छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में

15-02-2022

छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

छगन जी पहलवान हमारे इलाक़े के पुश्तैनी पहलवान हैं। पुश्तैनी पहलवान बोले तो उनके पितरों के समय से उनका पेशा पहलवानी ही रहा है। उनकी रग रग में इसी पुश्तैनी पेशे के चलते ख़ून की जगह पहलवानी में दौड़ती थी। 

तो अबके हुआ यों कि चुनाव में राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी की लोकतंत्र की रक्षा के लिए कैसे कहाँ से उनपर बुरी नज़र पड़ गई। या कि अपने दंगली दाँव-पेचों से वे पार्टी की नज़र में आ गए। राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी को अपने पुख़्ता सूत्रों से पता नहीं कहाँ से पता चला कि छगन पहलवान जब अखाड़े में उतरते हैं तो अपने विरोधी की टाँग-बाजू तोड़ कर ही अखाड़े से बाहर निकलते हैं। वर्ना अखाड़े से निकलते ही नहीं। ऐसे जिताऊ को जो पार्टी टिकट पर अखाड़े के बदले चुनाव के अखाड़े में छगन पहलवान को उतारा जाए तो वे सीट निकाल लेंगे पक्की। मतलब आधा दबका, आधा दाँव! और राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी तो चाहती भी यही थी कि लोकतंत्र को चाहे काले चोर के हवाले ही क्यों न कर दिया जाए, पर वह बस, सीट निकाले। इसी सिलसिले में राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के महासचिव ने उनसे संपर्क साधा, “और छगन भाई! क्या कर रहे हो?” 

“कौन दद्दा? किस अखाड़े से?” 

“अरे, हम बोल रहे हैं दिल्ली से राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के अखाड़े से हेड पहलवान! हैं तो हम भी पारिवारवादी पहलवान ही पर राजनीति के अखाड़े से हैं। बस, यों समझ लीजिए भाई-भाई हैं। तुम अखाड़े में टाँग-बाजू तोड़ते हो और हम सभा में . . . और क्या कर रहे हो?” 

“कुछ नहीं दद्दा! बाप दादाओं की तरह आने वाले कुश्तियों के सीज़न के लिए बॉडी की तैयारी कर रहे हैं,” छगन पहलवान ने अपने चेले से अपनी बॉडी में शुद्ध सरसों के तेल की मालिश करवाते कहा तो राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के महासचिव बोले, “तैयारी बोले तो?” 

“बस दद्दा! बॉडी में सरसों का तेल रचवा रहे हैं, अपने को दूसरों की शर्तिया पीठ लगाने लायक़ बना रहे हैं।” 

“अगर हम तुम्हें कुश्ती के मिट्टी के अखाड़े से उठा राजनीति के कुर्सियों वाले अखाड़े में ले आएँ तो? अगर हम तुम्हारे कंधों पर लोकतंत्र की रक्षा का भार डाल दें तो?” राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के महासचिव ने उनसे फ़ोन पर हँसते पूछा तो वे बोले, “ये क्या कह रहे हो बड़बड़ पार्टी जी! हम और चुनाव? हमें तो जीना मरना बस, अपने ही अखाड़े में हैं। हमें तो विरोधी की पीठ लगा जनता की तालियाँ बजवाना ही अच्छा लगता है।” 

“अरे, यहाँ भी तो वही सब काम है। जनता का मनोरंजन ही तो करना है। देखो! हम चाहते हैं कि तुम अबके चुनावी अखाड़े में लड़ो। बहुत जीत लीं ये हज़ार दो हज़ार वाली कुश्तियाँ। अब लाखों की कुश्ती करो और वह भी बिन लँगोट कोट पहने,” राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के महासचिव ने न समझने वाले छगन पहलवान को समझाते हुए कहा तो वे एकबार फिर बोले, “देखो महाचिव दद्दा जी! हमसे सबकुछ करो, पर कम से कम ठिठोली न करो। ठिठोली से हमें गुदगुदी होती है।” 

“अरे ठिठोली और तुमसे? तुम्हें तुम्हारे अखाड़े की क़सम! हम तो तुम्हें लोकतंत्र के मनोरंजन के लिए अपना उम्मीदवार बनाना चाहते हैं। यहाँ भी मनोरंजन, वहाँ भी मनोरंजन, पर पैसा! मत पूछो!” 

“क्या कह रहे हो दद्दा! पहलवान और राजनीति? देखो जी! हम अपने विरोधी को अखाड़े में पटखनी आँख मार कर भी दे देते हैं। हमारे पास दाँव तो एक से एक हैं पर . . .”

“अरे, तुम्हारे इन्हीं दाँवों के तो हम फ़ैन हैं। राजनीति में आज दिमाग़ की ज़रूरत भी कहाँ है? वहाँ बिन दिमाग़ लगाए बस, एक दूसरे की छल बल से पीठ ही तो लगानी होती है। और हमें पता चला है कि तुम्हारे पास पीठ लगाने के ऐसे ऐसे पुश्तैनी दाँव हैं कि . . . तुम विरोधी को पता ही नहीं लगने देते कि कब जैसे उसकी पीठ लग गई। हमें बस, तुम्हारे क्षेत्र से ऐसे ही जिताऊ नेता की तलाश है।” 

“मतलब कल से मुझे हर घर को अखाड़ा बनाना होगा? हर आम व ख़ास सभा में दंगल जमाना होगा?” 

“अरे, ग़ज़ब का माइंड रखते हो और फिर कहते हो कि तुम्हारे पास माइंड नहीं! बड़े छिपे रुस्तम हो तुम भी! राजनीति के बारे में जानते सब हो और कहते हो कि तुम्हें राजनीति की ट टा नहीं आती। हाँ बस, मोटा-मोटा कुछ यों ही समझ लो!” राष्ट्रीय बड़बड़ पार्टी के महासचिव फ़ोन पर छगन पहलवान को टिकट देते ठहाका लगाए तो छगन जी पहलवान बोले, “दद्दा! जो यही राजनीति है तो लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम तैयार हैं। अरे ललुआ! ये पकड़ लँगोट। कल से अखाड़े में लँगोट नहीं पहनेंगे हम। जा, तुझे ये लँगोट चेला दक्षिणा में दिया,” छगन जी पहलवान ने अपने चेले से लेटे-लेटे कहा और फिर कुश्ती वाले अखाडे़ के दाँव राजनीति वाले अखाड़े में वैसे ही लेटे-लेटे फ़िट करने लगे जैसे मेरी पढ़ाई के दिनों के कुर्सी पर लेटे-लेटे एक पूरे आत्मविश्वास से पार्टी प्रोफ़ेसर निराला में कबीर को फ़िट कर दिया करते थे। जल में कुंभ, कुंभ में जल, बाहर भीतर अज्ञानी की तरह। 

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