विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

सुख-दुख हर्ष विषाद
 न्याय अन्याय वाद-विवाद।
विचार संवेदना।
सहते सब हैं, कहते सब हैं, 
दर्द अपना-अपना,
कितने हैं जो औरों का दर्द,  
अपना बना कर रचते हैं? 
अपना बनकर लिखते हैं?
सब संघर्ष सब द्वन्द्व, 
लिखते कहते जी गए प्रेमचंद!
दुखियों के साथी को कम हैं,    
हज़ार लाख शब्द!
हम जियें आजकल, परसों, 
या दिन और चंद!
भूख और मेहनत है जब तक, 
जगत में रहेंगे प्रेमचंद!
रहेंगे प्रेमचंद

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कहानी
कविता
गीत-नवगीत
साहित्यिक आलेख
शोध निबन्ध
आत्मकथा
उपन्यास
लघुकथा
सामाजिक आलेख
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ