ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
डॉ. अशोक गौतमज्यों ही ज़िंदगी की बस ज़िंदगी की रोड से डीरोड हुई तो ज़िंदगी में मंज़िल की तमन्ना लिए सफ़र पर निकले बाबूलाल का सफ़र ख़त्म हो गया। सरकार ने आव देखा न ताव परंपरा का निर्वाह करते हुए बाबूलाल की मृत आत्मा की तस्सली हेतु रूटीनन हादसे की न्यायिक जाँच घोषित कर दी।
बाबूलाल की आत्मा अपने घरवालों को औनी-पौनी राहत राशि सौंप, न चाहते हुए भी भटकती हुई, दूसरी आत्माओं की नज़रों में खटकती हुई टूटी-फूटी यमराज के दरबार में जा पहुँची। उसकी आत्मा को समय से पहले अपने दरबार में आया देख यमराज के त्यौर चढ़ गए। हद है यार! समय तय होने के बाद भी समय से पहले बाबूलाल यहाँ?? एटीएम समझ रखा है यहाँ को भी? जब मर्ज़ी" किए उसके आगे अकाउंट में पैसे न होने के बाद भी सीना चौड़ा कर खड़े हो गए।
"बाबूलाल तुम यहाँ? क़ायदे से तो तुम्हें इस वक़्त देश की किसी भी लाइन में होना चाहिए था। आख़िर ये सब है क्या?" यमराज बाबूलाल को देख गुस्साए।
"हुज़ूर, गुस्ताख़ी माफ़! होना तो क़ायदे से मुझे वहीं था पर बस हादसे ने किसी भी लाइन के बदले आपके सामने लगी लाइन में खड़ा कर दिया। प्रभु इस लाइन से आम नागरिक को मुक्ति कब मिलेगी?" बाबूलाल ने काँपते मुस्कुराते हुए कहा तो यमराज उसे मुस्कुराते हुए घूरे। यार आदमी है या फटा कच्छा! मरने के बाद भी मज़ाक नहीं छोड़ रहा। उसके काँपते मुस्कुराते कहने से साफ़ लग रहा था कि मरने के बाद भी उसके भीतर हादसे का भय और ख़ुशी अभी भी ज़िंदा थे।
"मतलब??" यमराज मुस्कुराने के बाद चौंके।
"हद है साहब! वहाँ इतना बड़ा हादसा हुआ है और आप?? आपका टीवी ख़राब तो नहीं हो गया है?" ये यमराज हैं या लोकतंत्र की सरकार! उसने मन ही मन अपने बाप को कोसा।
"तो हादसे की जाँच पूरी होने तक तो वहीं रह लेते। उसके बाद आते तो...," यमराज ने हिम्मत से झेंपते हुए पूछा।
"काहे की जाँच हुज़ूर! आम जनता के नसीब में तो बिन आँच जीना है, बिन जाँच मरना बदा है," बाबूलाल ने कहा तो यमराज चित्रगुप्त की ओर देखते गंभीर मुद्रा में बोले, "चित्रगुप्त! ये हम क्या सुन रहे हैं? जब तक बाबूलाल वाले हादसे के कारणों का पता नहीं चल जाता, उसकी ज़िम्मेदारी तय नहीं हो जाती, तब तक कोर्ट एडजर्न्ड! बसमंत्री को तत्काल बुलाया जाए? नहीं आएँ तो उन्हें हमारे आदेशों की अवमानना का नोटिस भी साथ ही भेज दिया जाए," चित्रगुप्त ने सुना तो परेशान हो गए। ख़ैर! सरकार का हुक्म था, सो तामील तो करना ही था। इसलिए तामील हो गया।
पहले तो बस-मंत्री उनके आदशों को लेकर आनाकानी करते रहे, कभी अपनी व्यस्तताओं की दुहाई देते रहे तो कभी सेशन चले होने की। पर जब उनका कोई वश न चला तो यमराज के कोर्ट में पेशी पर आना ही पड़ा। कटघरे में खड़े कर यमराज ने उनसे पूछा, "ये बस हादसा किसकी ज़िम्मेदारी है मंत्री महोदय?"
"मैं तो बस-मंत्री हूँ हुज़ूर! और वह भी फुल फ्लैज्ड! हादसे मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। मैं निर्माण के लिए ज़िम्मेदार हूँ, हादसों के लिए नहीं। इसके लिए मेरे बस-राज्यमंत्री से पूछा जाए। यह उनकी ज़िम्मेदारी है। वही हादसे की ज़िम्मेदारी के लेटेस्ट अपडेट्स दे पाएँगे आपको। उनको ही हमने हादसों की ज़िम्मेदारी लेने की ज़िम्मेदारी दी है। नैतिक-अनैतिक तौर पर उनकी ही इस हादसे को अपने ऊपर लेने की ज़िम्मेदारी बनती है।"
"धन्यवाद! क्षमा करना, आपका क़ीमती समय बरबाद किया," यमराज ने बसमंत्री को इज़्ज़त के साथ दिल्ली छोड़ आने के आदेश दिया तो उनकी जान में जान आई। तब उन्होंने आदेश दिया कि अविलंब बस-राज्यमंत्री को यमलोक में पेश किया जाए।
यमलोक के आदेश पर दूसरे दिन बस-राज्यमंत्री यमराज के दरबार में हाज़िर हुए तो यमराज ने उनसे पूछा, "महोदय, बस हादसा किसकी ज़िम्मेदारी है? इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? आप?"
"हुज़ूर! मैं नहीं, सीधे तौर पर बस का मैकेनिक ज़िम्मेदार है। उसके सही ढंग से बस ठीक न करने के कारण ही यह हादसा हुआ। हम लोग तो दिल्ली में रहते हैं। हमें क्या मालूम फ़ील्ड में क्या हो रहा है," बस-राज्यमंत्री ने बेधड़क कहा तो वहाँ खड़ी आत्माएँ ठहाके लगाने लगीं।
"तो ठीक है। तुम जा सकते हो। पर देश से बाहर मत जाना। तुम्हारी ज़रूरत कभी भी पड़ सकती है," यह सुन बस-राज्यमंत्री वहाँ से उल्टे पाँव ऐसे भागे कि दिल्ली आकर ही साँस ली। वे तो समझे थे कि अबके हादसे की ज़िम्मेदारी का घड़ा उनके ही सिर फूटने वाला है।
"चित्रगुप्त! तो हादसे वाली बस को ठीक करने वाले मैकेनिक को यहाँ हाज़िर होने के आदेश दो।"
"जो हुक्म मेरे आक़ा!"
अगले दिन बस का मैकेनिक हाज़िर हुआ तो यमराज ने उससे दहाड़ते पूछा," एक साँस में बस हादसे की ज़िम्मेदारी लेते हो कि भेजूँ नरक में?"
"सर! मुझे नरक में भेजने से पहले मेरी व्यथा तो सुन लीजिए। उसके बाद जहाँ आपका मन करे वहाँ मुझे भेज देना।"
"तो कहो, क्या कहना चाहते हो अपने पक्ष में?"
"साहब! क्या बताऊँ! न कहते बन रहा है न चुप रहते। असल में मैंने बस में पुर्जे तो ठीक लगाए थे पर... बस चलाने वाले ने बस ठीक ढंग से नहीं चलाई, इसलिए हादसा हो गया। हादसे में मेरी ज़िम्मेदारी कतई नहीं। हादसे का सारा दोष बस चलाने वाले का है और वही इसके लिए सौ प्रतिशत ज़िम्मेदार है," उससे डर के मारे कहा। कहना तो यह चाह रहा था कि बस के पुर्जे स्टोर वालों ने नक़ली ख़रीदे थे और कमीशन ऊपर तक गई थी। पर वह हिम्मत कर चुप रहा। वह सँभला कि अगर ऐसा कह गया तो मंत्री तक इस हादसे के दोषी क़रार दिए जा सकते हैं और उसके दंड स्वरूप उसका तबादला भी हो सकता है।
"तुम जा सकते हो मैकेनिक!"
"मैनी-मैनी थैंक्स सर!" मैकेनिक वहाँ से बिन कल-पुर्जों के ही ऐसे हवा हुआ जैसे गधे के सिर से सींग।
"तो अब चित्रगुप्त बस चलाने वाले को बुलाया जाए!"
"जैसा हुक्म मेरे साहब!"
और अगले रोज़ मुँह में खैनी-ज़रदा दबाए बस चलाने वाला यमराज के सामने हाज़िर हुआ। यमराज ने पहले तो उसे बाहर खैनी थूक आने को कहा। जब वह खैनी बाहर थूक कर आया तो गरजते हुए यमराज ने उससे पूछा, "हरदम खैनी-ज़रदा खाते रहते हो और हर कहीं बस को गिरा-बजा देते हो? किसने रखा है तुम्हें नौकरी पर?"
"किसने रखा है साहब? आप तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे... मंत्री जी ने। और किसने! वह भी पूरे पचास हज़ार लेकर।"
"और उसका नतीजा देख रहे हो? बाबूलाल की जान चली गई। जानते हो तुम परफ़ेक्ट ड्राइवर नहीं हो और उसके बाद भी.... अपनी ग़लती का अहसास है तुम्हें? अब पता चला कि इस हादसे के असली गुनाहगार तुम ही हो।"
"साहब! सच पूछो तो देश में न देश चलाने वाले परफ़ेक्ट हैं न देश में रहने वाले। पर फिर भी सब ठीक ही तो चल रहा है। किसीको किसीसे कोई शिकायत नहीं। रही बात हादसे की ज़िम्मेदारी अपने सिर लेने की सो... देश में सब सरकारी कर्मचारी पगार, रिश्वत के सिवाय जब कुछ और लेते ही नहीं तो मैं भी क्यों लूँ?" यमराज को बस चलाने वाले की वाचालता पर ग़ुस्सा आने लगा था। बड़ा मुँह फट्ट है ये।
"मतलब???"
"मतलब ये कि जब देश में सब ज़िम्मेदारी लेने से डरते हैं तो मुझे क्या पागल कुत्ते ने काट रखा है जो... मैं ये ज़िम्मेदारी क्यों लूँगा हुज़ूर? गधा समझ रखा है मुझे क्या?? हद है साहब, आप तो तानाशाही पर उतर आए हैं। मुझे ऐसे धमका-डरा रहे हैं जैसे मैं पार्ट टाइम कर्मचारी हूँ। दस साल से मैं पक्का ड्राइवर हूँ साहब! अभी मानवाधिकार आयोग में चला जाऊँ तो... आप तो लोकतांत्रिक देश के सरकारी कर्मचारी और वह भी केंद्र सरकार के से इस तरह पेश आ रहे हैं जैसे... जानना ही है तो सुनो साहब! बस हादसा सड़क पर काम करने वालों की ग़लती से हुआ है। उन्होंने सड़क ठीक करने के बदले दस से पाँच ही बजाए और आप मुझे ही ज़िम्मेदार मान बैठे इस हादसे का? हद होती है दादगीरी की भी। आप भी क्या यही सोच बैठे हो कि उनकी तरह डरा-धमका कर मुझे बलि का बकरा बनने को मना लेंगे? हादसे चलाने वालों की पूरी यूनियन है मेरे साथ। न वे सड़क बनाने में लापरवाही करते, न बस हादसा होता हुज़ूर। जो सच है, मैंने कह दिया। अब कर लो आपने मेरा जो करना है। यहाँ तो साली नौकरी करनी ही मुश्किल हो गई। पर एक बात कान खोलकर सुन लो साहब! जो हर ज़िम्मेदारी सबसे नीचे वाले पर तय करने का यह रिवाज बंद न हुआ तो देखना एक दिन...," उसने सीना चौड़ा कर हर बात कही तो यमराज उसका मुँह ताकते रह गए।
"तो तुम अब जा सकते हो।"
"जैसी आपकी आज्ञा! पर हुज़ूर, जाने को न भी कहते तो मरने से पहले यहाँ रुकता ही कौन मुआ," उस वक़्त बस, यमराज मन ही मन बड़बड़ा कर रह गए।
"चित्रगुप्त! इस मुँह फट्ट को भेज सड़क पर तैनात सड़क की रिपेयर को लगाए मज़दूरों को पेश किया जाए। तुरंत।"
सड़क की रिपेयर को तैनात मज़दूरों ने आते ही दोनों हाथ जोड़ यमराज से गिड़गिड़ाते हुए निवेदन करते कहा, "प्रभु! हम बेकसूर हैं। जब कहीं ज़िम्मेदारी डालने को जगह न मिली तो इन्होंने हम पर... असल में बस को ही जल्दी लगी थी। वह सीमा से कई गुणा अधिक तेज़ दौड़ रही थी। उसकी अंधी दौड़ के चलते ये हादसा हुआ और बाबूलाल सौभाग्य से इस हादसे का शिकार हो गया। इस हादसे में बस का सारा दोष है। वही इस हादसे की ज़िम्मेदार है। काश! हम भी बाबूलाल की तरह शहीद हो जाते तो घरवालों को कुछ तो मिलता।"
तो ठीक है। तुम भी जाओ। ...तो अब बस को तत्काल हाज़िर होने को कहा जाए चित्रगुप्त। अगर वह नहीं आती तो उसे यमराज के आदेशों को न मानने के अपराध में इस हादसे का पूरा ज़िम्मेदार क़रार दिया जाए अविलंब।"
"पर हुज़ूर बस यहाँ नहीं आ सकती," चित्रगुप्त ने हँसी रोकते कहा।
"क्यों??" पूछने के बाद यमराज अपना सोने का टोप उठा सिर खुजलाने लगे।
"क्योंकि वह यहाँ नहीं आ सकती। वह मृत्यु से परे है। उसमें आत्मा नहीं है। इसलिए वह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आती।"
"तो इसका मतलब??" वे मात्र मुट्ठियाँ भींच कर रह गए।
"मतलब यह कि जाँच जैसे चल रही है उसे वैसे ही चलने दें हुज़ूर! ज़िम्मेदारी का जो हशर हो रहा है, होने दें। क्योंकि वहाँ जो कुछ घटता है उसके लिए भगवान के सिवाय और कोई ज़िम्मेदार नहीं। बाबूलाल अपनी मौत मरा है। कहा भी तो है कि जाको मारे साइंया, बचा सके न कोय। बस हादसा तो मात्र एक बहाना है। रही बात ज़िम्मेदारी की! तो साहब, ये लोग अपने ऊपर सब कुछ ले सकते हैं पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते। जहाँ किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी की बात आती है, वहाँ ये ऐसे ही बड़ों-बड़ों को उलझा कर रख देते हैं। आपकी तो बात ही क्या! ये सरकारी धन से डट कर मौज मस्ती करते हैं। पर ज्यों ही किसी ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर लेने की बात आती है तो ये ज़िम्मेदारी से ऐसे भागते हैं जैसे साँप को देख चूहा भागता है, कुत्ते को देख बिल्ली भागती है। सच पूछो तो इन्हें ज़िम्मेदारी न लेने की ही पगार मिलती है। ये तब तक ज़िम्मेदारी एक दूसरे पर डालते रहते हैं जब तक ज़िम्मेदारी किसी अबोध-असहाय के गले ख़ुद ही नहीं पड़ जाती। ज़िम्मेदारी से भागना इनका धर्म है। ये आपके यमलोक के कर्मचारी नहीं, मृत्युलोक के रेगुलर, पढ़े-लिखे कर्मचारी हैं। इसलिए हुज़ूर, मेरी तो आपको यही सलाह है कि मृत्युलोक में दिन-रात होते वांछित-अवांछित हादसों की ज़िम्मेदारी न लेने वालों की टाँगों के बीच अपनी टाँग अड़ाने का मतलब है अपनी फ़ज़ीहत करवाना... कहीं ऐसा न हो कि आप मृत्युलोकियों की ज़िम्मेदारी फ़िक्स करते-करते अपनी ही ज़िम्मेदारी भूल जाएँ," कह चित्रगुप्त ने देशभर के सारे एटीएमों के आगे लगी सब लाइनों को मिलाकर बनने वाली से भी लंबी लग चुकी आत्माओं की लाइन की ओर संकेत किया तो यमराज जैसे नींद से जागे।
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