वुजूद

धीरज पाल (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मैं चुप रहा यह सोच कर
शायद प्यार में ऐसा ही होता है
फूल खिलते हैं मुरझाते हैं
जिस्म मिलते हैं बिछड़ते हैं
लेकिन . . . प्रेम में मैं सिर्फ़
मुरझाया ही मुरझाया
और जिस्म मेरा रेत होता रहा
ढलता रहा एक ढाल के सहारे
गर्त में नर्क में
मैं ज़िन्दा रहा सिर्फ़ और सिर्फ़ 
शब्द में अर्थ में। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में