ग़रीबी
धीरज ‘प्रीतो’
खाने को खाना नहीं
सोने को बिस्तर नहीं
ग़रीबों की झोपड़ी में
छत का ठिकाना नहीं
है छाँव क्या पता नहीं
है धूप क्या कभी भूला नहीं
तपते हैं पत्थर के जैसे
इनका शरीर है या लोहा कोई
पैरो में बिवाइयाँ फूटी
हाथो में लकीरें नहीं
क़िस्मत इनकी टूटी फूटी
जेबों में इनके रुपया नहीं
होता जब बीमार कोई
कहाँ मरता है कोई बीमारी से
अस्पतालों के चक्कर खाते
मर जाते है लंबी लाइनों और धिक्कारी से
बाबूजी, साहब जी मदद कर दो
कहते कहते, दौड़ते भागते
हाथ पैर मारते मारते थक जाते हैं लाचारी से
इनका न कोई सगा है
इनका न कोई सुख चिंतक
सरकारें भी है मौन खड़ी
मानवाधिकार भी है सुस्त पड़ा
मर जाएँ ये मेरी बला से
ग़रीबों के लिए यहाँ कौन खड़ा॥
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