सदा तुम्हारा

01-01-2025

सदा तुम्हारा

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

तुम क्यों नहीं समझती
उस उदास लड़के के मन की वेदना
जो रहता अंदावा में है परन्तु वो खुली आँखों से देख लेता है 
तुम्हारे घर का आँगन, तुम्हारे घर की चारपाई और 
चारपाई के बग़ल जुगाड़ से लगाए हुए कूलर के पंखे को
 
तुम क्यों नहीं समझती 
उस हँसते चेहरे के पीछे का दर्द
जो सहेज रहा है तुम्हारे छुअन को 
वैद्य की औषधि की तरह
और प्रलाप करते हुए बनाता है 
एक रोता हुआ ताजमहल
जिसके दीवारों पर नक़्क़ाशी गई हैं 
आँसुओं से बनी नदियाँ 
जिसके गोपुरम पर लिखा है 
यह एक “प्रेम मंदिर है, 
जिसके गर्भगृह में दफ़्न है एक हुस्न कि मलिका“

तुम क्यों नहीं समझती कि
प्रेम की कोई विशेष परिभाषा नहीं है
फिर भी ये लड़का सारे मजनुओं द्वारा 
विकसित परिभाषाओं पर खरा उतर रहा है
तुम्हें समझना चाहिए कि 
जब प्रेम को खींच तान कर देखा जाएगा
तो पाया जाएगा प्रेम सिर्फ़ पंच तत्वों से बना— 
एक लचीला पारस भर नहीं है, 
यह रक्त और आँसुओं से पोषित भी है
 
तुम क्यों नहीं समझती कि
जब यह ख़ूबसूरत दुनिया वीरान और उजाड़ हो जाएगी 
तब यही लड़का जो प्रति पल तुम्हें याद कर रहा है
बचा लेगा अपने अंदर प्रेम के पंच तत्वों को
थोड़ी सी आग अपने दिल में, 
एक-दो बूँद पानी अपनी आँखों में, 
थोड़ा सा वायु अपने सीने में, 
अपनी मुट्ठी में मुट्ठी भार आकाश और 
अपने बदन में थोड़ी सी मिट्टी
अगर तुम समझ पाओ तो जान पाओगी कि
यह लड़का जो तुम्हें प्रेम करता है, तुम्हें पूजता भी है और 
छोड़ देता है अपनी कविताओं के अंत में एक संदेश “सदा तुम्हारा।” 

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