कहानी शीशी व शीशे की

01-10-2025

कहानी शीशी व शीशे की

मधु शर्मा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

भूमिका:
शीशे के प्रेम में खोई ख़ुद को भूले जाती थी, 
क्योंकि कहने को वह शीशी कहलाती थी। 
 
कहानी:
बड़े से शीशे के सामने एक छोटी सी शीशी रखी थी, 
उसमें अपना अक्स देख-देख वह शीशे पर मरती थी। 
साहस कर एक दिन उसने प्रेम का इज़हार कर दिया, 
शीशे ने परन्तु बड़ी बेरुख़ी से साफ़ इंकार कर दिया। 
 
साफ़ इंकार कर दिया शीशी की खिल्ली उड़ाते हुए, 
बोला बढ़ा-चढ़ा कर अपने गुणों को गिनवाते हुए—
 
“चमक तो देख मेरी, और चेहरा भी कितना साफ़ है, 
महल में रहूँ या झोंपड़ी में मेरे तो बस ठाठ ही ठाठ हैं। 
तू छोटी सी, कहीं से चपटी और टेढ़ी-मेढ़ी या गोल है, 
मैं इतना महँगा और तेरा तो कौड़ियों के भाव मोल है।”
 
यह सुनकर बेचारी शीशी रोती हुई सामने से हट गई, 
कोसती रही स्वयं को कि धरती क्यों नहीं फट गई! 

और फिर एक दिन—
भूकंप के एक ही झटके से शीशा गिरके चकनाचूर हुआ, 
उस छोटी शीशी पर परन्तु झटके का कुछ न असर हुआ। 

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