मत ब्याहना मुझे उस स्त्री से
धीरज ‘प्रीतो’
मत ब्याहना मुझे उस स्त्री से
जिसने कभी चूमा न हो अपने पिता का हाथ
जिसने कभी लगाया न हो अपने भाइयों को गले
उस स्त्री से तो क़तई नहींं
जिसने समझा न हो अपनी ही
बहन का दुःख
लगाया न हो माँ के पैर में तेल
हँसी ठिठोली न की हो किसी नवजात संग
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जो रखते हों जलन अपने परिवार से
चुभते हों पड़ोसी जिनकी नज़र में
जहाँ न आते हों रिश्तेदार बिन बुलाए
मत चुनना ऐसी वधू
जो शृंगार और गहनों में
डूबी रहती हो अक्सर
जाहिल निकम्मी हो
और माहिर हो लौंडेबाज़ी में
ऐसी वधू मत चुनना मेरी ख़ातिर
जो बात बात में करे मायके जाने की बात
कोई मोटर साइकिल तो नहींं
कि बाद में जब चाहूँगा बदल लूँगा
अच्छा ख़राब होने पर
मत ब्याहना ऐसी स्त्री से
जिसे रूठना न आता हो
रिझाना न आता हो और
न आता हो मनाना
जिसको पसंद न हो तीखा खाना
उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जो चल न सके सरेआम मेरा हाथ पकड़ कर
और तो और
जिसे आता न हो ठुमके लगाना
जो बेवजह गाती न हो
जिसको आती न हो ग़लतियाँ करना
जिसने जलाई न हो आज तक एक भी रोटी
मत ब्याहना मुझे किसी मिस परफ़ेक्ट से
मेरा लगन करना उस स्त्री संग
कि जब कभी भी मैं दुख में रोना चाहूँ
तो तैयार रखे अपना कंधा और
आँसू पोंछने के लिए अपना पल्लू
मैं जब कराहूँ दर्द से
आकर बैठे मेरे सिरहाने
मेरे माथे पर अपना हाथ फेरे और
होंठों पर दे प्यार भरा एक चुम्बन।
“उपर्युक्त कविता मशहूर कवयित्री निर्मला पुतूल की कविता से प्रेरित है जिसका शीर्षक ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा’ है।”
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