मुक्ति

धीरज पाल (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

मेरी अधरों पर दफ़्न हैं
न जाने कितनी कविताएँ
सिसकियाँ भरतीं, एकांत में कँपकँपाती
प्रस्फुटित होने को तलाशती मार्ग
तुम गंगोत्री बन जाओ
रख दो अपनी अधरों को
मेरी अधरों पर
कदाचित मेरा श्राप टूटे
कदाचित कोई नज़्म फूटे।

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