ओ महबूब

01-05-2025

ओ महबूब

धीरज पाल (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

एक ईश्वर है या था
जो लापता है
सुयोग्य ईश्वर की तलाश में
मैंने प्रेम किया
ओ! महबूब मेरे . . . 
तुम्हारा दिया गुलाब धीरे-धीरे मर रहा है
इत्र की बोतल ख़त्म हो रही
प्रेम तुम्हारा दम तोड़ रहा
धीरे धीरे दृश्य धुँधला गया
धीरे धीरे समझ आ रहा 
नश्वर संसार में सब नश्वर है
प्रेम भी और ईश्वर भी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में