भाषा

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मेरे शरीर के रोम रोम की अपनी
अलग अलग भाषाएँ हैं
कुछ को दर्द में सिर्फ़ कराहना आता है
कुछ को ख़ुशियों में गुनगुनाना
कुछ तो सिर्फ़ मौन की भाषा जानते है
कुछ द्विभाषी भी है जिन्हें प्रायः दोगलेपन में महारत हासिल है
कुछ की कोई भी भाषा नहीं है, ये हर तरह की संवेदना से परे हैं
कुछ इतने बड़बोले कि बिना मतलब फ़साद पैदा करते रहते है
कुछ है जो प्रेम की सिवा कुछ नहीं बोलते
ये न होते तो मैंं तुमसे अपने प्रेम का इज़हार नहींं कर पाता
और कुछ तो नफ़रती गोडसे है जिनका काम है नफ़रती गोलियाँ दागना
और इन सब के इतर एक मेरी भाषा है, मेरी प्रिय भाषा कविता। 

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