घुप्प अँधेरा

01-11-2023

घुप्प अँधेरा

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

कमरे में घुप्प अँधेरा था
न था ख़्याल कोई मन में
दिमाग़ में तेरी तस्वीर थी
मैं फिर भी था अकेला ख़ुद में
न जलता था एक भी दिया कमरे में
थी लगी आग मगर भयंकर मेरे तन में
ख़ाली मन का ख़ाली दर्पण
तेरा ही अक्स दिखलाता है
है अँधियारा कमरे में
फिर भी तू साफ़ नज़र आता है
तख़त के घुन अक़्सर मुझसे बतियाते हैं
कभी मेरा उपहास कभी मेरी प्रसंशा
के गीत गाते है
होकर प्रभावित इनसे
मैं भी कुछ ग़ज़लें तुम पर लिख देता हूँ
कोने में बैठी छिपकली को
रो रो कर मैं सुनाता हूँ
इतना कुछ करके भी
मैं अपने मन को न बहला पता हूँ
करता हूँ कोशिश हँसने की
नाकाम रुदन ही कर पाता हूँ
शांत है मौसम शांत समंदर
शांत है मन का हर कोना फिर भी
मेरा हृदय न जाने किस
तूफ़ान से घबराता है
है पढ़ लिया शायद इसने
दिमाग़ में उपजे मेरे अंत को
इसलिए हृदय मेरा आज
मेरे पंखे से लड़ जाता है
है समझता मुझको
है रोना तुमको तो रो लो मगर
न करो हमारा काम तमाम
तेरे कमरे में भी उजाला आयेगा
निकल इस कमरे से जब तू जाएगा॥

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