प्रेम में पाषाण हो जाना

15-10-2024

प्रेम में पाषाण हो जाना

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जानता हूँ पाषाण पिघला नहीं करते फिर भी
तुम्हारी तस्वीर दिन में एक बार ज़रूर देख लेता हूँ
कुछ कविताएँ जो तस्वीर में क़ैद हैं, उन्हें बाहर
खींच लाने की भरसक प्रयास करता हूँ
 
सफलता असफलता के पड़ाव में
उन्मुक्त भाव से सोचता हूँ कि
तुम्हें याद करते हुए
किसी दिन मैं पाषाण बन जाऊँ
पाषाण जिसमें क़ैद रहती है
वर्षों पुरानी यादें और जो सँजोए
रखी हैं अब तक अपने सीने में सृष्टि के
प्रथम प्यार का इतिहास
 
मेरा पाषाण हो जाना ख़ुद को अमर कर देना होगा
 
जैसे हमारे इष्टदेव विराजमान है पाषाणों में
अब तक सही सलामत
 
सभ्यताएँ जो पाषाणों के बीच फली-फूली
कई बार मर कर पुनः जीवित हो गईं
शायद मैं भी जीवित हो जाऊँ किसी दिन
अकस्मात्‌ प्रेम में पड़ी किसी सीता का पाँव छू जाने से
और तब उस दिन हाथ में थामे तुम्हारी तस्वीर पर रच दूँ
एक कविता, एक गीत, एक इतिहास
कि प्रेम में पाषाण हो जाना
थोड़ा थोड़ा भगवान हो जाना होता है। 

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