जितना मैं झुकती हूँ,
उतना झुकाते हो।
जितना चुप रहती हूँ,
उतना ही सुनाते हो॥
लचीली कोमल टहनी सी,
झुकना मुझे आता है।
चंचल, गतिशील,
पर रुकना मुझे आता है॥
दबाव का प्रभाव, यदि
कुछ अधिक हुआ,
सूखी टहनी सी मैं
टूट-बिखर जाऊँगी।
आत्मबल और विश्वास
होने के उपरान्त भी,
तुम्हारे ही तो क्या,
किसी के काम न आऊँगी॥
बात समानता की तो
सभी कर लेते हैं,
समानता का अधिकार
फिर भी क्या देते हैं?
पति-परमेश्वर की तो
बात अब पुरानी है,
आधुनिक युग में तो
बिल्कुल बेमानी है।
सदियों पे सदियाँ
दासता में बीत गयीं,
उसके पश्चात् अब
ताज़ी हवा आयी है।
नारियों का जागरण
देश-देश हो रहा,
यह जागॄति कुछेक
अधिकार ले आई है।
इस परिवर्तन से
नवजीवन मिलेगा,
हमारे व्यक्तित्व का
नवप्रदीप जलेगा।
होगा घर-आँगन
तुम्हारा ही तो ज्योतिर्मय,
जीर्ण-शीर्ण परम्परा
का प्राचीर ढहेगा।