प्रवासी जीवन के अनुभवों को साझा करती रचनाधर्मिता हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पहचान के लिए संघर्षरत है। मुख्यधारा का साहित्य उसे अनदेखा भी करता रहा है। अनेक प्रवासी रचनाकारों ने अपने संघर्ष, दुख-सुख और पहचान के प्रश्नों को इन रचनाओं में बखूबी उकेरा है। प्रो. सुब्रमनी रचित ‘डउका पुरान’ इसी कड़ी की एक महत्वपूर्ण रचना है। हिन्दी प्रवासी साहित्य विशेषज्ञ डॉ विमलेशकांति वर्मा के शब्दों में ‘भारत से हजारों मील दूर प्रवासी भारतीय किस प्रकार अपने भावों की अभिव्यक्ति करते है,1 उसकी एक बानगी प्रस्तुत करता है- डउका पुरान।   यह लेखक की अपने समय और समाज के प्रति निष्ठा है कि उन्होंने इस रचना को भाखा में लिखने का साहस किया। सुब्रमनी को यह लगता है कि अँग्रेजी भाषा में उनके चरित्र, स्थितियाँ और कथा शायद विश्वसनीयता का स्पर्श न कर सकें। आखिर अँग्रेजी का एक विख्यात प्रोफ़ेसर जिसके खाते में अँग्रेजी की अनेक पुस्तकें है,… आगे पढ़ें
पहले समाचार चैनलों के माध्यम से लोगों को सूचनाएँ प्राप्त होती थीं। आज देखने को मिलता है कि लोगों के माध्यम से समाचार चैनलों को सूचनाएँ प्राप्त हो रही हैं। कई बार यह जानकारी समाचार चैनलों तक फ़ेसबुक, ट्विटर या किसी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिए ही पहुँच पाती है। रिपोर्टिंग को लगभग समाप्त कर दिया गया है। रिपोर्टिंग का स्थान सोशल मीडिया ने ले लिया है। इस सोशल मीडिया में दलित समाज की स्थिति को देखने, समझने के लिए हमें कई पहलुओं पर ध्यान देना होगा।  ग़रीब का जीवन अत्यंत दुरूह होता है लेकिन ग़रीबों में भी यदि आप दलित हैं तो जीवन जीना और भी दुश्वार है। पग-पग पर कठिनाइयाँ आपका पीछा करती रहती हैं। कोरोना महामारी ने दलितों के जीवन को और भी संकटपूर्ण बना दिया है। इस लेख में हम दलित जीवन के संकट पर बात करते हुए कोरोना महामारी में उनकी स्थिति… आगे पढ़ें
हिंदी में दलित साहित्य और दलित दर्शन की इधर खूब चर्चा हो रही है और राजनीति के समान ही साहित्य में भी दलित राजनीति उसके केंद्र में आ रहे हैं। दलितों के मसीहा डॉ. अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ ’मनु स्मृति’ को जलाकर तथा इधर ’भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ ने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ’रंगभू्मि’ का दहन करके दलित समाज की राजनीति तथा साहित्यिक मापदंडों के प्रश्नों को राष्ट्रीय चिंतन का विषय बना दिया। ऐसी स्थिति में बौद्धिक एवं साहित्य कला के क्षेत्र में डॉक्टर अंबेडकर के बाद लेखकों की एक ही सामने आए जिसमें कबीर को दलित धर्म का प्रणेता- प्रवर्तक घोषित किया, दलित संत कवियों में दलित जीवन के तत्व खोजे और आधुनिक दलित चेतना के लिए डॉक्टर अंबेडकर के साथ ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, पेरियार रामास्वामी नायकर, स्वामी अछूतानंद, चाँद गुरु एवं गुरु घासीदास आदि को श्रेय दिया, लेकिन डॉक्टर अंबेडकर के दलित चिंतन… आगे पढ़ें
समकालीन हिन्दी दलित साहित्य क्षेत्र में सुशीला टाकभौरे का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने जीवन के भोगे हुए यथार्थ को बड़ी ताज़गी के साथ रचनाओं में अंकित किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में दलित समाज के बच्चे, बूढ़े, युवा-युवतियों, सभी वर्ग का प्रतिनिधित्व बड़ी क्षमता के साथ किया है। उनकी कहानियाँ यथार्थ के धरातल पर समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ दलित चेतना के विकास में भी सक्षम है। उनकी रचनाएँ स्वानुभूतियों का जीवंत दस्तावेज़ है। उन्होंने स्वयं सामाजिक विषमता का ज़हर पिया है, परिमाणतः दलित यातना से रूबरू कराती उनकी रचनाएँ प्रबल आक्रोश के रूप में फूट पड़ती है। दबी-कुचली मानवीय संवेदना को आंदोलित करती है और उन्हें क्रान्ति की पहल द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान तलाशने में प्रेरित करती है। उनकी प्रमुख रचानाएँ हैं :- कहानी संग्रह – ‘संघर्ष’ (2006), ‘अनुभूति के घेरे’ (2011), ‘टूटता वहम’ (2012) काव्य संग्रह – ‘स्वाति बून्द और खारे मोती’,… आगे पढ़ें
दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून, सन् 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जनपद से जुड़े बरला नामक गाँव में हुआ। यह एक दलित परिवार था, जो कि अत्यंत निचले और निम्न पायदान पर था। इनका बचपन काफ़ी सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों में बीता। माता-पिता के स्नेह के अतिरिक्त सम्पूर्ण जीवन कष्टप्रद और संघर्षमय रहा। बचपन से ही लेखक ने दलित जीवन की पीड़ा को झेला। प्रारम्भिक शिक्षा बरला से विकट परिस्थितियों में प्राप्त करते हुए शिक्षा के क्रम को निरन्तर ज़िल्लत, शोषण तथा अर्थाभाव सहन करते हुए जारी रखा। इन्होंने तकनीकी शिक्षा जबलपुर, मुम्बई से ग्रहण की तथा विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए एम.ए. हिन्दी की परीक्षा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर से उत्तीर्ण की। ओमप्रकाश वाल्मीकि बचपन से ही अध्ययनशील और चिंतक व्यक्ति रहे। साहित्यिक क्षेत्र में इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कृतियों का सृजन किया। सन् 1997 में प्रकाशित ‘जूठन’ आत्मकथा के माध्यम से ये… आगे पढ़ें
दलित साहित्य वर्तमान का ऐसा विमर्श बन चुका है जिसका अध्ययन किए बिना सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को समझना ग़लत होगा। भारी संख्या में इस दिशा में लेखन के लिए प्रेरित होना यह बताता है कि यहाँ भी कम चेतना नहीं है बस बोलने का मौक़ा नहीं दिया गया। आज दलित विमर्श हिन्दी का ही नहीं, हिन्दी प्रदेश की सीमाओं से बाहर निकालकर बड़ा स्वरूप ले चुका है, जिसका मूल उद्देश्य है दलित जीवन की बुनियादी समस्याओं को जनता के सामने लाना। सम्पूर्ण भारतीय भाषा में दलित लेखन तेज़ी से हो रहा है। ‘दलित साहित्य’ के लेखन में किस-किस को शामिल किया जाए यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। दलित साहित्यकारों का मनाना है कि दलित की पीड़ाओं को वही समझ सकता है जिसने इसको भोगा है, यानि कि अनुभूति के आधार पर, जबकि दूसरा खेमा दलितों से इतर लिखे गए साहित्य को, जो दलित जीवन पर… आगे पढ़ें
एक परिपूर्ण कहानीकार के रूप में हिंदी साहित्य में अपनी लेखनी की अमिट छाप छोड़ने वाले तेजेंद्र शर्मा के नाम से आज साहित्य जगत परिचित है। दिल से लिखनेवाले इस कहानीकार की कहानियाँ परिपक्व हैं। वे चरित्रों के दर्द दिल में महसूस करते हैं, जिनकी कहानियाँ एक शोध है जिसमें सामाजिक बन्धनों का अनुबंध है, वर्तमान की वास्तविकता है और कल्पना में भी सत्य एक शोध बनकर उभारता है। यथार्थ का अनुभव परत-दर-परत दिखाई देता है। संवेदना की तीव्रता और आधुनिक यथार्थ का मिश्रण तथा दृष्टि को और अधिक पैनी बनाते हैं। तेजेंद्र जी की घनिष्ट मित्र ज़किया ज़ुबेरी लिखती है, ’तजेंद्र शर्मा की लेखन प्रक्रिया एक मामले में अनूठी है। वे अपने आसपास होनेवाली घटनाओं को देखते हैं, महसूस करते हैं और अपने मस्तिष्क में मथने देते हैं, जब तक कि घटना अपनी कहानी का रूप ग्रहण नहीं कर लेती। तेजेंद्र जितने अच्छे कहानीकार हैं उतने ही… आगे पढ़ें
प्रवासी साहित्य का मूल कथ्य परदेश में स्वदेश के मूल्य, संस्कृति, अनुभूतियों को अक्षुण्ण रखने वाले भारतीयों की मानसिक छटपटाहट है। प्रवासी साहित्य प्रवासी भारतीयों के द्वन्द्व को हिंदी पाठकों के सामने पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत कर रहा है। भूमंडलीकृत समाज में प्रवासी साहित्य भारतेतर हिंदी साहित्य की एक नयी पहचान तथा एक नया साहित्यिक विमर्श बन कर उभर रहा है। हिंदी पाठकों के मन में भी प्रवासी सहित्य अनेक प्रश्न उत्पन्न कर रहा है कि प्रवासी देशों में भारतीयों का जीवन कैसा होगा, परदेश में स्वदेश की कोई सत्ता या अनुभूति नहीं तथा उस देश का परिवेश, जीवन प्रणाली, संघर्ष सभी उसके जीवन को किस हद तक प्रभावित करते हैं?  साहित्य बुनियादी तौर पर देश और काल से जुड़े मनुष्य को पहचानने और परिभाषित करने की रचनात्मक प्रक्रिया है। मनुष्य को किसी भी तरह निरपेक्ष सन्दर्भ में नहीं पहचाना जा सकता। मनुष्य की पहचान का अर्थ उसके… आगे पढ़ें
रंग भेद मनुष्यता के नाम पर एक बड़ा घिनौना और अक्षम्य अपराध है। आज के सभ्य समाज में भी यह अपराध खुलेआम जारी है। अमेरिका जैसे उन्नत देश में यह किसी न किसी रूप में अभी भी क़ायम है। वैसे तो 1866 में ही अमेरिका में दास प्रथा समाप्त कर अश्वेत लोगों को नागरिकता प्रदान करने और वोट देने के अधिकार के लिए क़ानून बनाने का काम प्रारंभ हो गया था।1 मगर क़ानून बनाने से ही सामाजिक समानता और न्याय स्थापित नहीं हो जाता है। लोगों, श्वेत लोगों का नज़रिया अश्वेतों के प्रति बदलने में बहुत समय लगा। एलेक्स हेली के उपन्यास ‘रूट्स’2 और उस पर आधारित फ़िल्म (छ: भाग) में इसे देखा जा सकता है कि कैसे क़ानून बनने के बाद भी अत्याचार जारी रहा बल्कि उसमें षड्यंत्र और बेईमानी भी शामिल हो गई। 1955 में रोज़ा पार्कर की ज़िद और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के प्रयासों… आगे पढ़ें