आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
डॉ. अशोक गौतम
जिसे देखो, उसे जल्दी मची है। जैसे आग लगी हो। ज़रा भी सब्र नहीं। सब भूल गए हैं कि सब्र का फल मीठा होता है। गिरने से पहले ज़रा कुछ देर तो खड़े होकर रुक लो। अच्छा लगेगा। गिरने को तो सारी उम्र पड़ी है भाई साहब!
पर नहीं भाई साहब! हम तो जितनी जल्दी हो सके, गिर के रहेंगे। अब शायद सबको पता चल चुका है कि खड़ा आदमी ख़ाक का होता है तो गिरा आदमी सौ लाख का। उसके घर में नोट गिनने वाली मशीनें, मशीनें होकर भी हाँफ जाती हैं।
अब उनकी ईमानदारी के रेत बजरी सीमेंट सरिए से बनाए नालायक़ पुल को ही देख लीजिए! गिर गया। अरे भैया! तुम तो अपने उद्घाटन तक खड़े रहने का सब्र कर लेते जैसे-तैसे। क्या चला जाता तुम्हारा? घर में बीवी थोडे़ ही इंतज़ार कर रही थी कि उद्घाटन होने से पहले ही खिसक लिए। पर नहीं भाई साहब! जब पुल बनाने वालों को ही सब्र नहीं तो पुल सब्र क्यों करे?
अरे भाई साहब! पुल ही तो गिरा है। इतना हो हल्ला क्यों? आसमान तो नहीं गिरा है न? तारे तो नहीं गिरे हैं न? चाँद तो नहीं गिरा है न? गिरता यहाँ कौन नहीं? यहाँ पल-पल गिर कौन नहीं रहा? ऐसे में जो गिरा हुआ न देखा, उसे ही गर्व से सिर ऊँचा किए खड़ा हुआ माना जाए।
ऑफ़िस का चपरासी गिरा हुआ है। पर यह बात दूसरी है कि वह गिरने के बाद भी शान से खड़ा हुआ है। यही तो उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत है जो उसे दूसरे गिरे हुओं से अलग करती है।
ऑफ़िस में छोटे बाबू साहब गिरे हुए हैं। पर यह बात दूसरी है कि वे गिरने के बाद भी शान से खड़े हुए हैं। यही तो उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत है जो उन्हें दूसरे गिरे हुओं से अलग करती है।
ऑफ़िस में बड़े बाबू गिर गिर कर चले हुए हैं। पर यह उनका ही दम है कि वे गिरने के बाद भी शान से खड़े हुए हैं। बंदा वही जो गिरा हुआ होने के बाद भी शान से तनकर खड़ा रहे। यही तो उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत है जो उन्हें दूसरें गिरे हुओं से बिल्कुल अलग करती है।
ऑफ़िस में साहब गिरे हुए हैं। पर यह बात दूसरी है कि वे गिरने के बाद भी शान से खड़े हुए हैं। यही तो उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत है जो उन्हें दूसरे गिरे हुए अफ़सरों से अलग करती है। गिरे हुओं को वैधानिक चेतावनी! बंदा दूसरों की नज़रों में गिर जाए तो गिर जाए, पर उसे अपनी नज़रों में कभी नहीं गिरना चाहिए। इज़्ज़तदार ज़िन्दगी जीने का इससे सरल कोई और तरीक़ा नहीं।
परीक्षा केंद्र में पारदर्शिता के प्रतीक पर्यवेक्षक जी गिरे हुए हैं। पेपर चेक करने वाले गिरे हुए हैं। परिणाम बनाने वाले गिरे हुए हैं। पर यह बात दूसरी है कि वे गिरने के बाद भी शान से खड़े हुए हैं। यही तो हमारी सबसे बड़ी ख़ासियत है जो हमें दूसरे गिरे हुओं से अलग करती है।
सरकार के बाहर भीतर नेता जी गिरे हुए हैं। पर यह उनका दम है कि दिन में दस दस बार गिरने के बाद भी वे ख़ुद को जैसे कैसे सँभाले हुए हैं, अपनी रीढ़ सीधी होने का जुलूस निकाले हुए हैं। उनके वोटर गिरे हुए हैं। उनके सपोर्टर गिरे हुए हैं। यह दूसरी बात है कि वे हमें गिरे हुए होने के बाद भी गिरे हुए नहीं दिखते।
औरों की तो छोड़िए, यहाँ तो सबको शान से खड़े होकर जीना लिखाने वाली क़लम तक गिरी हुई है। वे क़लम को सहारे दे देकर नब्बे डिग्री के कोण पर खड़ी दिखाते फिरें तो दिखाते फिरें।
गिरना माननीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। गिरना माननीय जीवन कौशल का अद्भुत ढंग है। गिरकर जीने में जो उमंग है, वह खड़े होकर जीने में नहीं। हम सब कुछ किए बिना रह सकते हैं, पर गिरे बिना नहीं। जो सोचते हैं कि वे चरित्र के अडिग हैं, लालच की हर आँधी तूफ़ान में इज़्ज़त के साथ खड़े रहेंगे, उन्हें दाएँ-बाएँ से गिरे हुए ऐसी टक्कर मार आगे हो लेते हैं कि वे पूरा जन्म लाख कोशिश करने के बाद दूसरों के सामने तो छोड़िए, अपने सामने भी खड़े नहीं हो पाते।
तय है, आदमी है तो देर सबेर गिरेगा ही। बेहतर आदमी वही जो जितनी जल्दी गिर जाए, उतना अच्छा। जो आदमी गिरने में जितनी देर करता है, गिरने के बाद उतना ही पछताता है। हाय रे बदतमीज़! गिरा तो गिरा, पर तू बहुत पहले क्यों न गिरा? गिरने के जितने फ़ायदे होते हैं, खड़े रहने के उतने ही नुक़्सान। गिरे हुए आदमी को समाज सर आँखों पर बिठाता है। जबकि चरित्र से उठे को नोंच-नोंच खाता है।
जब आदमी गिरता है तो उसकी बनाई चीज़ की क्या बिसात! ऐसा कैसे हो सकता है भाई साहब कि आदमी तो गिरे, पर उसकी बनाई चीज़ न गिरे? ऐसे में आदमी का बनाया पुल भी गिर गया तो गिर गया। वह खड़ा क्यों रहता? उद्घाटन से पहले नहीं तो उद्घाटन के बाद उसका गिरना तय था। अब उद्घाटन से पहले गिर गया तो वे क्या कर सकते हैं? जिसे जिस वक़्त गिरना है, वह उसी वक़्त ही गिरेगा। फिर क्या उद्घाटन से पहले, तो क्या उद्घाटन के बाद। जिसे जब गिरना हो उसे तब गिरने से कोई नहीं रोक सकता, भगवान भी नहीं। लगा लें वे भी उतना ज़ोर, जितना उनके पास हो। वे तो लोभ लालच के इंजीनियर मात्र हैं। सबको बचाने वाला भगवान हो या न, पर सबको गिराने वाला भगवान है। हम आप तो बस, निमित्त मात्र हैं जी!
हर क़िस्म के आदमी को लाख नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाओ। हर क़िस्म के आदमी को नैतिकता की जितनी चाहे घुट्टी पिलाओ। मुँह से घुट्टी का चमच हटा कि वह गिरा। उसे सुबह चाय में लाख नैतिकता चाय पत्ती की जगह काढ़ कर पिलाओ। जैसे ही नैतिकता के काढ़े वाली चाय ख़त्म होगी, वह शर्तिया गिर जाएगा। यह भी हो सकता है कि बंदा नैतिकता के काढ़े वाली चाय पीते-पीते ही गिर जाए। क्योंकि गिरना आदमी की प्रवृत्ति है। वह गर्व से खड़े बिना रह सकता है, पर इज़्ज़त से गिरे बिना नहीं।
यहाँ तो भाई ने सेमिनारों में ऐसे ऐसे नैतिक शिक्षा विशेषज्ञ नैतिक शिक्षा पर लेक्चर आते देखें हैं जो लेक्चर देने आते जाते बस से हैं, पर किराया टैक्सी का वसूलते हैं शान से।
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