एक बोझ

धीरज ‘प्रीतो’ (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

लोगों को मैं पागल नज़र आता हूँ
यह बात मुझे ख़ुशी देती है
मैं हूँ भी पागल, तुम्हारे इश्क़ में
और पागल को कोई रखना नहीं चाहता
परन्तु पागल सबको आनंदित अवश्य करता है
जैसे मजनूँ करता था
मैं स्वतंत्र हूँ अबाध भ्रमण करने को
अपने फूल की तलाश में
एक बाग़ से दूसरे बाग़ तक
मैं थकता नहीं, मजनूँ कब थका था लैला लैला कहते
प्रीतो प्रीतो कहते मैं भी लाउडस्पीकर हो गया हूँ
मुझे दुःख है, मुझे कोई पत्थर नहीं मारता
मारना चाहिए था
मतलब मैं अब तक मजनूँ नहीं बन पाया
यह बोझ अब मुझसे सहा नहीं जाता
उम्मीद है मेरी यह कविता पढ़ तुम मुझ पर एक पत्थर मारोगे
और मुझे इस बोझ से मुक्त करोगे। 

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