अपर्याप्तता 

01-06-2025

अपर्याप्तता 

धीरज पाल (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

ये दो आँखें कम हैं
तुम्हारी सुंदरता को समाहित करने के लिए अपनी आत्मा में, 
काश कि मेरे रोम रोम में आँखें होतीं
काश कि तुम्हें छूते ही 
मैं तुम सा हो जाता
और हो जाता जादूगर, 
बन जाता काजल तुम्हारी आँखों का
चमकता इस युग के अंत तक
 
ये दो हाथ कम हैं
थामने को तुम्हारा दामन 
काश कि मैं अष्ट भुजाओं वाला होता 
और बाँधता अपनी डोर को तुम्हारी डोर से
बन जाता सदैव के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा 
 
ये दो पाँव कम हैं
चलने के लिए संग तुम्हारे जन्मों जनम
काश कि मैं समय होता
थम जाता राह में तुम्हारी
शिव की भाँति लिंग हो जाता
 
ये दो जहाँ कम हैं
भ्रमण करने को संग तुम्हारे 
काश कि मैं प्रकाश होता
घूमता तुम्हें ले कर आकाशगंगाओं के देश। 

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