उपन्यास अंश-
लट्ठे कपड़े जैसा घुटा मेघ, सेठजी की फिक्र का सबब था। मेघों की घुमड़ बिजली की कड़क, सेठजी का दिल धड़कने लगता। मेह बरस गया तो नींव में पानी भर जायेगा। ना साँप पकड़ा जाएगा, ना नींव रखी जाएगी। बादलों का कोई वजूद नहीं होता। वे तो हवा के रुख तितर-बितर, घुटते-छंटते हैं। हवा दो-चार झोंकें ऐसे आए, बादल तितर-बितर हो गये और आसमान मटमैली चादर-सा दिखने लगा था। सेठजी के फाख्ता हुए होश लौट आए थे।
सेठजी गाड़ी से उतरे, आँखों पर चश्मा चढ़ाये, धोती के छोर अँगुलियों की चिकौटी से उठाये। लखीनाथ गाड़ी से उतरा, अपनी टोकरी लिये, बाँहें संगवाये।
दोनों की आँखें एक साथ उधर गईं। नींव के बिल में घुसे नाग को देखने वालों का ठट्ठ का ठट्ठ जुड़ा था।
चिहुंकें हुईं– "सपेरा आ गया। सपेरा आ गया। साँप पकड़ेगा। साँप पकड़ेगा। टोकरी साथ लाया है, ले जाएगा बंद करके।" आवाज़ें सपेरे… आगे पढ़ें