तीन भाइयों का दुखड़ा

15-04-2024

तीन भाइयों का दुखड़ा

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

तीन भाई तालाब, नदी और समुन्द्र
आपस में बैठे बाते कर रहे है
तीनों अपने अपने भविष्य, स्वास्थ्य और 
पवित्रता को लेकर चिंतित हैं और 
उन्हें चिंता है उन पर आश्रित जीवों की भी
 
तालाब सबसे ज़्यादा ग़ुस्से में था 
कारण था उसका छोटा आकर
और भयभीत इतना कि दो मनुष्यों को 
अपने पास आता देख ले तो 
उसके प्राण सूख जाएँ
वो अपने बड़े भाइयों से गुहार करता है 
उसका अस्तित्व बचा लें
परन्तु कैसे? जिनकी ख़ुद की लुटिया डूबी हो 
दूसरों की कैसे उबारें
 
तालाब बोलता है . . .
नदी तुम्हें तो वरदान मिला है 
सदा पवित्र रहने का! 
 
नदी मुँह बना कर बोली . . . 
वरदान! जो इंसान अपने देवताओं को ना बख़्शे 
वो उनके वरदान को बख़्शेगा, 
तुम दोनों तो फिर भी ठीक हो, 
मुझमें तो मलमूत्र और रसायन छोड़ा जाता है
मैं और पवित्र, मुझे याद भी नहीं मैं 
कितनी सदियों पहले पवित्र हुआ करती थी
मैं शिव की जटाओं में ही ठीक थी, 
करम फूटे थे मेरे जो मुझे 
उस अड़ियल भागीरथ ने इस नर्क में बुलाया 
और शिव, शिव ने भी मुझे बेसहारा छोड़ दिया 
बस एक वरदान के सहारे
ये मुझे माँ कहते हैं, धत्त ऐसे रखते है माँ को! 
अच्छा होता मैं सिर्फ़ नदी रहती तो शायद बची रहती
 
समुन्द्र से अब रहा नहीं जा रहा है
वो भी अपना दुखड़ा रोना चाहता है 
इससे पहले कि कोई व्यवधान डाले
सुनो! मेरे अनुज, 
मैं आकार में बड़ा ज़रूर हूँ पर मेरा दुःख 
उससे भी बड़ा है
नदी क्या तुम नहीं जानती, 
तुम्हारा सारा कचड़ा मैं ही तो सोखता हूँ
मैं ही तो हूँ जिसके सीने पर 
अनगिनत बड़े बड़े जहाज़ रूपी 
आस्तीन के साँप डोलते रहते हैं
मैं ही तो हूँ जिसके गर्भ में 
बड़े बड़े परमाणु परीक्षण किए जाते है, 
मैं ही तो हूँ 
जिसके उदर से सारे पोषक तत्त्व निकाले जा रहे हैं 
और भर दिए जा रहे हैं 
दिन प्रतिदिन लाखों टन प्लास्टिक और रसायन, 
मैं ही तो हूँ जिसके बदन पर 
फ़ाइबर से टांका लगाया जा रहा है, 
हे राम! तुम्हारे पास तो मौक़ा था 
मुझे इस दुख से बचा लेने का, 
तुमने तो धनुष पर प्रत्यंचा भी चढ़ा ली थी 
फिर क्यों, फिर क्यों रुक गए! 
सुखा दिया होता और बचा लिया होता मुझे। 

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