आदमी होने की ज़रूरी शर्त
डॉ. अशोक गौतमवे बंदर ही थे। गिनती में पूरे दो। न एक कम, न एक ज़्यादा। मतलब पूरे दो, तो पूरे दो। मैंने दस बार गिन लिए थे। पूरी एकाग्रता के साथ। किसी वैज्ञानिक ने उनके दिमाग़ की जगह से उनका दिमाग़ निकाल उस जगह आदमी के दिमाग़ का सफल प्रत्यारोपण कर दिया था। पर जिन आदमियों के दिमाग़ का प्रत्यारोपण उसने बंदरों के दिमाग़ में किया था, उन आदमियों के दिमाग़ की जगह को उसने भूसे से भर दिया। वे बंदर अदमी हो गए और वे आदमी राम जाने क्या हो गए।
उस वक़्त मैं विसंगति की छाँव में सिर से व्यंग्य की फटी टोपी उतार सुस्ता रहा था कि एकाएक मुझे देख वे पेड़ पर बैठे लेटे मुझ पर शर्त, सट्टा लगाने लगे तो मैं चौंका। शर्त, सट्टा यहाँ भी? पर फिर सोचा! यार! सट्टा कहाँ नहीं? सुट्टा कहाँ नहीं?
मुझे देख दूसरे ने पहले से ठिठोली करते कहा, "यह जो नीचे लेटा है, यह आदमी नहीं," मैंने सुना तो सही, पर आदमी होने के बाद भी चुप सन्न। सोचा, इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि मुझे कोई आदमी कहे या न कहे। मुझे पूरा पता है कि मैं आदमी हूँ, तो आदमी हूँ। आदमी होने के लिए मुझे बंदरों से सर्टिफिकेशन की ज़रूरत ही क्या? आदमी होने का सर्टिफिकेट वे लें जिन्हें आदमी होने के बाद भी अपने आदमीपन पर शक हो।
यह सुन पहले ने कहा, " यह आदमी ही है। लगे शर्त!"
तब दूसरे ने पूरे विश्वास से नहीं, बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ मेरी ओर घूरते कहा, "तो लगे शर्त! मैं कह रहा हूँ, यह आदमी नहीं है," और देखते ही देखते आदमी के आदमी होने पर भी उसके आदमी होने की शर्त लग गई।
मैं डरा! हद है यार! मेरे पुरखे भले ही बंदर रहे हों पर मैं तो इन दिनों आदमी ही हूँ। मेरे पास आधार कार्ड है। मेरे पास क्रेडिट कार्ड है। मेरे पास वोटर कार्ड है! मेरे पास ये कार्ड है, मेरे पास वो कार्ड है। मैंने अपनी जेब से जितने भी उस वक़्त मेरे पास कार्ड थे, उन्हें देखने-परखने के बाद उन्हें चिढ़ाते दिखाने शुरू किए, पर उन पर मेरे किसी भी कार्ड का कोई असर न पड़ा। बंदर जो थे। किसीमें आदमी का दिमाग़ रोपित करने के बाद वह सच्ची को आदमी हो जाता होगा क्या?
"तो हाथ कंगन को आरसी क्या बंदर को फारसी क्या?" दोनों एक साथ कहा और पेड़ से उतर नीचे आ गए। मेरे सामने! पर मुझसे कुछ दूरी बराबर बनाए रहे। व्यंग्य वाले से तनिक दूरी बनाए रखना शायद उन्हें भी आवश्यक लगा होगा। क्यों? ये वे ही जाने।
पहले ने दूसरे से पूछा, "देख इसके नाक है?"
"हाँ है।"
"मतलब, ये आदमी है। जो इसके नाक न होता तो ये सब कुछ होता पर आदमी न होता। "
"नहीं। ये फिर भी आदमी नहीं।"
"तो देख, इसके दो कान हैं?"
"हाँ हैं।"
"इसका मतलब ये आदमी है।"
"नहीं, ये फिर भी आदमी नहीं," उसने बड़े मज़े से मेरे आदमी होने को खारिज कर दिया तो मैं हँसा।
"तो देख, इसके दो आँखें हैं?"
"हाँ हैं।"
"तो इसका मतलब ये आदमी है।"
"नहीं! इसका मतलब ये फिर भी आदमी नहीं है।"
तो पहले ने दूसरे से ग़ुस्साते पूछा, "तो देख, इसके मुँह में दाँत हैं?"
"हाँ हैं।"
"तो इसका मतलब ये आदमी है।"
"नहीं! इसका मतलब भी ये आदमी नहीं है।"
"अच्छा तो देख! इसके पास दो हाथ हैं?"
"हाँ हैं।"
"तो इसका मतलब ये बिल्कुल आदमी ही है।"
"नहीं। दो हाथ होने का मतलब किसीके आदमी होने की गारंटी नहीं हो जाता। वह समाज के भले को हिलने भी चाहिएँ। अपना तो कुत्ते भी कर लेते हैं।"
"मतलब?"
"ये आदमी नहीं है।"
"देख, ये आधार कार्ड बता रहा है। आधार कार्ड झूठ नहीं बोलता। लीडर झूठ बोले तो बोलता रहे। अब मान ले ये आदमी ही है।"
"नहीं, ये फिर भी आदमी नहीं। आधार कार्ड होने पर कोई आदमी आदमी नहीं हो जाता। आदमी होने के लिए आदमी में आज और भी बहुत कुछ चाहिए।"
पहले बंदर को ग़ुस्सा आया। वह मुझे खों खों करने लगा तो मैं डरा। तब उसने मुस्कुराते हुए दूसरे से कहा, "देख तो! ये पुरखे से भी डर रहा है। इसका मतलब ये आदमी ही है।"
"नहीं यार! ये क़तई भी कहीं से भी आदमी नहीं," दूसरे ने इतने आत्मविश्वास से कहा कि मुझे पचास साल से आदमी होने के बाद भी अपने आदमी होने पर शक होने लगा। मित्रो! हर बीमारी का इलाज संभव है पर शक की बीमारी का नहीं। इसलिए मैंने शक को झटक दिमाग़ से किनारे फेंका तो वे दोनों उसपर केला समझ लपके।
"देख तो ये लेटा हुआ भी कितना परेशान है? इसका मतलब ये आदमी ही है," पहले वाले ने मुझे आदमी घोषित करने के लिए एकबार फिर तर्क दिया तो दूसरे ने नाक भौं सिकोड़ते उसी विश्वास के साथ कहा, "कहा न यार! ये आदमी नहीं है तो नहीं है।"
"तुझे कैसे पता कि ये आदमी होने के बावजूद भी आदमी नहीं? पहले ने हथियार डालते पूछा तो दूसरे ने हँसते कहा, "रह गया न तू आदमी का दिमाग़ अपने में प्रत्यारोपित करवाने के बाद भी बंदर का बंदर ही ! दिमाग़ बदलवाने भर से कोई बंदर आदमी नहीं हो जाता, उसमें सोच भी आनी चाहिए। अरे, आदमी वह होता है जिसके हाथ में मोबाइल हो। मोबाइल हाथ में लिए जिसका अपना इस्टाइल हो। आदमी वह होता है जो हरदम फ़ेसबुक, व्हाट्सएप पर जुटा हो। आदमी वह होता है जो हर वक़्त मैसेज करने देखने में लुटा है। आदमी वह होता है जो हर दो मिनट बाद बेकार में भी अपने मोबाइल को चेक करता रहे। आदमी वह होता है जो मिनट-मिनट बाद अनपना मोबाइल ऑन ऑफ़ करता रहे। आज के आदमी के पेट में रोटी हो या न, पर हाथ में मोबाइल होना ज़रूरी है। आज के आदमी के पास कमर में लंगोटी हो या न, पर हाथ में मोबाइल होना ज़रूरी है। वह सब कहीं इसके पास है?"
तो पहले ने सिर खुजलाते कहा, वह तो कहीं दिख नहीं रहा। तो इसका मतलब ये कि जनाब आदमी होने के बाद भी आदमी नहीं? फिर उसने मुझसे डाँटते हुए पूछा, "अबे ओ आदमी न होने के बाद के आदमी! तेरे पास मोबाइल है क्या? जो तू आदमी है तो दिखा अपनी आत्मा?"
"है तो सही पर....." आगे मैं चुप .....
"है तो दिखा? है तो उसका मिस यूज़ क्यों नहीं कर रहा?"
"उसकी बैटरी ख़त्म हो गई है,"मैंने लुटी सूरत बनाते कहा।
"तेरी बैटरी तो ख़त्म नहीं हुई है न?" पहला मुझ पर ग़ुस्साया,"आदमी होने दिखने के लिए आइंदा से ध्यान रहे, आदमी की बैटरी ख़त्म हो जाए तो हो जाए, पर मोबाइल की बैटरी हरगिज़ ख़त्म नहीं होनी चाहिए," फिर उसने दूसरे से कहा, "देख! इसके पास मोबाइल है तो सही पर...."
"ख़त्म बैटरी वाले मोबाइल के आदमी मरा हुआ होता है दोस्त! या कि आदमी आदमी होने के बाद भी आदमी ही नहीं होता। ले, तू शर्त हार गया," तो पहले ने उदास हो मुझे आदेश दिया, "देख! आगे से पॉवर बैंक साथ रखा कर। वरना ऐसा काटूँगा कि.. ऐसा काटूँगा कि.... आदमी होने के बाद भी मरवा दिया न मुझे!" पहला शर्त हारने पर अपना सिर खुजलाने लगा।
उसके बाद वे दोनों मुझे खों खों करते मेरे आदमी होने के बाद भी मुझे आदमी नहीं घोषित करते मुझे वहीं अधमारा छोड़ पता नहीं किस बार की ओर चले गए।
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