आख़िरी कर्त्तव्य
धीरज ‘प्रीतो’
मुझे याद है वो मनहूस रात, वो मनहूस घटना
जब तुम्हारा बदन ठंडा पड़ गया था और साथ में
ठंडी हो गई थी रात, चाँद भी सो गया था,
चमगादड़ों ने कंदराओं को त्याग दिया था,
उल्लुओं को मोतियाबिंद हो गया था
निशाचरों ने बहिष्कार कर दिया था अँधेरे का
घड़ी की सुइयों में ज़ंग लग गया था, समय थम गया था
मेरी उदासी ज़मीन में गहरी जा रही थी
मैं रोना चाहता था फूटकर लेकिन
आँसू पलकों को छूकर वापस लौट जाता था,
एक ज्वालामुखी मेरी नाभि से फूटने वाला था
तभी प्रातःकाल का अश्व दौड़ता हुआ
मेरे द्वार पर पहुँचा और
खींचते हुए समय को दोपहर तक ले गया
उसी दोपहर मेरी सूजी आँखों ने
एक वीभत्स घटना देखी
कि एक कुत्ता सड़क पर मरा पड़ा था,
उसके साथी सड़क किनारे भौंक रहे थे,
आती जाती गाड़ियाँ कुचल रहीं थीं कुत्ते को
और कुचल रहीं थीं इंसानियत की बची आख़िरी गठरी को
उसी शाम एक गाय तड़प रही थी भूख से,
पुआल के जलाए खेत में और चाट रही थी राख को,
खुर दे रही थी ज़मीन की छाती को
उसके मुख से निकलने वाली झाग में
एक श्राप था कृष्ण को, एक निवेदन था मुझसे
मैं क्या करूँ? कबीर की तरह दोहे लिखूँ या
एक शिकायत भरा ख़त लिख दूँ गाँधी को या
करूँ आवाहन वर्गीज कुरियन का,
मुक्तिबोध का या प्रेम चन्द्र का
या मैं छोड़ दूँ आस कल्कि अवतार की
और कर दूँ शुरू पूजना कलि को
और बता दूँ देवताओं को कि
अब मनुष्यों में सच्चाई के दाँत नहीं उगते हैं
अगर उगते भी हैं तो दाँतो में
नफ़रत के कीड़े लगे होते हैं
मेरी उदासी, मेरी पीड़ा और
तुमसे बिछड़ने का दर्द अब समाप्त हो गए हैं
अब बचा है मुझमें सिर्फ़ और सिर्फ़ शून्य
मैं, रात, चाँद, चमगादड़, उल्लू,
निशाचर, कुत्ता और गाय सभी
जा रहे हैं कुतुबमीनार की चोटी पर
अपना आख़िरी साँस लेने,
अपना आख़िरी कर्त्तव्य निभाने।
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