टट्टी ख़त्म
डॉ. अशोक गौतम
गोबर को सरकार ने टट्टी इस इरादे से सेंक्शन की थी कि वह अपने परिवार के साथ इधर-उधर शौच न करे। क्योंकि पहले ही उसका गाँव शौच से ठसाठसा भर चुका था। जबसे सरकार ने गोबर को मुफ़्त का सरकारी राशन देना शुरू किया है, वह सारा दिन टाँगें चौड़ी कर घर में पड़ा रहता है, जहाँ मन करता टट्टी करता हुआ।
और मज़े की बात! महीने बाद ही सरकार की सेंक्शन टट्टी गोबर के घर! में गोबर को सरकार की ओर से टट्टी सेंक्शन होकर आ गई।
दो महीने हुए, चार महीने हुए, पर गोबर ने टट्टी न बनाई तो उसके पड़ोसी गरजे ने सरकार को सरकार की हैल्प लाइन पर उसकी कंपलेंट कर दी कि सरकार ने जो टट्टी गोबर को सेंक्शन की थी, वह उसे भी सरकार से मिली भैंस की तरह खा गया है। लिहाज़ा उसे सरकारी टट्टी खाने के जुर्म में कठोर से कठोर सज़ा दी जाए। क्योंकि गोबर को उठाने को सरकार जो भी देती है, मुँह में असली दाँत न होने के बाद भी वह सब खा जाता है।
ज्यों ही गोबर के पड़ोसी ने सरकार की हैल्प लाइन पर सरकार को गोबर की शिकयत की कि दूसरे ही दिन सरकार की ओर से शिकायत की इंक्वायरी करने सरकार के अफ़सर जी मूँछों पर ताव देते गोबर के घर आ पहुँचे तो अचानक यमराज की तरह सरकारी अफ़सर को अपने दरवाज़े पर खड़ा देख गोबर के पसीने छूटे। तब उसने दोनों हाथ जोड़ते सरकारी अफ़सर जी से सादर पूछा, “हे यमराज के साक्षात् प्रतीक साहब जी! आज मेरे घर कैसे दर्शन दिए?”
“सरकार बहादुर को तुम्हारी शिकायत गई है कि तुम्हें सरकार की ओर से जो टट्टी जारी हुई थी, तुम उसे खा गए हो। अब तुम्हें सरकार की पाई-पाई टट्टी का हिसाब देना होगा, नहीं तो . . .” गोबर को सरकार की ओर से जारी टट्टी की जाँच करने आए अफ़सर ने खाऊ नज़रों से देखा तो गोबर के होश उड़ने लगे। तब गोबर ने साहब जी को प्लास्टिक की कुर्सी बैठने को देते कहा, “ज़रा आराम करो साहब जी! मर जाए जो आपसे झूठ कहे। मानता हूँ, सरकार ने मुझे टट्टी सेंक्शन की थी, पर मैंने अकेले सारी सरकारी टट्टी नहीं खाई है। जैसे ही मुझे सरकार की टट्टी मंज़ूर होने की सूचना मिली तो सबसे पहले ब्लॉक के साहब जी पधारे। आते ही मुझसे बोले, ‘मुबारक हो गोबर! सरकारी टट्टी तुम्हें मंज़ूर हुई है। तुम्हारे लिए सरकारी ट्टटी मंज़ूर करवाने को मैं ही जानता हूँ, मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी। इसलिए क़ायदे से इस टट्टी का दस परसेंट तो मेरा धर्म से बनता है। तुम भला कहो चाहे बुरा।’
‘क्यों नहीं महाराज! आप न होते तो मुझे सरकारी टट्टी न मिलती। बस, यहाँ घर में सरकारी टट्टी आई तो दूसरी ओर उस टट्टी में से दस परसेंट आपके। और वह भी आँखें बंद करके। बच्चे का लहू पीऊँ जो अपने वादे से मुकरूँ।’ और साहब जी! सरकारी टट्टी में से दस परसेंट वे खा गए।”
“तो नब्बे परसेंट टट्टी तो अभी भी बची थी कि नहीं?”
“साहब जी! उसके बाद हमारे प्रधान जी आए। उन्होंने सीना चौड़ा करते कहा, ‘मुबारक हो गोबर! मेरी मेहरबानी से तुम्हें सरकारी टट्टी मंज़ूर हुई है। काला राम तो कहता मर गया कि मैं तुम्हारे बदले उसे सरकारी टट्टी मंज़ूर करवाऊँ, पर तुम ठहरे मेरे चुनाव चुनाव के पुश्तैनी वोटर। मत पूछो! तुम्हें सरकारी टट्टी मंज़ूर करवाने को मैंने कितने हाथ पाँव मारे?’
‘परधान जी महाराज! जो आपकी कृपा न होती तो सरकार की टट्टी तो क्या सरकार का पेशाब जनता को मंज़ूर न होता। आपके हाथ तो बहुत लंबे है परधान जी। भगवान आपके हाथ हर जन्म में इतने ही लंबे रखे।’
‘तो देख, इस सरकारी टट्टी में से दस परसेंट टट्टी क़ायदे से मेरी बनती है कि नहीं?’
‘ठीक है परधान जी! आप ठीक कह रहे हैं।’
“तो अस्सी परसेंट टट्टी कहाँ गई?”
“साहब जी! उसके बाद हमारे पंचायत के उप परधान जी मेरे घर आए। आते ही बोले, ‘रे गोबर! बधाई हो। सरकार ने तुम्हें टट्टी मूंजर कर दी।’
‘आपकी कृपा है सब उप परधान जी! जो आपकी कृपा न हो तो सरकार की टट्टी तो दूर, गाँव वालों को . . . ’
‘तो देख! इस ख़ुशी में सरकारी टट्टी में दस परसेंट मेरा बनता है कि नहीं?’
‘जी उप परधान जी!’ और सरकारी टट्टी में से दस परसेंट वे भी खा गए जनाब!”
“तो सत्तर परसेंट टट्टी कहाँ गई? मुझे तो वह यहाँ कहीं दिखाई नहीं दे रही?”
“साहब जी! पाई-पाई टट्टी का हिसाब दूँगा आपको। ज़रा धीरज रखिए। ज्यों ही मेरे गाँव के पंचायत मेंबर को इस बात का पता चला कि मुझे सरकार ने टट्टी मंज़ूर की है तो वे भी दौड़ै-दौड़े मेरे घर आए। आते ही बोले,
‘गोबर भाई, बधाई हो। सरकार ने तुझे टट्टी मंज़ूर कर दी।’
‘बस, सब आपकी कृपा है जी महाराज!’
‘देख, मैंने तुम्हें उसकी टट्टी तुझे दिलवाई है। आगे सब समझ गए न तुम?’
‘जी मेंबर साहब।’
‘तो इस टट्टी में से सीधी बीस परेंसट टट्टी मेरी बनती है ईमानदारी से।’
‘ठीक है मेंबर साहब जी! इस सरकारी टट्टी पर मेरा हक़ बाद में है पहला हक़ तो आपका ही बनता है जी जनाब!’ और वे भी टट्टी में से अपना हिस्सा ले आगे हुए।”
“तो बची हुई पचास परसेंट टट्टी कहाँ गई? हिसाब तो देना ही होगा गोबर। सरकारी टट्टी है न!”
“जी साहब जी!! उसके बाद पता नहीं कौन से सरकारी दफ़्तर से चार महीने बाद मुझे सरकारी आई टट्टी को चेक करने वाले आए। टट्टी तो कहीं थी नहीं, सो वे मेरे कान में बोले, ‘काग़ज़ों में टट्टी यूज़ हुई शो करवाना चाहते हो तो . . . ’
‘तो??’
‘तो जो तुम्हें सेंक्शन टट्टी में से बीस परसेंट मेरे मुँह में डाल दो तो मुँह बंद कर लूँगा। कहो तो मंज़ूर वर्ना . . .’ आख़िर में जनाब मुझे आई सरकारी टट्टी में पूरे बीस परसेंट खाकर ही माने। तब जाकर कहीं उनसे पीछा छूटा।”
“ठीक है! ठीक है! तो अब बीस परसेंट सरकारी टट्टी कहाँ गई?” पूछता है सरकारी अफ़सर! “देखो, टट्टी की जाँच में से पाक साफ़ बचना हो तो . . . नहीं तो सरकारी टट्टी खाने के जुर्म में . . . पता है सरकार इन दिनों खाने वालों पर कितनी सख़्त हो गई है? मुझ जैसों तक को भी फूँक-फूँक कर खाना पड़ रहा है। याद रखो, जो एक बार सरकारी टट्टी के ग़बन में अंदर गए तो समझो . . . सरकारी टट्टी अकेले खाने की जिसने भी आज तक सोची उसे दस्त ही लगे। अब तुम चाहते हो कि . . . तो . . .।” गोबर ने सरकारी टट्टी की जाँच करने आए अफ़सर की सख़्ती देखी तो उसके सारे बदन में बिजली का करंट दौड़ने लगा। तब उसने काँपते हुए टट्टी की जाँच करने आए सरकारी अफ़सर से पानी की तरह पतले होते सानुनय पूछा, “तो आपकी कितने परसेंट टट्टी बनती है जनाब जी?” गोबर ने अभयदान की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए।
“बची हुई सारी! जाँच अफ़सर हूँ। कोई छोटा अफ़सर नहीं,” सरकारी टट्टी जाँच को आए अफ़सर ने होंठों पर जीभ फेरते कहा तो गोबर चुपचाप भीतर गया और भीतर से बची सारी टट्टी ले आया। फिर जाँच अफ़सर के हाथों पर रखते उसने कहा, “लो साहब जी! अब घर में तिल भर भी टट्टी नहीं बची। अब सारी टट्टी आपकी। विश्वास न हो तो भीतर जाकर ख़ुद ही चेक कर लो।”
“अब कोई भी सरकारी माई का लाल तुम्हारा बाल बाँका नहीं कर सकता गोबर! ये सरकार की नहीं, मेरी गारंटी है। जाओ, अब जहाँ मन करे शौच कर देश भरो, मौज करो,” जाँच अफ़सर साहब ने मुस्कुराते कहा और पीं-पीं करते ये गए कि वो गए तो गोबर के पेट में ज़ोर का मरोड़ फिरा और इससे पहले कि उसका पाजामा ख़राब हो जाता वह मुनिया के खेत की ओर सिर पर पाँव धर भागा। अब उसे अपने प्रेशर को रोकना बहुत कठिन हो रहा था। इसके बाद जो जाँच अफ़सर दो मिनट भी और रुक जाता तो . . . तय था कि . . .
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