कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
डॉ. अशोक गौतम
वैसे हमारा शहर कवियों से ठसाठस भरा शहर है। यही वजह है कि जब शहर में सरकारी कवि गोष्ठी होती है तो उसमें सब कवि ही होते हैं, श्रोता कोई नहीं। और वे भी अपनी अपनी कविता सुनाने के तुरंत बाद अपने माथे से पीसना पोंछते हुए ऑन लाइन पेमेंट का फ़ॉर्म भर हवा हो लेते हैं। और जो वरिष्ठ कवि होते हैं, वे संयोजक से मिल सबसे पहले कविता पढ़ने वालों की लिस्ट में अपना नाम लिखवा अपनी वरिष्ठता का लाभ ले लेते हैं।
कहने को तो हमारे लिए गौरव की बात है कि शहर के नामचीन वे कवि हमारे मुहल्ले में रहते हैं। पर इस बात को लेकर पूरे शहर वाले हमें आठ पहर चौबीसों घंटे कोसते रहते हैं। यार! कैसे झेलते हो तुम इस नामचीन कवि को। हमसे तो कनिष्ठ कवि तक नहीं झेला जाता। अपने मुहल्ले में यार रखा भी तो कौन! मज़ा तो तब आता जो मुहल्ले में शेर रखते, चीते रखते। वैसे भाई साहब! आजकल लोकतंत्र में चीते भी तो कौन मज़े में हैं?
मैं जब भी अपने मुहल्ले में उस नामचीन कवि को देखता, उदास ही देखता तो सोचता इस समाज में कवि क्या उदास, हताश होने को ही पैदा होते होंगे? चेहरे पर इतनी उदासियाँ पोती हुईं कि इतनी तो फ़िल्मों की नायिकाएँ भी अपने चेहरे पर दर्शकों का उल्लू बनाने के लिए मेकअप नहीं पोततीं। लगता आह! कवि के चेहरे पर समाज की कितनी पीड़ाएँ! सच्ची को कवि होकर जीना पति होने से भी बहुत मुश्किल है प्रभु!
कल फ़ुर्सत में था सो नामचीन कवि के पास जा पहुँचा। सोचा, अपना रोना बहुत सुन लिया। चलो, आज जनता के लिए रोने वाले का रोना सुन लिया जाए। कवि के पास गया तो कवि क़ायदे से उदास। उसके चहरे पर पीड़ाएँ ही पीड़ाएँ। उसके चेहरे के दाएँ पीड़ाएँ। उसके चेहरे के बाएँ पीड़ाएँ। उसके चेहरे के ऊपर पीड़ाएँ, उसके चेहरे के नीचे पीड़ाएँ। उसकी पीड़ाएँ देख मैंने उसे विवाहित होने के बाद भी प्रेमिका की तरह गले लगाते पूछा, “हे कवि कुलश्रेष्ठ! समाज की पीड़ाओं को इतनी गंभीरता से फ़ील करने की ज़रूरत नहीं। जिसकी पीड़ाएँ हैं, वह फ़ील करे। जनता तो पैदा ही पीड़ाएँ भोगने के लिए होती है। उसे जो स्वर्ग भी दे दिया जाए तो वह वहाँ भी महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार चिल्लाती रहेगी। चिल्लाना जनता का परम धर्म है। वह चिल्लाएगी नहीं तो देश शोर विहीन हो जाएगा।”
“मित्र! ये जन पीड़ाएँ नहीं। लेखनीय पीड़ाएँ हैं।”
“लेखनीय पीड़ाएँ बोले तो?” इस पीड़ा से पहली बार वास्ता पड़ा था सो मुँह लटकाए पूछ बैठा।
“असल में तुम क्या जानों लेखनीय पीड़ाएँ राजस्व विभाग के बाबू! लेखनीय पीड़ाएँ जनता की पीड़ाओं से बड़ी होती हैं।”
“कितनी बड़ी? इतनी बड़ी? कि इतनी बड़ी?” मैंने अपने दोनों हाथ फैलाने शुरू किए तो वे बोले, “नहीं, आसमान से भी बड़ीं!”
“मतलब?”
“पहले जनता की अधकचरा छपाऊ पीड़ा फ़ील करते कुछ लिखने की सोचो! लिखने की सोचने भर से ही मत पूछो कितनी पीड़ा होती है।”
“फिर??”
“फिर उसे बार-बार लिखो, जब तक वह छपने लायक़ नहीं हो जाती। लिखने के बाद उसे कहाँ भेजा जाए, यह तय करो। कई बार तो अपने मित्र संपादकों को प्रकाशित होने के लिए रचना भेजो तो वे भी प्रकाशित नहीं करते। फिर महीनों रचना की स्वीकृति का इंतज़ार करते रहो। इन दिनों मत पूछो दिल का क्या हो जाता है! मत पूछो इस बीच किन किन रचना प्रकाशन की पीड़ाओं से गुज़रना पड़ता है।”
“फिर?”
“फिर रचना छप ही जाए तो महीनों द्वार पर डाकिए के आने का इंतज़ार करते रहो।”
“फिर?”
“फिर क्या? और इंतज़ार करो। रचना का पारिश्रमिक न आए तो मन मसोस कर दुबके रहो,” कह उन्होंने दर्द भरी लंबी आह भरी तो कमबख़्त कुछ देर के लिए मेरी साँसों की हवा भी खींच ले गए।
“तो संपादक से बात क्यों नहीं करते कि रचना का मेहनताना भेजा जाए? लेखक को मेहनत नहीं मिलेगी तो वह खाएगा क्या? यहाँ तो लोग बिन मेहनत किए ही देश को डकारे जा रहे हैं,” मैं पता नहीं क्यों देश भक्त हो गया। जबकि मेरे जैसे को देश भक्त होने का कोई अधिकार नहीं।
“डर लगता है। संपादक को ग़ुस्सा आ गया तो? इसलिए लंबे इंतज़ार के बाद भी जब पारिश्रमिक नहीं आता तो अगली रचना भेज दो पारिश्रमिक की आस में। जिस तरह पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं लिया जा सकता, उसी तरह लेखन प्रकाशन के कुएँ में रहकर संपादक से बैर नहीं किया जा सकता।”
“फिर?”
“फिर क्या! अब तो पत्रिकाएँ भी उन्हीं को मुफ़्त में छापती हैं जिन लेखकों ने उसकी सदस्यता ली होती है। रचना छप ही जाए तो अपने पैसे से मैग्ज़ीन ख़रीद दोस्तों को व्हाट्सएप पर पढ़ने के लिए भेजो। यह जानते हुए भी वे पढ़ेंगे नहीं। फिर उनसे पूछते रहो कि उन्होंने अमुक की रचना पढ़ी? कैसी लगी?”
“मतलब??”
“कोई सच्ची को रचना पढ़ ले तो फिर डूब जाओ अगली रचना लिखने को उदासियों के सागर में,” कह वे इतने उदास हुए कि, इतने उदास हुए कि . . . बॉय गॉड से! ज़िन्दगी में क़िस्म क़िस्म के उदासिए पीड़ित तो मैंने बहुत देखे थे, पर इतना पीड़ित मैंने पहली बार नज़दीक से कोई देखा था।
हे छापने पढ़ने वालो! हो सके तो इस कवि को उसकी पीड़ाओं से मुक्ति दो प्लीज़! कल को जो कवि को कुछ हो गया तो . . .
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