आज मन में आया
मैं भी क्यों न उठा लूँ हाथों में
बग़ावती लाल झंडा
शोषितों की क़तार
दलितों से शुरू होकर
हम पर ही तो ख़त्म होती है!!
सामाजिक शोषण-हिंसा का शिकार
दलित ही नहीं
हम भी हैं,
मुट्ठी भर ताक़तमंद
मर्दों की मनमानी के शिकार
यही नहीं
नारी देह की बहती गंगा में
कुछेक दंभी पुरुष
अक़्सर धोते आए हाथ
जब-जहाँ-जैसा पानी मिला
गंदा, मैला, कुचला, उथला, गहरा या छिछला
ज़रूरी नहीं, भरी-पूरी नदी हो
छोटी-छोटी कीचड़ भरी बावड़ियों में भी
उतरने से बाज़ नहीं आते
तथाकथित मर्द
किसी से नहीं उम्मीद न्याय की
दलितों, पिछड़ों और महिलाओं का जीवन
आज भी है
उड़ती हुई बरसाती पाखी की तरह
जिसके पंख झड़ते ही
तमाम जीव रहते हैं मुँह बाये
आहार बनाने के लिए
कितनों ने अपनाई ख़ुदकुशी की राह
ये सोचकर
गिद्धों से नुचवाने से बेहतर है
ख़ुद ही करना देह निष्प्राण
मगर मैं यूँ नहीं मानूँगी हार
मैं उठाऊँगी बग़ावती झंडा
ज़रूरत पड़ी तो सजाऊँगी जौहर
हर उस अत्याचारी को
करूँगी आग के हवाले
जिसने मजबूर किया बच्चों को
फाँसी पे लटकने को
उनको मारा तड़पाकर
बहुत कर लिया विश्वास आक़ाओं पर
कच्ची से चमचमाती सड़कें
सब बिक चुकी हैं
और भवनों के दरवाज़ों की चाबी भी
अब महलों में नहीं होगा न्याय
न्याय होगा
इन्हीं शोषितों की बस्ती में
शोषितों के हाथ