प्रेम का वध
धीरज ‘प्रीतो’
घर का वह कोना
जहाँ लोग कम आते जाते हैं
वही बसता है मेरा एकांतवास
तुम्हारे प्रेम का वनवास मैं वही काटता हूँ
वहीं से उपजे हैं मेरी कविताओं के शब्द
वहीं मैं अपने क्रोध का गला घोटता हूँ
वहीं खींचता हूँ मैं अपने दुखों पर लक्ष्मण रेखा
वहीं करता हूँ वध अपने प्रेम का
और वहीं से लौट आता हूँ मैं
अपनी माँ की दुनियाँ में
जहाँ मैं सचमुच का राजकुमार होता हूँ।
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