भी किसी रिश्ते का कोई आभास ही नहीं है। थोड़ा अपनापन क्या दिखा दिया कि उल्टा ही मतलब निकालने लगी! किसी तरह से मैंने स्वयं को संयत किया और स्टोर की लाईट बन्द कर ऊपर चला गया।
उस दिन की घटना के बाद कई दिन तक जैनी नहीं दिखी। शायद बाज़ार में आती भी हो, पर स्टोर में नहीं आई। अगर कहूँ कि इन दिनों, उस दिन की घटना के बारे में नहीं सोचा तो ईमानदारी नहीं होगी। और फिर एक दिन वह अपनी झूठी सी मुस्कान लिए स्टोर में चली आई।
“पॉप्स, क्या आज तक नाराज़ हो?”
यह संबोधन इस बाज़ार के लिए नया था। इस बाज़ार में रिश्ते नहीं साधे जाते बस सौदे किए जाते हैं। मैं भी मुस्कुराया, “कहाँ रही इन दिनों?”
“बस ऐसे ही, सुनो! उस दिन के बाद बस यहाँ आने से घबराती थी।”
“ख़ैर जाने दो, मैं भी उसे भुला चुका हूँ। अभी-अभी कॉफ़ी का नया अर्न बनाया है,” मैंने बात को टालते हुए कहा। इस विषय का अन्त यहीं हो जाए तो अच्छा। वह चुपचाप कॉफ़ी की मशीन की और बढ़ी और काउंटर पर आकर उसने पर्स खोला। मैंने
उसे टोका, “रहने दो, बहुत दिनों के बाद आई हो।”
“नहीं, उस दिन की ग़लती के लिए शर्मिंदा हूँ, फिर नहीं दुहराऊँगी।”
“कहा न, भूल जाओ।”
मैं भी उससे नज़रें मिलाने से कतरा रहा था। सिर झुका कर काउंटर पर पड़े लॉटरी के पन्नों को सहेजने लगा। वह कॉफ़ी का कप लिए मैगज़ीन रैक तक चली गई। कुछ पन्ने पलटती रही और फिर अचानक पलट कर बोली, “मैं तब दस बरस की थी।”
“क्या? मैं समझा नहीं,” उसकी बात का छोर मेरे हाथ नहीं आया था।
उसकी दूर से आती आवाज़ ने कहा, “जब मेरे बाप ने पहली बार मुझे छुआ। मैं दस बरस की थी।”
एक ठंडी सिरहन मेरी रीढ़ पर दौड़ने लगी। इस छोटी सी लड़की की कड़वी सच्चाई को सहन करने की क्षमता शायद मुझ में नहीं थी। मैं सुन नहीं सकता था। उसका स्वर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था। जब उसने अपने जीवन की इतनी गहरी पीड़ा को मेरे सामने रख दिया है तो कुछ कहना तो आवश्यक हो गया था।
“सच! अपनी माँ को नहीं बताया क्या?”
“बताया था। पर वह नशेड़ी औरत . . .” उसकी आवाज़ में घृणा टपक रही थी, “उसे तो केवल बोतल और नशे की गोलियों से मतलब था। मेरा बाप भी उसे धुत्त रखता था ताकि उसका रास्ता साफ़ रहे।”
“पर तुम स्कूल, पुलिस किसी को भी बता सकती थी।”
“कैसे कहती, जब मेरी माँ ने ही विश्वास नहीं किया। पलट कर कभी मुझ पर ही दोष लगाती या फिर रो-रोकर दुहाई देती कि मैं किसी को न बताऊँ। शायद मेरी माँ को मेरी बजाय अपनी बोतल की अधिक चिंता थी।”
मैं उसके चेहरे को देख रहा था। उसका चेहरा एकदम सपाट था, उस दिन जैसी कोई भावुकता नहीं थी। उसने भी मेरे चेहरे पर उभरते प्रश्नचिन्हों को पहचान लिया था। अचानक वह झुकते हुए हँसी, “कैसी लगी तुम्हें मेरी दर्द भरी कहानी?”
इससे पहले कि मैं कुछ उत्तर दे सकूँ वह हँसती हुई बाहर निकल गई। मुझे अपने भोलेपन पर झल्लाहट हुई। कितनी बार अपने आपको समझा चुका हूँ कि यह झूठ का बाज़ार है। किसी की बात का विश्वास मत करो। पर यह लड़की न जाने कब वह
सब मेरी बनाई सीमाएँ तोड़ कर क़रीब आ गई थी; और आज इसने एक बार फिर मुझे वास्तविकता के धरातल पर ला खड़ा किया था कि यह झूठ का बाज़ार है। मैंने सिर को झटका और दैनिक व्यस्तता में व्यस्त हो गया।
उस दिन के बाद जैनी सामान्य ढंग से ख़रीददारी करने के लिए आने लगी। लगा उस घटना ने जीवन के तलाब में जो कंकर फेंका था और उससे जो लहरें उठी थीं–अब समय में खो गई थीं। सतह फिर से शांत थी। अपनी गहराई के आँचल में ऐसी कई घटनाओं को सहेजे हुए।
समय बीतता रहा। सर्दी के बाद वर्षा ऋतु बीती। वसन्त ने बीतते हुए ग्रीष्म ऋतु का स्वागत कर दिया था। इस बरस भरपूर गरमी पड़ रही थी। मेरा स्टोर एयरकंडीशन्ड था। इन दिनों मेरी आईसक्रीम और आईस-स्लश की बहुत बिक्री हो रही थी। एक दिन दरवाज़ा खुला तो देखा की जैनी दो छोटी उम्र की लड़कियों के कंधों पर बाँहें रखे स्टोर के पायदान पर खड़ी है। उसने हल्का सा फूलों वाला टॉप डाला हुआ था। आज वह बहुत ख़ुश थी। उसकी ख़ुशी छलक कर पूरे स्टोर में बिखर गई। मैं भी अछूता नहीं रहा। मुझे विस्मित देख कर वह चहकी—
“देखो, पॉप्स आज मुझे कौन मिलने आया है!” उसके चेहरे से गर्व झलक रहा था।
मैंने उसकी बात को आगे बढ़ाने का अवसर देते हुए पूछा, “कौन हैं यह सुन्दर गुड्डियाँ?”
“मेरी छोटी बहने हैं। बहुत प्यारी हैं न! देखो मुझे मिलने आई हैं,” कहते-कहते उसने उन दोनों को फिर बाँहों में भर लिया। वह बार-बार झुक कर उन्हें चूम रही थी। मैं उसका बहता वात्सल्य देख रहा था। उसने मेरी तरफ़ देखा, “इन्हें आईसक्रीम दिलाने लाई हूँ,” फिर उसने दोनों तरफ़ देखते हुए कहा, “जाओ लड़कियो फ़्रीजर में से आईसक्रीम कोन निकाल लो,” कहते हुए वह अपना पर्स खोलते हुए काउंटर पर आई।
“रहने दो, मैं खिलाता हूँ इन्हें आज की आईसक्रीम,” मैंने कहा।
“नहीं, नहीं इनके पैसे आज मैं ज़रूर दूँगी। बड़ी बहन के पास आई हैं।”
आज वास्तव में वह बहुत ख़ुश थी। मैंने उससे पैसे पकड़ते हुए कहा, “बच्चियो, सबसे बड़ी कोन उठाना और अपनी बड़ी बहन के लिए भी लेना न भूलना।”
मेरी बात सुन वह मुस्कुराई। दोनों छोटी लड़कियों की ओर देखती हुई फिर बोली, “दोनों प्यारी हैं न!”
“हाँ, बहुत प्यारी हैं!”
बस और कोई बात नहीं हुई। लड़कियाँ आईसक्रीम उठा चुकी थीं। शर्माती-सी नज़र से मुझे उन्होंने देखा। जैनी के लिए अब बस वहाँ पर उसकी बहनों के सिवाय और कोई न था। कुछ देर के बाद बाहर जाते हुए उसने पलट कर मेरी तरफ़ देखा, “थैंक्स!” कहते हुए वो तीनों बाहर चली गईं।
मेरी निगाह उसका पीछा कर रही थी। वह तीनों दूर नहीं गईं। बस बाहर निकलते ही फुटपाथ पर पड़े, बड़े-से गमले से पीठ सटाकर आईसक्रीम चाटने लगीं। बीच-बीच में वह रुक कर कभी एक बहन को और कभी दूसरी को अपने से सटा लेती। जब तक आईसक्रीम की कोन चलती रही यही सिलसिला चलता रहा। मैं भी दुकान के अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो गया। फिर अचानक बाहर से लगभग चीखता हुआ स्वर उभरा। जैनी ही थी–अपनी बहनों से थोड़ी दूर खड़ी चीख रही थी!
“तो तुम्हें माँ ने भेजा है! नहीं लौटूँगी घर, कह देना उस बुढ़िया से बात-बात में मुझे गश्ती कहती थी, अब बन गई हूँ मैं गश्ती। हो जाए ख़ुश! मैं नहीं लौटूँगी।”
वह पीठ कर, पैर पटक-पटक जाते हुए तक़रीबन दस क़दमों के बाद ही लौट आई। वह फिर चीखी, “वह बुड्ढा, तुम्हारा बाप कहीं तुम्हें ग़लत ढंग से छूता तो नहीं?” उसका प्रश्न बड़ी लड़की से था जो देखने में दस बरस के आस-पास की लग रही थी। वह लड़की बुरी तरह से डरी हुई थी। उसने अपना सिर नकारात्मक ढंग से हिला दिया। जैनी तन कर खड़ी हो गई।
“ठीक है, ख़्याल रखना। अगर उसने थोड़ी भी छेड़खानी की तो मुझे बताना!” कहते हुए उसने अपने पर्स में से एक चाकू निकाल कर हवा में लहराते हुए चेतावनी दी, “हरामज़ादे को काट कर रख दूँगी! तुम्हारी बड़ी बहन अभी ज़िन्दा है!!”
अपनी दोनों बहनों को वहीं बैठा छोड़ जैनी चली गई।
उसके बाद वह कभी दिखाई नहीं दी। कुछ दिनों के बाद मॉम आई तो मैंने उससे पूछा, “जैनी नहीं दीखती आजकल।”
“घर लौट गई वह। कहती थी कि जो उसके साथ हुआ वह अपनी बहनों के साथ नहीं होने दूँगी।”
मैं धीरे बुदबुदाया, “उसने सच ही कहा था।”
“क्या?” मॉम ने प्रश्न किया।
इस प्रश्न का उत्तर देना मैंने उचित नहीं समझा। मैं पलट कर शेल्फ़ों को ठीक करने लगा। मॉम की नज़र का प्रश्न मेरी पीठ पर दस्तक देता रहा।