मैं भी इंसान हूँ

01-01-2024

मैं भी इंसान हूँ

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

एक
 
इस धरा की जननी ने
कीड़े मकोड़े बनाए, पक्षी बनाए, 
जानवर बनाए, बनाए लाखों जीव
फिर प्रकृति से भूल हुई
भारी भूल हुई
एक औरत बनाई एक पुरुष बनाया
फिर जो कुछ भी बनाया था
दोनों ने मिलकर सबको धूल बनाया
जनसंख्या बढ़ाई देश बनाया
धर्म बनाए, मज़हब बनाए
जात बनाई, उपजात बनाई
आपस में बँटते चले गए
अपनों से लड़ते चले गए
 
दो
 
कुत्ता अब भी कुत्ता
घोड़ा अब भी घोड़ा
इस दुनिया के सारे जीव पहले जैसे हैं
फिर ये इंसान कहाँ खो गया
क्या इनकी अपनी बुद्धि ही श्राप बनी है
हथियार बनाए, बम बनाए
प्रथम, द्वितीय विश्वयुद्ध किया
हिरोशिमा को नपुंसक किया
न धरती छोड़ी, न आकाश छोड़ा
जहाँ देखो वहीं है कचरा किया
पर्वतों, पहाड़ों को कुचल दिया, कुचल रहा है, 
जब तक रहेगा कुचलता रहेगा
सागरों, नदियों, झीलों में पेट्रोल छोड़ा, 
रसायन छोड़ा, मलमूत्र छोड़ रहा है
अंत, ये अंत क्यों नहीं आता
कब आयेगा अंत? 
 
तीन 
 
प्रेम, काम, क्रोध, डर, अनुशासन, स्पर्धा, 
जैसे लक्षणों के वश में आकर
पुरुषों में अपने लिए अलग काम
और महिलाओं के लिए चूल्हा चौका
बरतन, झाड़ू पोंछा बनाया
अनाज उगाया, सिक्के बनाए, व्यापार बनाया
इतिहास में लाखों करोड़ो लाशों, मांस के लोथड़ों
को रौंदते हुए, 
वेश्याओं के नंगे बदन को चाटते, खाते
और काटते हुए अपना साम्राज्य बनाया
फिर स्त्रियाँ उठ खड़ी हुईं और
इतने शोर के साथ की उनकी 
आवाज़ के सामने सारी ध्वनियाँ शून्य हो गईं
पुरुषों को अपने अंगुलियों पर नचाना शुरू किया
पुरुष काममुग्ध हो हाँ में हाँ कहता चला
इतिहास के पन्ने पटते चले गए 
ऐसी ही वीभत्स कहानियों से 
स्त्री और पुरुष, पुरुष और स्त्री
देखो देखो सुनो सुनो
कौन किसको काट रहा है
कौन किसको मार रहा है
वीभत्स वीभत्स, डरावना डरावना
 
चार
 
कौन कहे भगवान बनाया हमको
या हमने भगवान को बनाया है
स्पर्धा है, घोर स्पर्धा
इंसानों इंसानों के बीच
भगवान भगवान के बीच
इंसान भगवान के बीच
होड़ है महान बनने की, 
क़ाबू पाने की, ख़ुद पर नहीं औरों पर
पाखंड करके, पूजापाठ करके
सब को वश में कर लो
बताओ इनको, डराओ इनको
हमारा ईश्वर महान है, 
नहीं नहीं हमारा ईश्वर महान है, 
अरे नहीं इनका ईश्वर चोर है
हमारा ख़ुदा महान है
क्या बकवास है यीशु महान है
कहो इनसे नर्क में जलेंगे
जन्मों-जन्म तक भटकेंगे
आओ धर्मांतरण करो, 
आओ, आओ, आओ . . .। 
 
पाँच
 
एक और ग़लती हुई प्रकृति से
इंसानों में भूख बनाई, उदर बनाया
सब खा रहा है, खाता ही जा रहा है
मांस, मदिरा, ड्रग्स, अपना खाना, जानवरों का खाना, 
रिश्ते नाते, अपने पराए, धरती, आकाश, पाताल
ग्रह, नक्षत्र, सब, सब, सब . . .
जो दिखता है वो भी
जो नहीं दिखता है वो भी
खा रहा है, सब खा रहा है
कितना खाता है, खाता ही जा रहा है
इसका उदर है या ब्लैक होल
इनकी क्षुधा है कि शांत नहीं होती
तृप्ति नहीं मिलती इनकी क्षुधा को
जो समा गया इनके उदर में लौटा नहीं
बचो, बचो, बचो इनसे, ये इंसान है
मुझसे भी बचो
भाग जाओ, दूर भाग जाओ मुझसे
मैं अंत हूँ इस पृथ्वी का, क्यूँकि
मैं भी इंसान हूँ। 

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