वामन और बलि की गाथा
सुनी आपने बारम्बार
उसी कथा को ज़रा समझकर
आज सुनाऊँ पहली बार।
बलि था राजा असुर क्षेत्र का
महिमा जिसकी अपरम्पार
बलिराजा का बलि हृदय था
प्रेम, अहिंसा का आगार।
जहाँ तलक था उसका शासन
न्याय वहाँ तक होता था
ख़ुशहाली थी चारों ओर
दुखी न कोई शोषित था।
राज्य में उसके सभी नागरिक
ऊँचे और सुजान थे
जाँत-पाँत का नाम नहीं था
सारे एक समान थे।
नाम उसी का गूँज रहा था
दूर-दूर तक दिक्-दिगन्त
उसकी दिव्य कीर्ति ऐसी
कहीं नहीं था जिसका अंत।
उत्तर में था ब्राह्मण क्षेत्र
ब्राह्मण थे जिसमें भगवान
मगर बलि की बली पताका
करती थी उनको हैरान।
चाहते थे झुक जाए दक्षिण
हों ख़त्म सभी उसके गुण-मूल्य
डूब जाए ये आदि सभ्यता
रह जाए बस ख़ाली शून्य।
मूल्य सभी जो पनप रहे थे
बलि के काम-काज से
बिल्कुल मेल न खाते थे
ब्राह्मण धर्म समाज से।
“बलि है राजा घोर अधर्मी
माने ना भगवान को
धरती पर ये पाप है भारी
ख़त्म करो शैतान को”
ये थी राय ब्राह्मणों की
बलि राजा के बारे में
कीर्ति जिसकी दिक्-दिगन्त थी
उस राजा के बारे में।
मगर बलि राजा दक्षिण का
क्योंकर वह झुक सकता था
ब्रह्म क्षेत्र के लिए बलि,
अटल अबूझ चुनौती था।
युद्ध न सीधे कर सकते थे
बलि था ऐसा शक्ति भवन
बलि साम्राज्य मिटाने को
चाल नई गढ़ते ब्राह्मण।
और एक दिन उदित हुआ
उत्तर में वामन अवतार,
पौराणिक युग था वो पर
गढ़ा आधुनिक चमत्कार।
ब्रह्मक्षेत्र से शुरू हुआ फिर
अद्भुत एक कथा संसार
नायक जिसका वामन था
जो था विष्णु का अवतार।
वामन से ताक़तवर था
वामन का अद्भुत प्रचार,
ज्ञानी वामन अजानुबाहु है
जिसमें है ताक़त अपार।
ब्रह्म क्षेत्र से हुई घोषणा
जल्दी वो दिन आयेगा
वामन जाकर दक्षिण में जब
बलि को मार गिरायेगा।
बलि राजा हो गया अचंभित
कैसा ये वामन अवतार,
मुझसे उसका कैसा वैर
रार करे मुझसे बेकार।
शुक्रचार्य ने कहा बलि से
है असत्य ये निरा अटूट,
है फ़रेब ये ब्रह्म क्षेत्र का
जल्दी ही जायेगा टूट।
आ पहुँचा वो दिन भी जब
पीछे लेकर ब्रह्म क़तार
वामन छलिया आ पहुँचा
बलि राजा के द्वार।
पूछा बलि ने वामन से
बोलो हे विष्णु अवतार
तुमको मुझसे बैर है क्योंकर
जो ठाने हो मुझसे रार?
बोला वामन, हे बलिराजा!
मैं तो जोगी जनम-जनम का
दानी हो तुम बड़े जगत में
लेने आया थोड़ी भिक्षा
शुक्रचार्य ने कहा बलि से,
वामन है ये ब्राह्मण यंत्र
वैर छोड़कर माँगे भिक्षा
इसमें है कोई षड़यंत्र।
लेकिन भिक्षा माँग रहा था
विष्णु का वामन अवतार
दानवीर बलि कैसे करता
भिक्षा देने से इंकार!
बलि बोला, हे वामन देव!
ये राज्य, ये महल अटारी
है सब कुछ इस देश के जन का
जो मेरा, वो तुम पर वारी!
नहीं चाहिए महल अटारी
वामन बोला बलि से हँसकर
मैं तो माँगू थोड़ी भूमि,
वो भी केवल तीन क़दम भर!
जितनी चाहे उतनी ले लो
साँझी है ये भूमि सबकी
वामन चला नापने धरती
बली के इतना कहते ही..
एक पाँव उठा कर ऊपर
बोला वामन-गगन हमारा
हमने उसको नाप लिया है
अब आकाश नहीं तुम्हारा।
दूजा रखकर पाँव भूमि पर
बोला वामन– धरा हमारी
हमने उसको नाप लिया है
अब ये धरती नहीं तुम्हारी।
बलि राजा अब ये बतलाओ,
रखूँ तीसरा पाँव कहाँ पर?
कहा झुकाकर शीश बलि ने
रखें तीसरा पाँव यहाँ पर!
वामन ने जैसे ही रखा
पाँव तीसरा बलि शीश पर
जलने लगा पाँव अगन की
ज्वाल लपट में धू-धूकर!
वाणी गूँजी तभी गगन में
वामन तुमको जलना ही था
बलि राजा को धोखा देकर
ये अंजाम भुगतना ही था।
हा! हा! करता भागा वामन
पीछे-पीछे सारे ब्राह्मण
अगन छोड़ती कैसे उसको
राख हो गया जलकर वामन।
वामन को सब भूल गए
छली कपट का जो अनुयायी
लेकिन दक्षिण की जनता
बलिराजा को भूल न पाई
मई’04/अप्रैल’11
मुकेश मानस की यह कविता एक खंडकाव्य है जो प्रसिद्ध बलि-वामन आख्यान का एक अनिवार्य पुनराख्यान है। यहाँ कहन शैली महत्वपूर्ण है। कथित धर्म का प्रशासन बिना कुटिलता के नहीं चल सकता है, इस बात को बताती यह कविता उदार हृदय असुर राजा बलि का वामन द्वारा ठगे जाने को सरल शब्दों में बताती है। मुकेश मानस की यह कविता बिना हो-हल्ला मचाए विपक्ष की चतुराई को बेपर्दा करती है।
– डॉ. रवीन्द्र कुमार दास
मुकेश मानस की लम्बी कविता बलिगाथा में मिथकीय कथा के मूल आधार को ज्यों का त्यों रखते हुए, पुरानी कविता के काव्य कौशलों का इस्तेमाल करते हुए उसमें ज़रा सा परिवर्तन करके मूल मिथकीय कथा के प्रभाव को उलट दिया है
– डॉ. राजेश कुमार चौहान