जीवन के अहसासों का गुलदस्ता: ओम् सतसई
डॉ. अशोक गौतमसमीक्षित पुस्तक: ओम् सतसई
लेखकः डॉ. ओमप्रकाश सारस्वत
प्रकाशक: चंद्र्मुखी प्रकाशन, ई-223, शिवाजी मार्ग, जग्जीत नगर, दिल्ली-110053
संस्करण: 2023
सतसई परंपरा मुक्तक काव्य की एक विशिष्ट विधा है। इसके अंतर्गत सतसई का रचियता सात सौ या सात सौ से अधिक दोहे रच ग्रंथ के रूप में संकलित करता है। सतसई शब्द सत और सई से बना है, जहाँ सत का अर्थ सात और सई का अर्थ सौ। इस प्रकार सतसई काव्य वह काव्य कहलाता है जिसमें सात सौ या उससे अधिक दोहे हों।
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य समीक्षक आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने कवि हाल कृत गाथा सप्तशती को सतसई को सबसे प्राचीन सतसई माना है। गाथा सप्तशती प्राकृत भाषा में रची गई है और इसका प्रमुख वर्ण्य विषय शृंगार है जिसमें नायिका के अंग-प्रत्यंगों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन कवि ने किया है।
इसके बाद गोवर्धनाचार्य द्वारा रचित आर्य सप्तशती आती है जिसमें गोवर्धनाचार्य ने शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष का सुन्दर चित्रण किया है। इसका आधार कवि हाल की गाथा सप्तशती रही है।
तदोपरांत राजा अमरूक का अमरूक शतक पाठकों के सम्मुख आता है। इसका विषय भी मूलतः शृंगाररस के दोनों पक्ष संयोग और वियोग ही रहा है।
कुछ समीक्षक हिंदी काव्य की सतसई परंपरा का आरंभ कृपाराम की हिततरंगिणी से भी मानते हैं। इसलिए हिततरंगिणी हिंदी सतसई परंपरा की प्रथम कृति कही जा सकती है।
सतसई लेखन की यह अविरल धारा तुलसीदास की तुलसी सतसई से आगे बढ़ती हुई, रहीम की रहीम सतसई, अमीरदास की अमीर सतसई, कुलपति मिश्र की दुर्गा भक्ति चंद्रिका, बिहारीलाल की बिहारी सतसई, मतिराम की मतिराम सतसई, कवि वृंद की विनोद सतसई, कवि भूपति की भूपति सतसई, वृंद कवि की वृंद सतसई, रामसहाय दास की राम सतसई, कवि विक्रमादित्य की विक्रम सतसई, रसनिधि की रसनिधि सतसई, दयाराम की दयाराम सतसई, सूर्यमल्ल मिश्रण की वीर शप्तशती, दलसिंह कृत आनंद प्रकाश सतसई, वियोगी हरि की वीर सतसई, महेशचंद्र प्रसाद कृत स्वदेश सतसई, रामेश्वर करुण की करुण सतसई, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध की हरिऔध सतसई, नबीबख्श फ़लक की फलक सतसई जैसे सतसईकारों की एक लंबी परंपरा रही है। कहने का अभिप्राय यह कि हाल में जिस कवि से सप्तशती का आरंभ होता है वह कृपाराम की हिततरंगिणी के साथ हिंदी काव्य में निरंतर प्रवाहित होती रही।
हिंदी साहित्य में रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारीलाल की लिखी बिहारी सतसई इस परंपरा की प्रसिद्ध सतसई है। हिंदी साहित्य में इस सतसई का इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि इनकी सतसई से प्रेरणा पाकर सतसई रचना हेतु अनेकों कवि प्रेरित हुए। तब मुक्तक काव्य का यह रूप इतना पाठक प्रिय हुआ कि हिंदी में सतसइयों का एक विशाल भंडार हिंदी साहित्य को उपलब्ध हो गया। इसी सतसई परंपरा में हिंदी साहित्य के आधुनिककाल में भी अनेक सतसइयाँ लिखी गई हैं। परन्तु इस काल में सतसई लेखन बहुत कम हुआ।
सभी सतसइयों में जो एक बात की साम्यता है वह यह कि सब सतसईकारों ने अपनी सतसइयों में प्रमुख रस शृंगार को माना है। शृंगार के बाद नीति, सदाचार तथा भक्ति, वैराग्य को सतसईकारों अपनी सतसइयों में वर्णित किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब सतसई लेखन शिथिल प्रायः सा हो गया है, ऐसे में सतसई लेखन की परंपरा को आधुनिककाल में आगे बढ़ाते हुए सन् 2023 में आधुनिक भारतीय साहित्य में प्रतिष्ठित डॉ. ओमप्रकाश सारस्वत की ‘ओम् सतसई’ पाठकों और समीक्षकों का ध्यान बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट करती है। प्रतिष्ठित साहित्यकार ने हिंदी साहित्य के सभी विधाओं में समान रूप से साहित्य रच हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि करने का स्तुत्य कार्य किया है। इसी क्रम में इनकी ओम् सतसई प्रमुख है। ओम् सतसई में क्रमशः 38 पर्व हैं—पद से प्रभविष्णु, शील की सुगंध, संबंधों के स्रोत, महाहिमालय, माँ जन्मों का गीत, नित सौ टका उदात्त, बहनें बहनें धूप, भाई भाई आस, मान अमान, मर्यादा की रेख, स्वतंत्रता, स्वयं समुत्थित तंत्र, लाज बची न ताज, साधु-स्वादु, चकित थकित इंसान, नारी सौंदर्य, मैला मैला माथ, डेरों की साख, गाँव प्रतीक्षा, पहला दिवस आषाढ़ का, शुभ्र शुभ्र सी भोर, मूँगफली से दिन, ज्ञान तलाश तलाश, धन्यतमा धरती, महिला हुई महीयसी, उत्कर्षों की राह, बुद्धों का देश, मानसरोवर, सागर मातृका नदियाँ, वृष्टि-अतिवृष्टि, कश्मीर, लाख बहाने काल के, अपनों की अवहेलना, मन के दिक्, सारे नवपरिधान में, चिन्मय राम, यौवन के नवरंग, वंदे भारतम्। इन 83 पर्वों में 791 दोहे हैं। जो वर्तमान जीवन की विसंगतियों में संगतियों, अविश्वासों में विश्वासों, मूल्यों के विघटन में मूल्यों के संरक्षण को लय, यति, गति में पाठकों को मंत्रमुग्ध करते हैं। ओम् सतसई के 38 पर्व समाज और जीवन के इतने ही आयामों, विविधताओं, रंगों को अपने में समेटे हैं। ओम् सतसई में शृंगार भी है तो नीति भी। सदाचार भी है, ईश्वर/प्रकृति स्तुति भी है तो राष्ट्रस्तुति भी। राग भी है तो विराग भी। आकर्षण भी है तो विकर्षण भी। इसमें व्यक्तिगत जीवन भी है तो सामाजिक जीवन भी। संक्षेप में कहा जाए तो ओम् सतसई में सतसईकार ने जीवन के विविध रंगों काव्यात्मक शैली में समेटा है जो जीवन के बिल्कुल निकट के हैं, अपने देखे और जिए जीवन को आधार बनाकर।
जहाँ तक सतसई की छंद और भाषा संबंधी सवाल हैं तो सतसईकार का कहना है कि महाकवि निराला और महाकवि पंत के छंद बग़ावत करने के पश्चात् भी ये कवि छंदों के भीतर ही रहे क्योंकि छंद का अर्थ है, एक लय, यति, गति, प्रक्रिया, रचनात्मकता का प्रसार/प्रस्तार। किसी ख़ास व्यवस्था में कही गई/रची गई प्रस्तुति।
और भाषा-सतसईकार ने ठीक ही कहा है कि ओम् सतसई की रचना करते हुए उन्होंने भाषा के साथ कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की है। भाषा के साथ कोई ज़ोर ज़बरदस्ती होनी भी नहीं चाहिए। रचना में भाषा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने का सीधा सा मतलब होता है रचना को पाठकों से अलग कर देना। इसीलिए ओम् सतसई में जन भाषा की एक बानगीः
“मन में जो शंका बने, करो नहीं वो काम।
कहाँ लिखा है कीच में, डालो तुम पाँव।”
या फिर:
“यौवन जब रचने लगा, मन तिलिस्म के स्वाँग।
आकर्षण, उच्चाटन सभी, होने लगे तमाम।”
पूरी सतसई ऐसी ही भाषा को अपने में समेटे है जिसमें काव्यात्मकता भी है और सरसता, सरलता भी। इस सतसई में सबसे ख़ास यह भी है कि सतसईकार ने सतसई के अंत में 38 पर्वों के दोहों के अर्थों को भी स्पष्ट कर दिया है ताकि रचनाकार के रचना रचते वक़्त और पाठकों तक पहुँचने के समय के बीच जो कभी कभी या बहुधा अर्थ ह्रास हो जाया करता है उसका नुक़्सान न हो और सतसईकार के कहने/लिखने का अर्थ पाठकों तक सौ प्रतिशत पहुँचे। और लेखन की सार्थकता बनी रहे।
आज जबकि हिंदी साहित्य में सतसई लेखन परंपरा लुप्त सी होती जा रही है तो हिंदी साहित्य में डॉ. ओमप्रकाश सारस्वत की ओम् सतसई सतसई परंपरा को बनाए रखने का स्तुत्य संकल्प है।
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