उपनिवेश

01-04-2024

उपनिवेश

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आज़ादी मिल जाने से उपनिवेशवाद ख़त्म हो गया है
यही जानते हो ना तुम? 
देखो अपने चारों तरफ़ और सच बताना 
क्या उपनिवेशवाद ख़त्म हो गया है, 
जवाब आयेगा नहीं
यहाँ हर एक शख़्स उपनिवेश है हर एक शख़्स का
ये आम सी दिखने वाली जनता, 
ये ज़मीने, ये जलस्रोत, ये संसाधन, 
पेड़ पौधे, पर्वत पठार 
क्या सब के सब सरकार के उपनिवेश नहीं है
जहाँ जब चाहा, जिसकी चाही 
ज़मीन ले ली, घर ढहा दिया
क्या तुम अपने माता पिता, 
भाई बहन, दोस्त यार के उपनिवेश नहीं हो
बिल्कुल हो, वो जैसा चाहते हैं 
तुम पर वैसा प्रभाव छोड़ते हैं
क्या तुम्हें याद है तुमने अपने मन की कब की थी, 
या कब कहीं घूमने गए थे अकेले
क्या ये जानवर जिन्हें तुम देखते हो, 
क्या इंसानों के उपनिवेश नहीं है?
सच बताना क्या तुम इन पर ज़ुल्म नहीं करते?
यहाँ हर एक शख़्स उपनिवेश है धन दौलत का, 
सुन्दर औरतों का, अमीर पुरुषों का
मैं भी तो हूँ उपनिवेश अपनी कविताओं का, 
शब्दों का और विश्वविख्यात कवियों और लेखकों का
क्या यह सच नहीं है कि 
तुम सब कुछ जानते हो फिर भी सोए हुए हो
क्यूँकि तुम अभी भी उपनिवेश हो 
निद्रा का, आलस का, दिखावेपन का
इस कलयुग को बचाने के लिए 
आने वाले कल्कि, क्या उपनिवेश नहीं है विष्णु का? 
और तो और हमने ईश्वर तक को उपनिवेश बना दिया है 
मंदिरों का, धर्मों का और कट्टर इंसानों का। 

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