विशेषांक: दलित साहित्य

22 Sep, 2020

मृगतृष्णा की क़ीमत 

कविता | वीना श्रीवास्तव

करमी जाती है नंगे पाँव 
खेत में 
रोपती है धान
मुर्गी, बत्तख, बकरियों के बीच रहती है 
नापती है धरती – आसमान रोज़ ही
और हंडिया पीकर झूमके नाचती है 
जी रही है सिर उठाकर 
सुंदर सपनों की मृगतृष्णा 
ले आई नयी दुनिया में 
अब पहनती है ऊँची हील की सैंडल 
चमचमाते ब्रांडेड कपड़े 
आगे – पीछे गाड़ियाँ 
हाथों में व्हिस्की 
झूमती है पॉप म्यूज़िक पर  
आँखों का भोलापन 
सन गया कीचड़ में 
उसने मार दिया 
अपनी आत्मा को
‘करमी’ अब ‘कशिश’ हो गई।

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