विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

बाँस का बच्चा

कविता | डॉ. टेकचंद

सोसाइटी में मरम्मत कार्य चल रहा है 
मिस्त्री मजदूर आ गए हैं 
लग्ज़री कार से आया ठेकेदार आदेश दे रहा है 
 
मसाला तैयार है 
पैड भी बँध चुकी है
थर्ड फोर्थ फ़्लोर की 
जर्जर किनारियों को छूते
तीस चालीस फुट के बाँसों से बनाई गई है पैड
 
मटमैले धूसर सूखे 
बूढ़ी रीढ़ से टेढ़े मेढ़े बाँसों में 
एक बाँस ताजा हरा कच्चा है सीधा तन कर खड़ा दृढ़ 
जैसे बाँस का अलवाया बच्चा है 
 
ऊपर से क़लमदार कटा है जैसे आसमान छू लेता 
नीचे मोटी गाँठें 
झाँक रही हैं जड़ें जहाँ से अभी तो इसको और विकसना था
जवान होकर बाँस-वन -बन घास वंश का
नाम रोशन करना था 
 
जाने बाँसों के किस हरे-भरे झुरमुट से 
उखाड़ काटकर लाया गया है
बालक सा काम पर 
डाँटकर लगाया गया है 
मगर काम पर लगा हुआ है हम सोए थे निंदड़क जब 
यह मुस्तैदी से जगा हुआ है
 
हमारी छत दीवारें 
जीना बुनियाद किनारे 
करने को पक्का
एकदम हरा कच्चा 
काम पर है बाँस का बच्चा 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

इस विशेषांक में
कहानी
कविता
गीत-नवगीत
साहित्यिक आलेख
शोध निबन्ध
आत्मकथा
उपन्यास
लघुकथा
सामाजिक आलेख
बात-चीत
ऑडिओ
विडिओ