फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन! 

15-08-2022

फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन! 

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

हमारे मोहल्ले में बहुतों के मुहल्लों की तरह भक्त तो बहुत हैं, पर देश भक्त कोई नहीं। हम मोहल्ले वालों को दूसरी क़िस्म की भक्तियों से जो फ़ुर्सत मिले फिर तो हम देश के भक्त हों। हाँ! चुनाव के दिनों में हमारे मोहल्ले में यदा कदा कोई वार्ड मेंबर के लिए खड़ा होने वाला देश का भक्त लगता तो नहीं, पर अपने को देश का भक्त कहता बहकी-बहकी सी बातें करता दिख ज़रूर जाता है। 

देश स्वतंत्र हो जाने के बाद देश के भक्तों का देश में बहुत टोटा चला है। देश के भक्तों की असंख्य सीटें ख़ाली पड़ी हैं। बार-बार विज्ञापन देने के बाद भी इन सीटों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे। जब देश आज़ाद नहीं था, तब हर गली, मोहल्ले में देश के भक्त हुआ करते थे। जब कोई देश आज़ाद हो जाता है तो उसके बाद वहाँ देश के भक्तों का कोई ख़ास काम नहीं रह जाता। वे देश स्वतंत्र कर मेरे जैसों के हवाले कर अपने शीश कटा अपने रास्ते हो लेते हैं। 

हम मोहल्ले वालों को भक्ति से समय बचे तो तो प्रतीकात्मक ही सही, देश की भक्ति के बारे में सोचें। मुआ सारा समय दूसरी भक्तियों में ही बीत जाता है। हर दूसरे दिन मोहल्ले में पानी न आने पर देश की भक्ति के बदले पानी के लिए पानी वाले की भक्ति करनी पड़ती है। हर चौथे दिन किसी सज्जन के हाथों अपने मोहल्ले की टेलीफ़ोन की तार चोरी हो जाने पर डेड फ़ोन की भक्ति करते देश की भक्ति के बदले फ़ोन वाले की भक्ति करनी पड़ती है। बिजली वाले की भक्ति तो हमारे मोहल्ले में नित्य की भक्ति है। मुझे लगता है जैसे उसकी भक्ति देश की भक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसकी भक्ति न करो तो बंदा रात को तो रात को, पूरा मोहल्ला दिन में भी अँधेरे में ही रखे। फ़ोन पर फ़ोन करते तब हम सब मोहल्ले वाले उसकी भक्ति करते मर जाते हैं कि भैया! पधारो! लो दारु की बोतल और हमारे मोहल्ले की बिजली की लाइन का फ़्यूज़ फिर उड़ गया है या कि उड़ा दिया गया है। 

मोहल्ले के बचे-खुचे जो भक्त इन पूजाओं में शामिल नहीं होते, वे अपनी आठ पहर चौबीस घंटे अपनी बीवी की भक्ति में लीन तल्लीन रहते हैं। कलियुग में बीवी की भक्ति बहुत फलदाई बताई गई है। जो वैवाहिक तन मन से इस भक्ति में लीन रहते हैं, उनके घर में शान्ति का वास होता है। किसीसे मैंने सुना नहीं, साक्षात् बलात् देखा है। 

हाँ! कभी-कभार पंद्रह अगस्त या फिर छब्बीस जनवरी कोई अपने मोहल्ले के मेन गेट पर तिरंगा लगा दिख जाता है। या फिर कोई नेता अपने मोहल्ले में वोट मारने आए तो उसकी गाड़ी के आगे। वर्ना अपने यहाँ देशभक्ति और देशभक्ति का प्रतीक तिरंगा शेष दिनों में निषेध है, मद्यपान और धूम्रपान निषेध होने के बाद भी निषेध हो या न! 

अबके सरकार ने आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने को कहा तो हम मोहल्लेवासियों ने भी सोचा, चलो, महोत्सव ही मान लिया जाए। उत्सव तो महँगाई के दौर में कोई मनाया नहीं जा रहा। अब सवाल उठा कि घर घर तिरंगे लहराने को कहाँ से आएँगे? पर भला हो सरकार का कि ने उसने हर चीज़ की तरह इसका भी इंतज़ाम कर दिया। अब तो थाली से लेकर पराली तक सब इंतज़ाम सरकार ही कर रही प्यारे! वह भी फ़्री में। हींग लगे न फिटकरी, वोट मिले चोखा। अपना काम तो बस, हाथ पर हाथ धरे जीना है। 

अहा! कितनी उदार सरकार है मेरी भी। बिजली मुफ़्त! पानी मुफ़्त! आटा मुफ़्त! दाल मुफ़्त! कपड़ा मुफ़्त! लफड़ा मुफ़्त! अब भी ऐसे फ़्री के वातावरण में भी जो किसीका दुम घुटे तो सरकार क्या करे? 

इधर हमारे मोहल्ले के हर घर को तिरंगा बनाने के लिए तिरंगों की सरकारी सप्लाई आई तो अभी भी मोहल्ले में पता नहीं कहाँ बचे कुछ गँवार टाइप के लोग उस सप्लाई को देख दंग रह गए। किसी तिरंगे में अशोक चक्र नहीं तो किसी में दो ही रंग। कोई तिरंगा बीच से फटा हुआ तो किसीके रंगों की गुणवत्ता डिपू के राशन से भी गई बीती। हरा रंग कहीं तो केसरिया रंग कहीं। माना, हमें पेट भरने से मतलब है। पर इसका मतलब ये तो क़तई नहीं हो जाता भाई साहब! कि तिरंगे की गुणवत्ता से भी समझौता कर लिया जाए। 

वैसे हमारे मोहल्ले में व्यवस्था के थप्पड़ खा-खा अब लगभग सब समझदार से हो गए हैं। पहले कोई-कोई गँवार थे। सच सच पर बेवजह हंगामा खड़ा कर देते थे। बाद में जिसका ख़म्याज़ा पूरे मुहल्ले के समझदारों को भुगतना पड़ता था। पर अब परिस्थितियों ने उन्हें पीट-पीट कर समझदार बना दिया है। दिखते हुए भी मक्खी निगल जाने वाले से अधिक कोई समझदार नहीं होता। जब मगरमच्छों के बीच ही जीना मरना है तो बात बात पर उन्हें मगरमच्छ, मगरमच्छ क्यों कहना? भाई साहब कहते मुँह में कीड़े पड़ते हैं क्या? कभी-कभार क्या हुआ जो अब घर की परेशानियों के चलते किसी समझदार का सिर फिर गया तो फिर गया। 

अचानक इन तिरंगों को देख वे अव्वल दर्जे के समझदार होने के बाद भी पता नहीं क्यों अव्वल दर्जे के बदतमीज़ हो उठे और एकाएक उनका सिर फिर गया। क़ायदे से फिरना तो नहीं चाहिए था। पर किसीके सिर फिरने और नेता के बिकने का कुछ पता नहीं चलता कि कब फिर बिक जाए। वैसे लाइफ़ में मिनटों में अच्छे अच्छे समझदारों के सिर फिरते देखे हैं मैंने, पलों-पलों में एक से एक घैंठ आदर्शवादी नेता बिकते देखे हैं मैंने। 

जब वे पूरे मोहल्ले में अपना फिरा सिर नचाने के बाद फिरा सिर लिए मेरे पास आकर हल्ला करने लगे तो मैंने उन्हें शांत करवाते कहा, “कूल बंधु कूल! सरकारी सप्लाई है। तुम तो ख़रीद कर नहीं लाए? सरकारी तिरंगा इतना ही बुरा है तो बीस रुपए का अपना ही ख़रीद लाते। पर नहीं! मुफ़्त की चीज़ों में भी नुक्स निकालने की इस देश की आदत पता नहीं कब जाएगी? 

“भाई साहब! जानकर भी क्यों बवाल उठाए हैं कि सरकारी को सप्लाई ऐसी ही होती है। सरकारी सप्लाई पर जीते-जीते उनके सफ़ेद बाल हर हफ़्ते काले करने के बाद भी पाँचवें ही दिन सफ़ेद हो जाते हैं, फिर भी ढाक के वही तीन पात! बात-बात पर फ़्री के माल में भी नुक्स निकालने की ऐसे बुद्धिमानों की बुरी आदत पता नहीं कब सुधरेगी? 

“बंधु! बच्चों की फ़्री की किताबों के वादों से लेकर उनके बस्तों, वर्दी, पानी की बोतलों, दवाओं, हवाओं तक उनकी सप्लाई तो देखी ही है न तुमने? अपने यहाँ जब फ़्री के हवा, पानी तक गुणवत्ता के पैमाने से बाहर हैं तो बात-बात पर सरकारी सप्लाई को गुणवत्ता के पैमाने पर क्यों मापते हो मेरे बाप? कमाल है तुम्हारा भी! एक दूसरे को पीछे धकेलते तीन-तीन हाथ आगे बढ़ा सरकार का मुफ़्त का खाते भी हो और सप्लाई घटिया होने पर गुर्राते भी हो। तुम्हारी ये अजीब दोहरी सी नीति समझ नहीं आई कामरेड! अगर क्वालिटि से इतना ही प्यार है तो उनके मुफ़्त के राशन और भाषण को गो बैक! गो बैक! क्यों नहीं कहते? 

“हो सकता है हर बार की तरह सरकार को तिरंगे सप्लाई करने वाले सप्लायर ने सप्लाई की हर आइटम की तरह तिरंगे का सैंपल कोई और दिखाया होगा और बाद में सप्लाई कुछ और कर दी होगी। ये तो उसको ही पता है कहाँ-कहाँ नहीं भेंट चढ़ानी पड़ी होगी बेचारे को यह टेंडर लेने को? एक ही दिन की तो बात है। अब इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा हंगामा क्यों? 

“फ़्री का मिल रहा है फ़्री का बंधु!! फ़्री के चंदन में भी ख़ुश्बू ढूँढ़ते हो? फ़्री की बच्छिया के दाँत गिनने पता नहीं तुम कब बंद करोगे। कुछ बिगड़े लोग देश में कभी नहीं सुधरेंगे। सबका कुछ हो सकता है, पर इनका कुछ नहीं हो सकता। कितनी बार कहा यार! फ़्री की जो जैसी मिल रही है, उसीको दुआ समझो, दवा समझो। फ़्री के माल में क्वालिटि ढूँढ़ने पर तुम तो आहत नहीं होते, पर मुफ़्त में देने वाला बहुत आहत होता है।” 

यह सुनने के बाद अब वे कुछ समझदार तो बन गए हैं, पर देखते हैं, कब तक समझदार बने रहते हैं। 

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