वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
डॉ. अशोक गौतमपड़ोसी से उसके धार्मिक अनुभवों को ले, मोक्ष की इच्छा लिए, बिन नहाए तो छोड़िए बिन हाथ मुँह धोए ही विश्वानाथ के दर्शन के लिए रात के तीन बजे ही लाइन में खड़ा हो गया था, यह सोच कर कि बाद में जो अपने भक्तों को मोक्ष देते-देते विश्वानाथ थक गए तो कहीं ऐसा न हो कि अपनी मोक्ष पाने की हज़ार किलोमीटर की थर्ड एसी वेटिंग लिस्ट वाली यात्रा अकारथ चली जाए। उस वक़्त मुझे अपने से अधिक दया विश्वानाथ पर आ रही थी। बेचारे पता नहीं कितनी सदियों से हमें मोक्ष देते-देते जाग रहे होंगे। भगवान को हम कहते तो वह रहते हैं जो मन में आता है, पर भगवान होना सच्ची में बहुत परेशानी का काम होता है भक्तो! भगवान होने के बाद वे ही जाने भगवान बने रहने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं? हर गए-गुज़रे भक्त को भी सादर गले लगाना पड़ता है। चाहे उससे कितनी ही बास क्यों न आ रही हो।
एक दूसरे को धकियाते, एक दूसरे से आगे बढ़ने के चक्कर में गिरता पड़ता, अड़ा खड़ा हुआ मोक्ष के बाद के पता नहीं कैसे-कैसे सपने लेता, मरते अजगर सी लाइन में बढ़ रहा था कि अचानक लगा मैं विश्वानाथ के क़रीब पहुँच गया हूँ। उनके निकट होने का आभास हुआ तो मुझे लगा मेरे मोक्ष के द्वारा तड़-तड़ से खुलने लगे हैं। मुझसे जब मोक्ष के द्वार तक जाने का अब और और इंतज़ार न हुआ तो मैंने चार को पीछे धकलने की कोशिश की ही थी कि तभी पुलिसवाला भद्दी सी गाली देता मुझे कालर से पकड़ मेरी जगह ले आया। भगवान के पास चौबीसों घंटे रहने का मतलब यह तो नहीं हो जाता कि उनके पास रहकर जीव संस्कारी हो ही जाएगा।
"पीछे चल! तुझे मोक्ष की ज्यादा जल्दी है क्या?" उसने मुझे मेरी औक़ात बता ही दी। आख़िर मैं सहम गया। इसके सिवाय मेरे पास दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं था मित्रो!
आख़िर अबके अदबी से मैं विश्वानाथ के पास पहुँच ही गया। उन्हें देखा तो लगा प्रभु अभी ही बहुत थक गए हैं। थकेंगे नहीं तो और क्या होगा! बेचारों को मंदिर प्रशासन सोने का वक़्त ही कितना देता है? उसका बस चले तो उन्हें आठ पहर चौबीसों घंटे जगाकर ही रखे। हाय रे प्रभु! प्रभु होना सच्ची को बहुत मुश्किल काम है।
मैं उनके पास पहुँचा ही कि ... उससे पहले कि मैं उनके आगे अपनी फ़रियाद रखता मुझे पीछे धकलेता वीवीआईपी आ टपका, पाँच हज़ार की रसीद गले में लटकाए। उसके मेरे आगे आते ही वे मुझसे बोले,"यार! ज़रा रुकना, पहले वीवीआईपी से मिल लूँ ," कह वे उसके साथ पूरी आस्था से यों बतियाने लगे ज्यों पूरी नींद लेकर जागे हों। बतियाते भी क्यों न, दस दस होते हैं, पाँच हज़ार पाँच हज़ार। आस्था जाए भाड़ में! भक्त जाए भाड़ में! आस्था की कैटेगिरी आत्मा के भाव से नहीं, जेब के भाव से तय होती है। आज का दौर आस्था को मन से बताने का दौर नहीं, आस्था को जेब से तुलवाने का दौर है।
...और देखते ही देखते वे मेरी ओर यों पीठ कर, ज्यों कभी मुझे देखा ही न हो, वीवीआईपी से बतियाने लगे। वे ठहाका लगाते बोले, "और सर! कैसे हैं आप? आप के दर्शन पाकर तो मैं.... सच कहूँ सर! इन दस-दस के भक्तों से कई बार मन बहुत ऊब जाता है। आप आए तो लगा किसी भक्त के दर्शन कर मेरा रात भर जागना सफल हुआ...।"
पर एक वह वीवीआईपी थे कि अपनी अकड़ रत्ती भर भी कम करने को तैयार न थे, होते भी क्यों, पहली बार अपनी जेब से पाँच हज़ार की आस्था की रसीद गले में डलवा सैंकड़ों को पीछे धकेल कर जो आए थे। उनके रौब से उस वक़्त यों लग रहा था मानो पाँच हज़ार में सिर से पाँव तक पूरे विश्वानाथ ही ख़रीद लिए हों, उन्होंने कहा, "प्रभु! प्रभु!!"
मैं उन्हें कुछ कहना चाह रहा था पर वे उसी अति विनम्र भाव से उनके हालचाल, क्रिया-कलाप पूछने में व्यस्त थे।
"तो आजकल आप कौन सी मनिस्टरी में हैं सर? मनिस्टरी में रहते हुए भी, अपनी जेब से धेला न ख़र्च करने के बाद भी कहो आपकी क्या इच्छा शेष है? सर! आप कहो तो आपको चार एक साथ प्रोमोशन का उपहार दूँ या....।"
वे वीवीआईपी के आगे हाथ जोड़े पूछे जा रहे थे और वे अपने ग़रूर में चूर उन्हें घूरे जा रहे थे मुस्कुराते हुए। मुझे लगा कि अब पुलिसवाला मुझे वहाँ से धीरे-धीरे धकियाने लग गया है तो मैंने विश्वानाथ से कहा, "प्रभु! अब तो मेरी विनती भी सुन लो। मुझे ही पता है कि मैं कैसे-कैसे आप तक पहुँचा हूँ," तो वे मुझ पर ग़ुस्सा करते बोले, "हद है यार! बदतमीज़ी की भी हद होती है। क़तई भी संस्कार नहीं तुममें तो? ज़िंदगी में बड़े लोगों से कैसे पेश आना चाहिए, ये भी नहीं जानते।"
"प्रभु! जानता तो सब कुछ हूँ पर अब पुलिसवाला मुझे यहाँ से धकेलने को धक्का देने लग गया है। इससे पहले कि वह मुझे आपके पास से उठाकर बाहर फेंक दे प्लीज़!" मैंने पूरी अनास्था से दोनों हाथ जोड़े तो वे मुझे कोसते बोले, "हद है यार! जान न पहचान, मैं तेरा करतार! जानते नहीं इन्हें? कितने पॉवरफ़ुल हैं ये। इनके नाम से मनिस्टरी में पत्ता भी नहीं हिलता। इनके दर्शन करना भर ही परम सौभाग्य का सूचक है हे रे नराधम!"
अब पुलिसवाला मुझे पूरा धकियाने लगा था। ये तो मेरी हिम्मत थी कि मैं जैसे-कैसे अब तक अड़ने की कोशिश कर रहा था, "प्रभु! ज़रा मुझसे भी बात कर लेते तो.…, लोकतंत्र में तो सब बराबर नहीं, पर अपने दरबार में तो सबको बराबर कर देते प्रभु!" मैंने कातर भाव से कहा पर एक वे थे कि वीवीआईपी के साथ बातें करने में इतने व्यस्त थे कि..... "प्रभु! प्रभु!” इससे पहले कि मैं कुछ आगे कह पाता मैंनेजमेंट का बंदा आया और मुझे धकेलता बोला, "हद है यार! तू तो दस रुपए में पूरे विश्वानाथ पर ही हक़ जमाए बैठा है। औरों को भी तो बैकुंठ चाहिए कि नहीं? चल आगे फूट!"
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