मेरी प्यारी धृष्टता
धीरज ‘प्रीतो’
तुम पर कविता लिख रहा हूँ
क्षमा करना
परन्तु कवियों को हक़
है कुछ भी लिखने का और
किसी भी विषय पर लिखने का
कवियों की इस धृष्टता को
ईश्वर भी क्षमा करता है
तुम भी करना
देखो, तुम्हारा तपाक से बोलना
अब लिखते ही रहोगे या सुनाओगे भी
तो सुनो . . .
तुम जो थोड़ी नक्चढ़ी,
थोड़ी उदासीन और
बहुत ज़्यादा अल्हड़ हो, हो ना?
ये आदतें ऐसी है जैसे
गुलाब में काँटे
जिनके बिना गुलाब
अस्तित्व विहीन होता है
गुलाब, तुम्हारा बदन
जिसमें ढेर सारी कलाकृतियाँ हैं
तुम्हारे शिरोरुह जैसे
पामीर पठार पर छाए बादल
तुम्हारा ललाट और उसके
नीचे नयन गर्त
जैसे ऊँचे पहाड़ों में बसते
जल प्रताप
देखो, अब हँस रही हो तुम
और बाधा डाल रही हो
मेरी कविता पर, रुको, आगे सुनो . . .॥
तुम्हारे ओंठ
जैसे कमल की पंखुड़ियाँ
तुम्हारे शिरोधरा के नीचे
विराजमान तुम्हारे उरोज
जिस पर सुशोभित सख़्त कुचाग्र
मुझे जुड़वाँ पहाड़ियों के
शिखर की याद दिलाती है
तुम्हारे कटिभाग समुन्द्र और उस
पर वो शिरामूल, लगते ऐसे जैसे
समुद्र के बीच स्थित कोई द्वीप
देखो, अब तुम लजा भी रही हो
चेहरे को अपने दुपट्टे में छुपाए . . .॥
तुम्हारे नितंब और कदलिनुमा
जघाएँ और उनके बीच का
मदनालय, सब मिलकर
मेरे लिए पवित्र पर्यटन स्थल
और प्रयोगशाला बनाते हैं
और तुम्हारे पादतल
जिन्हें मैं पूजता हूँ
ये वे जड़े हैं जिन पर
ऊपर की समस्त इमारत खड़ी है
देखो, तुम्हारा उसी अल्हड़पन
से मुझे यह कहना कि
‘तुम ना बड़े वो हो’
मेरी इस कविता को पूर्ण करता है।
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