बदहाली

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

शहर के बीचों बीच एक अजीब सी गंध है, 
एक अजीब सी बास
जैसे बहुतेरों की संख्या में कुछ सड़ रहा हो
यह सड़न भी सदियों पुरानी लगती है
मैं स्पष्ट कहूँ तो 
जैसे मुर्दे की गंध और 
श्मशान की बास आती है ठीक वैसे
लेकिन आश्चर्य है, 
शहर के बीचों बीच कोई श्मशान नहीं, 
कोई मुर्दा नहीं फिर क्यों ऐसी दुर्गन्ध? 
 
लोग घरों से निकल आए हैं और
 पुकार रहें है ईश्वर को
मंदिरों और मस्जिदों में सभी इकट्ठा हो रहे हैं
सभी धर्मों ने एक दूसरे पर 
आरोप मढ़ना शुरू कर दिया
ईश्वर की मूर्तियाँ चीख पड़ी हैं, 
मस्जिद की दीवारें रो रही हैं
तभी आकाशवाणी में 
एक फुसफुसाहट सुनाई देती है
मैं भागने लगा गंगा की ओर, 
मेरे पीछे भीड़ भागी आ रही है
देखता हूँ गंगा स्थिर हो चुकीं हैं 
और बजबजा रही हैं
लाशों की ढेर से, 
लाशें भी ऐसी जिन से दिल और दिमाग़ ग़ायब है
सभी लाशों में मेरा ही चेहरा दिखता है मुझे
अजीब सा दृश्य है, अजीब सा डर
 
क्या नजात पाने का कोई तरीक़ा नहीं? 
 
या फिर यही नजात है 
सड़ी-गली इंसानियत से मुक्ति पाने की, 
या फिर यही तरीक़ा है 
बन्दूक को होली की पिचकारी बनाने का, 
बमों से उपजी आग को 
दीवाली के दीप बनाने का, 
पाँव की बेड़ियों को रक्षाबंधन बनाने का, 
मरी हुई इंसानियत को फिर से जगाने का। 

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